प्रथम दृष्टि में प्रेम

01-10-2020

प्रथम दृष्टि में प्रेम

डॉ. उषा रानी बंसल (अंक: 166, अक्टूबर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

अक़्सर प्रश्न उठता है कि प्यार क्या है? मेरे विचार से किसी के प्रति सहसा मनसा, वाचा, कर्मणा अनुरक्त होना ही प्रेम है। कबीरदास जी ने लिखा कि: 

प्रेम न बाड़ी उपजे, प्रेम न हाट बिकाये।
राजा परजा जेहि रुचै सीस देई ले जाये॥

अर्थात् सर्वस्व समर्पण ही प्यार है प्रेम में दो का तो स्थान ही नहीं रहता। तू और मैं मिलकर हम बन जाते हैं। जैसे राम और सीता मिलकर सीता-राम हो जाते हैं। वैदेही बनवास के २३वें सर्ग में अयोध्या सिंह उपाध्याय जी ने सीता जी के प्रेम का उल्लेख सीता जी के मुख से इस प्रकार करवाया है: 

अन्तर का परदा रह जाता ही नहीं।
एक रंग ही में रँग जाते हैं उभय॥
जीवन का सुख तब हो जाता है द्विगुण।
बन जाते हैं एक जब मिलें दो हृदय॥78॥

राम जी व सीता जी भी इसी तरह एक दूसरे की छवि देख कर ही प्रेम बंधन में बँध जाते हैं, एक ही रंग में रँग। कई लोक गीतों में राम जी व सीता जी के इस प्रथम दर्शन सावर्ण्य मिलता है। एक ऐसा ही मनोहारी गीत है:

“देख कर राम जी को जनकनंदनी, 
बाग में बस खड़ी की खड़ी रह गई,
राम देखें सिया को, सिया राम को, 
चारों अँखियाँ लड़ी की लड़ी रह गईं।"

कितने सरल शब्दों में दूर-दूर से एक दूसरे को देख कर प्रेम हो जाने का अप्रतिम उदाहरण है। तुलसी दास जी ने रामचरितमानस के बालकाण्ड में इसका बड़ा ही सुंदर वर्णन किया है। 

राम, लक्ष्मण जी मुनि विश्वामित्र जी के साथ वन गये हुए थे। मुनि ने कहा कि जनकपुर में धनुषयज्ञ है। आप मेरे साथ जनकपुर चलें। रघुनाथ अपने भाई के साथ धनुषयज्ञ देखने चले गये। वहाँ जनक जी की बिटिया भूमिजा का स्वयंवर था। जो शिव धनुष को तोड़ देगा, सीता जी उसी को वरमाला पहनायेंगी। 

मुनि विश्वामित्र के आगमन का समाचार पा कर राजा जनक जी उनका स्वागत-सत्कार करने पहुँच गये। वहाँ मुनि विश्वामित्र जी ने राम, लक्ष्मण का परिचय मिथलापति से करवाया। उन्हें बताया की यह अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र हैं। यह जानकर राजा जनकजी ने उनका विशेष आदर-सत्कार किया। उन्हें अतिथिशाला में पहुँचाया। लक्ष्मण जी की नगर देखने की इच्छा का ध्यान रख कर, राम जी ने गुरु जी से नगर देखने की आज्ञा माँगी। तुलसीदास जी ने लिखा है: 

नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं॥
जौं राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै आवौं॥चौ.२१८॥ 

राम जी भाई के साथ नगर देखने चल दिये। शीघ्र ही नगर में उनके जाने का समाचार द्रुत गति से फैल गया: 

बिप्रकाजु करि बंधु दोउ मग मुनिबधू उधारि।
आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि॥चौ. २२१॥

राम चन्द्र जी की शोभा देख-देख कर सब नगरवासी यह मनाने लगे कि सीता जी का विवाह इनके साथ ही हो। सब गहरे असमंजस में पड़ गये कि यह तो बहुत कोमल किशोर है और धनुष बहुत कठोर। तुलसीदास जी ने उनकी दशा का वर्णन इन शब्दों में किया है: 

जेहिं बिरंचि रचि सीय सँवारी। तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी॥
तासु बचन सुनि सब हरषानीं। ऐसेइ होउ कहहिं मृदु बानीं॥चौ.२२३॥ 

अगले दिन गुरु से आज्ञा लेकर पूजा के लिये फूल चुनने दोनों भाई पुष्प वाटिका में गये। सुयोग देखिये उसी समय जनक तनया भी पुष्प चुनने पुष्प वाटिका में पहुँची। सीता जी के साथ उनकी सखियाँ भी थीं। एक सखि फुलवारी देखने चली गई, बताया कि: 

देखन बागु कुअँर दुइ आए। बय किसोर सब भाँति सुहाए॥
स्याम गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी॥ चौ. २२८, १॥ 

उसने कहा कि दो राजकुमार बाग देखने आए हैं। किशोर अवस्था के हैं और सब प्रकार से सुंदर हैं। वे साँवले और गोरे (रंग के) हैं, उनके सौंदर्य को मैं कैसे बखानकर कहूँ। वाणी बिना नेत्र हैं और नेत्रों के वाणी नहीं है।

सुनि हरषीं सब सखीं सयानी। सिय हियँ अति उतकंठा जानी॥
एक कहइ नृपसुत तेइ आली। सुने जे मुनि सँग आए काली॥ चौ. २२८॥

सखि के वचन सीता जी को बहुत प्रिय लगे और वह राज कुंवरों को देखने के लिये व्याकुल हो गये। सीता जी हिरनी की भाँति चारों ओर राम जी को देखने का प्रयास करने लगीं। उधर राम जी को पायल की मधुर झंकार और कंगन की झंकार सुनाई देने लगी। रामजी को ऐसा अहसास हुआ जैसे उनके मन में कामदेव की दुंदुभी बजने लगी है। राम जी भी चारों तरफ़ सीता जी को देखने का प्रयास करने लगे। तुलसीदास जी ने इस प्रथम दर्शन का बहुत मनोहारी वर्णन किया है। रामजी ने मुड़ कर उस ओर देखा जहाँ सीता जी थीं। सीता जी के मुख रूपी चन्द्रमा (को निहारने) के लिए उनके नेत्र चकोर बन गए। सुंदर नेत्र स्थिर हो गए (टकटकी लग गई)। मानो निमि (जनक जी के पूर्वज) ने (जिनका सबकी पलकों में निवास माना गया है, लड़की-दामाद के मिलन-प्रसंग को देखना उचित नहीं, इस भाव से) सकुचाकर पलकें छोड़ दीं, (पलकों में रहना छोड़ दिया, जिससे पलकों का गिरना रुक गया)। तुलसीदास जी ने इस दशा को इस प्रकार लिखा है।: 

देखि सीय शोभा सुखु पावा। हृदयँ सराहत बचनु न आवा॥
जनु बिरंचि सब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि॥चौ. २३०॥

राम जी को इस तरह सीता जी के प्रेम में विह्वल देख भाई लखन ने कहा कि यह वही जनक तनया हैं जिनके लिये धनुषयज्ञ का आयोजन हो रहा है। उनके प्रकाश से ही यह फुलवारी अलौकिक शोभा से प्रकाशित हो रही है।

दशरथ नंदन रघुनाथ जी को स्वप्न में भी कभी किसी नारी के प्रति अनुरक्ति नहीं हुई थी। वह सब नारियों में माता का ही स्वरूप देखते थे। ऐसे रघुवीर के मन में प्रेम का पुष्प खिलने लगा। तुलसीदास जी ने मर्यादित शब्दों में इसका इस प्रकार उल्लेख किया है: 

करत बतकही अनुज सन मन सिय रूप लोभान।
मुख सरोज मकरंद छबि करइ मधुप इव पान॥दो. 231॥

उधर सीता जी हिरनी की तरह रामचंद्र जी को चारों और देखने लगीं। वह चिन्ता करने लगीं की वह किशोर कहाँ चले गये,  तभी उनकी सखि ने लता की ओट से दिखाई देते श्याम व गौर नवयुवकों को दिखाया। जब कभी बहुत आतुर हो या अकुलाहट होती है, तो सामने की वस्तु भी दिखाई नहीं देती। सीता जी की दशा भी संभवत मृगी सी रही होगी जो इत-उत देख रही थीं। रघुनाथ जी की छवि का पान कर जनक नंदनी के नयन राम जी के रूप का अधिकाधिक पान करने को ललचाने लगे। सीता जी ने अपने जीवन धन को पहचान कर राम जी की छवि को अपनी पलकों में बंद कर नयनों में बसा लिया। यह है प्रथम दर्शन में प्रिय तथा प्रियतम का प्रेम के वशीभूत हो जाना। तुलसीदास जी लिखते हैं: 

लोचन मग रामहि उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी॥
जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी। कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी॥4॥

अर्थात्– नेत्रों के रास्ते श्री रामजी को हृदय में लाकर चतुरशिरोमणि जानकी जी ने पलकों के किवाड़ लगा दिए (अर्थात् नेत्र मूँदकर उनका ध्यान करने लगीं)। जब सखियों ने सीताजी को प्रेम के वश जाना, तब वे मन में सकुचा गईं, कुछ कह नहीं सकीं। 

लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाई।
तकिसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाई॥दो. २३२॥

राम व लखन लताओं की ओट से ऐसे प्रकट हुए जैसे बादलों के पीछे से पावन चन्द्रमा। राम लक्ष्मण के शरीर की आभा नीले पीले कमल सी है। सिर पर सुंदर मोर पंख सुशोभित है। उनके बीच बीच में कलियों के गुच्छे लगे हैं। माथे पर तिलक व तथा पसीने की बूँदें शोभायमान हैं। टेढ़ी भौंह तथा घुँघराले बाल हैं। नये लाल कमल के समान रतनारे नयन हैं। उनके रूप माधुर्य का वर्णन तो वर्णानातीत है। ऐसे समय सीता जी नयन बंद कर राम जी का रूप मन में निहार रही थीं, तब एक सखि ने कहा, कि गिरिजा जी का ध्यान फिर कर लेना, सामने राजकुंवर खड़े हैं उन्हें क्यों नहीं देखतीं!

सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे॥
नख सिख देखि राम कै सोभा। सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा॥चौ.२३४. २॥

भावार्थ– तब सीताजी ने सकुचाकर नेत्र खोले और रघुकुल के दोनो सिंहों को अपने सामने (खड़े) देखा। नख से शिखा तक श्री रामजी की शोभा देखकर और फिर पिता का प्रण याद करके उनका मन बहुत क्षुब्ध हो गया।

परबस सखिन्ह लखी जब सीता। भयउ गहरु सब कहहिं सभीता॥
पुनि आउब एहि बेरिआँ काली। अस कहि मन बिहसी एक आली॥चौ. २३४.३॥ 

सखियाँ समझ गईं कि सीता जी राम के प्रेम के वशीभूत हो गई हैं। उन्होंने कहा कि गौरी पूजन को देर हो रही है चलो सखि, घर भी जाना है। माता देर होने पर व्याकुल हो जायेंगी, कह कर एक सखि हँस पड़ी। सीता जी स्वयं को सम्हालने का प्रयत्न करने लगीं। उनकी दशा देखिये: 

देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।
निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि॥२३४॥

सीता जी राममय होकर पार्वती माता की पूजा करने चली गईं।

कविवर अयोध्या सिंह उपाध्याय जी ने “वैदेही बनवास” के २२ वें सर्ग में रामचन्द्र जी व सीता जी के इस प्रथम प्रेम का अलौकिक वर्णन किया है:

दोनों राजकुमार मुग्ध हो हो छटा।
थे उत्फुल्ल-प्रसूनों को अवलोकते॥
उनके कोमल-सरस-चित्त प्राय: उन्हें।
विकच-कुसुम-चय चयन से रहे रोकते॥41॥

फिर भी पूजन के निमित्त गुरुदेव के।
उन लोगों ने थोड़े कुसुमों को चुना॥
इसी समय उपवन में कुछ ही दूर पर।
उनके कानों ने कलरव होता सुना॥42॥

राज-नन्दिनी गिरिजा-पूजन के लिए।
उपवन-पथ से मन्दिर में थीं जा रही॥
साथ में रहीं सुमुखी कई सहेलियाँ।
वे मंगलमय गीतों को थीं गा रही॥43॥

यह दल पहुँचा जब फुलवारी के निकट।
नियति ने नियत-समय-महत्ता दी दिखा॥
प्रकृति-लेखनी ने भावी के भाल पर।
सुन्दर-लेख ललिततम-भावों का लिखा॥44॥

राज-नन्दिनी तथा राज-नन्दन नयन।
मिले अचानक विपुल-विकच-सरसिज बने॥
बीज प्रेम का वपन हुआ तत्काल ही।
दो उर पावन-रसमय-भावों में सने॥45॥

एक बनी श्यामली-मूर्ति की प्रेमिका।
तो द्वितीय उर-मध्य बसी गौरांगिनी॥
दोनों की चित-वृत्ति अचांचक-पूत रह।
किसी छलकती छबि के द्वारा थी छिनी॥46॥

उपवन था इस समय बना आनन्द-वन।
सुमनस-मानस हरते थे सारे सुमन॥
अधिक-हरे हो गये सकल-तरु-पुंज थे।
चहक रहे थे विहग-वृन्द बहु-मुग्ध बन॥47॥

राज-नन्दिनी के शुभ-परिणय के समय।
रचा गया था एक-स्वयंवर-दिव्यतम॥
रही प्रतिज्ञा उस भव-धनु के भंग की।
जो था गिरि सा गुरु कठोर था वज्र-सम॥48॥

धारणीतल के बड़े-धुरंधर वीर सब।
जिसको उठा सके न अपार-प्रयत्न कर॥
तोड़ उसे कर राज-नन्दिनी का वरण।
उपवन के अनुरक्त बने जब योग्य-वर॥49॥

उसी समय अंकुरित प्रेम का बीज हो।
यथा समय पल्लवित हुआ विस्तृत बना॥
है विशालता उसकी विश्व-विमोहिनी।
सुर-पादप सा है प्रशस्त उसका तना॥50॥

यह प्रेम क्षणिक नही वरन् एक सशक्त वृक्ष की तरह बढ़ा, पुष्पित, पल्लवित हुआ। उनका जीवन अनेक कठिनाइयों व विरह में व्यतीत हुआ। पर लागी नाही छूटे रामा... की तरह जीवन पर्यंत प्रेम अनुराग बढ़ता ही रहा। 

उधर सब राजा यज्ञशाला में एकत्र होने लगते हैं। जब राम लखन यज्ञशाला में प्रवेश करते हैं तो सब उपस्थित राजा व प्रजा जन, सभासदों को वह अपने अपने मनोभावों के अनुरूप दिखाई देते हैं। 

हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता॥
रामहि चितव भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया॥२४२, ३॥

अर्थात्– हरि भक्तों ने दोनों भाइयों को सब सुखों के देने वाले इष्ट देव के समान देखा। सीता जी जिस भाव से श्री रामचन्द्रजी को देख रही हैं, उस में स्नेह और सुख को तो केवल अनुभव ही किया जा सकता है। 

उर अनुभवति न कहि सक सोऊ। कवन प्रकार कहै कबि कोऊ॥
एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ। तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ॥ २४२, ४॥

उस (स्नेह और सुख) जिसका वे हृदय में अनुभव कर रही हैं गूंगे के गुण के स्वाद की तरह केवल वही जानती हैं। पर वे भी उसे कह नहीं सकतीं। 

रघुनाथ जी को, जिसका जैसा भाव था, उसने उसी रूप में देखा। 

सीता जी चकित होकर कौशलाधीश को देखने लगीं और उन्हें मुनि के पास बैठा पाकर ऐसे प्रसन्न हो गईं जैसा उनका ख़ज़ाना उन्हें मिल गया हो। उनके चंचल नयन ललचा कर राम जी पर टिक गये। इस तरह प्रिय को अपलक निहारना मर्यादा के प्रतिकूल जानकर वह प्रयत्न कर राम जी को हृदय में बसा कर सखियों की ओर देखने लगीं। 

राम जी जब धनुष तोड़ने के लिये उठे तो सीता जी के तन में रोमांच होने लगता है, उनकी आँखों में आँसू आ जाते हैं। लेकिन वह उन्हें आँखों की कोर में ही रोक लेती हैं। उनके चंचल नेत्र इस तरह लग रहे हैं, जैसे चन्द्रमंडल रूपी डोल में कामदेव की दो मछलियाँ खेल रहीं हैं। सीता जी की दशा रघुपति से छिपी नहीं थी। वह जब धनुष तोड़ने के लिये उठे तो उन्होंने देवताओं को प्रणाम कर सीता जी की ओर देखा:

प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना। कृपानिधान राम सबु जाना॥
सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसें। चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसें॥चौ. २५८,४॥

राम जी ने धनुष तोड़ दिया। सीता जी ने राम जी के गले में वरमाला डाल दी। इस तरह राम सीता के प्रेम की परिणति राम सीता के सीताराम होने में हुई। यह तो प्रेम का प्रथम चरण है। 

सीता जी ने रघुनाथ जी के गले में जयमाला डाल दी। इसके साथ ही सीता जी का विवाह राम जी से हो गया। इसके बाद घटना क्रम कुछ ऐसे घटित हुआ कि माता कैकेयी ने राजा दशरथ से वह दो वर माँग लिये जो उन्होंने कभी देने का वचन दिया था। जिसमें एक था, राम जी का १४ वर्ष का बनवास और दूसरा था भरत को अयोध्या का राजा घोषित करना। राजा दशरथ अपने पुत्र राम से वन जाने के लिये तो नहीं कह सके परंतु रामजी पिता के वचनों का मान रखने के लिये वन जाने के लिये तैयार हो गये। वचन के अनुसार केवल राम जी को वन जाने के लिये कहा गया था, परन्तु जब सीता जी को इस का पता चला तो उन्होंने भी वन जाने की आज्ञा माता कौशल्या व पति रामचन्द्र जी से माँगी। तब रामचंद्र जी ने उन्हें जंगल की भयावह दशा से अवगत कराया। सीता जी फिर भी अपनी बात पर अडिग रहीं तो राम जी ने कहा कि जो हठ करता है उसे हठ के कारण बहुत दुख सहने पड़ते हैं जैसे, “गालव नहुष नरेस“ को सहने पड़े। (दो, ६१ अयोध्या कांड।’)

रावण द्वारा सीता जी का हरण कर लेने पर निस्संदेह सीता जी को असहनीय कष्ट सहने पड़े थे। 

सीता जी ने माता कौशल्या व पति परमेश्वर की सभी बातें सुनने के बाद कहा: 

जहँ लगिनाथ नेह अरु नाते। पिय बिनु तियहि तरनिहु ते ताते॥
तनु धनु धामु धरनि पुर राजू। पति बिहीन सबु सोक समाजू॥२,६५॥

भावार्थ: हे नाथ! जहाँ तक स्नेह और नाते हैं, पति के बिना स्त्री को सूर्य से भी बढ़कर तपाने वाले हैं। शरीर, धन, घर, पृथ्वी, नगरऔर राज्य, पति के बिना स्त्री के लिए यह सब शोक का समाज हैं। 

भोग रोगसम भूषन भारू। जम जातना सरिस संसारू॥
प्राननाथ तुम्ह बिनु जग माहीं। मो कहुँ सुखद कतहुँ कछु नाहीं॥३,६५॥

भावार्थ: भोग रोग के समान हैं, गहने भार रूप हैं और संसार यम यातना (नरक की पीड़ा) के समान है। हे प्राणनाथ! आपके बिना जगत में मुझे कहीं कुछ भी सुखदायी नहीं है। 

रामचन्द्र जी ने फिर भी उन्हें महल में ही रहने के लिये समझाया। पति देवता के वचन सुन कर सीता जी के नयनों में जल भर आया, परन्तु उसे आँखों के कोर में ही रोक कर वह अपनी जननी, धरती माता की ओर देखने लगीं। उन्होंने कहा कि पति के वियोग से बड़ा कोई कष्ट नहीं होता है। उन्होंने कहा कि आपके बिना मेरा जीवन निष्प्राण है, जैसे पानी के बिना नदी। हे सुजान शिरोमणि आप तो सबके मन की बात जानते हैं:

राखिअ अवध जो अवधि लगि रहत न जनिअहिं प्रान।
दीनबंधु सुंदर सुखद सील सनेह निधान॥दो. अयोध्या,६६॥ 

भावार्थ: हे दीनबन्धु! हे सुख दाता, हे शील और प्रेम के भंडार! यदि (चौदह वर्ष) तक मुझे अयोध्या में रखते हैं, तो आपके बिना मेरे प्राण नहीं रहेंगे। 

वह आगे कहती हैं: 

को प्रभु सँग मोहि चितवनिहारा। सिंघबधुहि जिमि ससक सिआरा॥
मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू। तुम्हहि उचित तप मो कहुँ भोगू॥६६,४॥

भावार्थ: प्रभु के साथ (रहते) मेरी ओर (आँख उठाकर) कौन देख सकता है! जैसे सिंह की स्त्री (सिंहनी) को खरगोश और सियार नहीं देख सकते। मैं सुकुमारी हूँ और नाथ वन के योग्य हैं? आपको तो तपस्या उचित है और मुझको विषय भोग। इसी भाव को सीता जीअपनी सहचर्या आत्रेयी से लव-कुश के जन्म के बाद कहती हैं, जिसे अयोध्या सिंह उपाध्याय जी ने वैदेही बनवास के २३ सर्ग में इस प्रकार लिखा है: 

कहूँ आपसे क्या सब कुछ हैं जानती।
पति-वियोग-दुख सा जग में है कौन दुख॥
तुच्छ सामने उसके भव-सम्पत्ति है।
पति-सुख पत्नी के निमित्त है स्वर्ग-सुख॥77॥

सीता जी अपने अधीश्वर से कहती हैं कि ऐसे कठोर वचन सुनकर भी जब मेरा हृदय न फटा तो, हे प्रभु! तब ये पामर प्राण आपके वियोग का भीषण दुःख भी सहेंगे। 

ऐसा कह कर सीता जी बहुत विकल हो गईं। वह वियोग के वचनों को नहीं सह सकी। तब रामचन्द्र जी ने समझ लिया कि,

देखि दसा रघुपति जियँ जाना। हठि राखें नहिं राखिहि प्राना॥दो.६८॥

उनकी यह दशा देखकर श्री रघुनाथजी ने अपने जी में जान लिया कि हठपूर्वक इन्हें यहाँ रखने से ये जीवित नहीं रह पायेंगी। कृपालु सूर्यकुल भूषण रामचन्द्र जी ने कहा कि सब सोच छोड़ कर साथ चलने की तैयारी करो। 

 कहेउ कृपाल भानुकुलनाथा। परिहरि सोचु चलहु बन साथा॥ ६८,२॥ 

वनवास का समय तो वन देवी की गोद व वन पिता की छाँह में पति के संग साथ कुशल मंगल बीत रहा था। जब बनवास के क़रीब ६ मास शेष थे, तो एक दुर्घटना हो गई। दशानन सीता जी को हर कर ले गया। सीता जी ने कातर स्वर में रघुनायक को पुकारा। उन्होंनेकहा कि इस संसार में केवल एक वीर रघुनायक हैं। मेरे किस अपराध के कारण उन्होंने मुझे भुला दिया है। 

“आरति हरन सरन सुखदायक। हा रघुकुल सरोज दिननायक॥”

मारीच को सद्गति देने के बाद जब रामचन्द्र जी गोदावरी के तट परअपनी कुटिया में पहुँचे तो वहाँ जनक जननी को न पाकर व्याकुल हो गये।

हा गुन खानि जानकी सीता। रूप सील ब्रत नेम पुनीता॥
लछिमन समुझाए बहु भाँति। पूछत चले लता तरु पाँती॥ चौ. ३०, २॥

रामचन्द्र जी लक्ष्मण जी के बहुत समझाने के बाद भी कातर स्वर में कहने लगे कि हे गुणों की खान जानकी! हे रूप, शील, व्रत और नियमों में पवित्र सीते! आप कहाँ हैं? वह दुखी होकर लताओं, वृक्षों, पेड़, पौधों से पूछने लगे कि क्या उन्होंने उनकी प्रिया सीता जी को देखा है। वह कहने लगे: 

हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी॥
खंजन सुक कपोत मृग मीना। मधुप निकर कोकिला प्रबीना॥ ३०, ५॥ 

भावार्थ: हे पक्षियो! हे पशुओ! हे भौंरों की पंक्तियो! तुमने कहीं मृग के समान नयन वाली सीता को देखा है? खंजन, तोता, कबूतर, हिरन, मछली, भौंरों का समूह, प्रवीण कोयल। 

किमि सहि जात अनख तोहि पाहीं। प्रिया बेगि प्रगटसि कस नाहीं॥
एहि बिधि खोजत बिलपत स्वामी। मनहुँ महा बिरही अति काम॥ ३०, ८॥ 

भावार्थ: हे प्रिये! तुम शीघ्र ही प्रकट क्यों नहीं होती? इस प्रकार (अनन्त ब्रह्माण्डों के अथवा महामहिमामयी स्वरूपाशक्ति श्रीसीताजी के) स्वामी श्री रामजी सीताजी को खोजते हुए (इस प्रकार) विलाप करते हैं, मानो कोई महाविरही और अत्यंत कामी पुरुष हो। 

पूरकनाम राम सुख रासी। मनुजचरित कर अज अबिनासी॥
आगें परा गीधपति देखा। सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा॥ ३०, ९॥ 

अवध शिरोमणि रामचन्द्र जी को साधारण मनुष्य के रूप में विलाप करते देख देवता, ऋषि मुनि सब भ्रम में पड़ गये, कि पूर्णकाम, आनंद की राशि, अजन्मा और अविनाशी श्री रामजी मनुष्यों की तरह चरित्र कर रहे हैं।

माता पार्वती ने जब भगवान शंकर के देवाधिदेव को इस तरह विलाप करते देखा तो संदेह में पड़ गईं कि यह राजा राम हैं या नर तनधारी विश्वरूप राम जी। 

तुलसीदास जी ने बालकाण्ड के प्रारंभ में ही इसका बड़ा सुंदर वर्णन किया है। देखिये चौपाई ५०-५१। आश्रम में आने पर वैदेही को न पाकर राम जी की आँखों में अश्रु आ गये।

“विरह विकल नर इव रघुराई खोजत विपिन फिरत दो भाई।”

भगवान शंकर, राम लक्ष्मण को देख कर बहुत ख़ुश हुए। और वह सच्चिदानंद की जय-जय करते उमा के साथ आगे जाने लगे। उनके मन में अपने कृपानिधान के प्रति प्रीति बढ़ती ही जाती है। उधर पार्वती के मन में संदेह बढ़ता जाता है। शिव शंभु उन्हें बहुत समझाते पर पर उनके मन का संदेह नहीं जाता। तब शंकर जी कहते हैं जो तुम्हारे मन में अति संदेह है तो तुम जा कर स्वयं परीक्षा ले सकती हो। पार्वती जी सीता का वेश धारण कर कृपानिधान के सामने जाती हैं। राम जी उन्हें देखते ही पहचान लेते हैं और प्रणाम करते हैं: 

जोरी पान प्रभु किन्ह प्रनामु पिता समेत लीन्ह निज नामू। 
कहेउ बहोरि कहाँ वृषकेतु। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतु॥ ५३,८॥

कहने का अर्थ है कि जनकनंदनी के विरह में व्याकुल रामचन्द्र जी का हृदय सीता जी के प्रेम से इतना ओतप्रोत था कि सीता का रूपधर कर भी कोई उन्हें भ्रमित नहीं कर सकता था। 

सीता जी को खोजने में बहुत से ऋषि मुनियों को दर्शन देते दरशरथनंदन ने प्रबरशन पर्वत पर पर्ण कुटी बनाई। वहाँ उन्होंने वहाँ चार मास बिताये। वर्षा काल में जब आकाश में बादल छा गये और मेघ घोर गर्जना करने लगे तो राम जी ने अनुज लक्ष्मण से कहा कि, ”नभ घमंड घन गरजत घोरा प्रियाहीन डरपत मन मेरा।” राम जी का सीता जी के प्रति असीम प्रेम ने ही उन्हें  इतना विरही बना दिया।

शरद ऋतु आने पर राम जी ने सुग्रीव से कहा कि अब मन लगा कर ऐसा उपाय करो जिससे सीता महारानी की ख़बर मिल सके। उन्हें खोजने का उपाय करना चाहिये। 

हनुमान जी सीता जी की सुध लेने जब लंका में अशोक वाटिका में पहुँचे तो उन्होंने सीता जी को बहुत विरहाकुल देखा:

कृस तनसीस जटा एक बेनी जपति हृदय रघुपति गुन श्रेनी॥सुंदरकाणड,चौ. ८॥

निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन।
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन॥दो, ८॥

रावण तथा सब निसाचरियों के जाने के बाद हनुमान जी ने सीता माता को प्रणाम किया। और बताया की रामचन्द्र जी अनुज लक्ष्मण जी के साथ सकुशल हैं। 

जनि जननी मानहि जिया ऊना, तुम्ह ते प्रेमु राम ते दूना॥चौ. १४, १०॥

अंजनीपुत्र ने सीता जी को हर प्रकार से सांत्वना दी और कहा कि कृपानिधान आपको खोजते फिर रहे हैं। अगर उनको पता होता तो वह आपको आकर ले जाते। आप धीरज रखें, राम जी राक्षसों को मार कर आप को यहाँ से ले जायेंगे। 

हनुमान जी ने वापस रामचन्द्र जी के पास पहुँचे कर सीता की दशा का बड़ा मार्मिक वर्णन किया। तुलसीदास जी ने सुंदरकाण्ड की चौपाई ३१ में इसे लिखा है। अंत में बजरंगबली ने कहा कि:

सीता कै अति बिपति बिसाला। बिनहिं कहें भलि दीनदयाला॥५॥ 

सीता जी ने रामजी के लिये यह संदेश भिजवाया कि अगर एक माह एक दिन में अंदर आकर उन्हें नहीं ले गये, तो शायद उन्हें जीवित नहीं पायेंगे।

पवनसुत से सीता जी के विरह का आँखों देखा हाल सुन कर प्रभु की दशा इस प्रकार हो गई:

सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना। भरिआए जल राजिव नयना॥
बचन कायँ मन मम गति जाही। सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही॥1॥

भावार्थ: सीताजी का दुःख सुनकर सुख के धाम प्रभु के कमल नेत्रों में जल भर आया (और वे बोले-) मन, वचन और शरीर से जिसे मेरा ही आश्रय है, उसे क्या स्वप्न में भी विपत्ति हो सकती है?

इस सबसे पता चलता है कि सीता जी व रामचन्द्र जी दोनो एक दूसरे के विरह में तप रहे थे। 

इसके बाद दशानन के साथ महासंग्राम हुआ। तरह तरह के तन्त्र-मन्त्र, पूजा पाठ सिद्धियों का, मायावी शक्तियों का प्रयोग किया गया। लक्ष्मण का मूर्छित होना आदि इसी का परिणाम थे। रावण ने शक्ति की देवी को बस में कर लिया। तब दशकधंर को मारने के लिये दशरथकुमार ने शक्ति पूजा की। महाप्राण निराला ने “राम की शक्तिपूजा” में इसका दिव्य वर्णन किया है। जब वह शक्तिकी आराधना कर रहे थे, तो उन्हें अपनी पत्नी सीता जी की याद बराबर बनी हुई थी। रामचन्द्र जी को उस विषम  समय में सहसा सीता जी के प्रथम दर्शन तथा प्रेम की याद आ जाती है: 

ऐसे क्षण अन्धकार घन में जैसे विद्युत
जागी पृथ्वी तनया कुमारिका छवि अच्युत
देखते हुए निष्पलक, याद आया उपवन
विदेह का, -प्रथम स्नेह का लतान्तराल मिलन
नयनों का-नयनों से गोपन-प्रिय सम्भाषण,-
पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान-पतन,-
काँपते हुए किसलय,-झरते पराग-समुदय,-
गाते खग-नव-जीवन-परिचय-तरू मलय-वलय,-
ज्योतिःप्रपात स्वर्गीय,-ज्ञात छवि प्रथम स्वीय,-
जानकी-नयन-कमनीय प्रथम कम्पन तुरीय।
 
सिहरा तन, क्षण-भर भूला मन, लहरा समस्त,
हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त,
फूटी स्मिति सीता ध्यान-लीन राम के अधर, ..... 

युद्ध के मैदान, पूजा में भी रघुवीर राम को अपने प्रथम प्रेम का अहसास बराबर बना हुआ है। यह सीता राम के परस्पर प्यार की गहराई व स्थायित्व का परिचायक है। 

समाहार : 

पुष्पवाटिका में रामचन्द्र जी का सीता जी को देखना व सीता जी का रामचन्द्र जी के दर्शन करने मात्र से प्रेम के स्थायी संचारी भाव का उदय होता है। राम व सीता एक दूसरे के प्रेम के वशीभूत हो जाते हैं। उनके वशीकरण में संचारी भाव ३३ भावों में संचरण करते हैं। हर्ष व सम्मोहन में सहसा एक दूसरे के प्रति समर्पित हो जाते हैं। इस समर्पण में उन्हें विश्वास हो गया कि यही उनकी अमूल्य निधि हैं। यह विश्वास व समर्पण क्षणिक, पल दो पल का नहीं था। यह एक दिन दो दिन का भी नहीं था। यह प्रथम दर्शन से मृत्यु तक स्थायी था।  राजमहल से पर्णकुटी में, सम में विषम में, धूप में छाँह में, दुख में सुख में, विरह में जंगलों में भटकने, अशोक वाटिका में दशानन के प्रलोभनों, निसाचरियों के भयानक मानसिक शारीरिक संताप में प्रथम प्रेम एक सलिल पावन जलधारा सा बहता रहता है। उनका यह प्रथम प्रेम उनका जीवन आधार बन गया।

एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि सीताराम बनने के बाद भी दोनों एक दूसरे का यथोचित सम्मान करते हैं। राम सीता की अस्मिता व पहचान को पहचानते हैं। उनका जीवन राममय होकर भी अपनी एक अलग छवि के साथ आज तक आदरणीय है। 

आज की उपभोक्तावादी, बाज़ारीकरण की संस्कृति में ऐसे पावन प्रेम को समझना, समझाना तथा हृदयागंम करना वस्तुत: कठिन है। यह लेख लिखने में मुझे इस बात का बराबर अहसास था कि आज के युग में जब स्त्री-पुरुष अपनी अस्मिता व पहचान के चक्रव्यूह में अकेले अकेले जूझ रहे हैं, उनके संबंध कितनी कँटीली झाड़ियों से आवृत हैं, तब उनके लिये इस सागर से गहरे प्रथम दृष्टि प्रेम की थाह पाना सहज न हो। ऐसी सतह पर प्रेम का (सीताराम जैसा प्रेम का) अंकुर जन्मने का अवसर भी कम ही दिखाई देता है। 

मैंने अपनी नासमझ बुद्धि से इस गूढ़ तत्व को आलेख का में बाँधने का प्रयास किया है। मेरी अक्षमताओं को नज़रअंदाज़ कर इसे पढ़ने का आनंद उठायें। 

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