प्रश्न (कल्पित हरित)

01-06-2020

प्रश्न (कल्पित हरित)

कल्पित हरित (अंक: 157, जून प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

साकेत आज कुछ उदास सा लग रहा था। यूँ तो सब सामान्य था। वही रोज़ की तरह ऑफ़िस साथ जाना, वही हँसी-मज़ाक पर पुराना दोस्त है, ऑफ़िस का साथी है, लम्बे समय से साथ है तो उसके चेहरे की बनावटी मुस्कुराहट, जिसके ज़रिये वे अपनी उदासी छुपाना चाह रहा था, मुझे उसका अहसास हो गया था। जब कोई दिल से ख़ुश न हो और केवल उस भाव को छुपाने के लिए प्रयत्न स्वरूप समान्य व्यवहार करने की कोशिश करे तो उसके बेहद क़रीबी लोगों को असामान्य व्यवहार को भाँपने में वक़्त नहीं लगता।

क्या साकेत से पूछ लेना चाहिए? शायद नहीं क्योंकि अगर कोई बड़ी बात होती जिसमें मैं उसकी मदद कर सकता तो वह मुझसे निसंकोच कह देता! हो सकता है कोई ऐसी बात हो जो वह नहीं बताना चाह रहा हो। मन में जानने की उत्सुकता हो रही थी पर किस तरह से भावों को व्यक्त करूँ इसका निर्णय नहीं ले पा रहा था।

दोपहर में खाना मैं और साकेत साथ ही खाया करते थे, मज़ाकिया लहजे में कहा, “क्यूँ भाई आज उदास सा लग रहा है, भाभी से झगड़ा हुआ क्या?” 

फिर उसी बनावटी मुस्कान के साथ उसने बात को टालने का प्रयास किया, “नहीं ऐसी कोई बात नहीं है।”

“देख भाई ऐसा है दुख, तकलीफ़, बाँटने से कम होती है। हम कॉलेज से साथ हैं अगर कोई परेशानी है तो साझा कर सकते हो।”

कुछ देर के विराम के बाद अचानक साकेत बोला, “तुझे अपने कॉलेज की ‘तृप्ति’ याद है?”

वक़्त जैसे कुछ पलों के लिए रुक सा गया और सालों पीछे जाकर ठहरा। 

तृप्ति साकेत की बहुत अच्छी दोस्त थी जबकि स्वभाव से दोनों बिल्कुल अलग थे। तृप्ति कम बोलती थी और ज़्यादा सोशल नहीं थी; आसानी से घुल-मिल नहीं पाती थी लोगों से। इसके ठीक विपरीत साकेत अच्छा वक्ता, सबसे मित्रता रखने वाला, व्यवहार कुशल व्यक्तित्व था; जिसके कारण कॉलेज के सहपाठियों से लेकर शिक्षकों से उसका व्यवहार और मेलजोल था।

साकेत का अच्छा दोस्त होने के नाते मुझे जितना पता था उस हिसाब से तृप्ति और साकेत केवल अच्छे दोस्त थे। जो तृप्ति औरों से कम बोलती थी वह साकेत से घंटों बात कर लिया करती थी उनका आपसी तालमेल अच्छा था। दोनों एक दूसरे को ख़ूब ही चिढ़ाया करते, एक दूसरे से लड़ भी लिया करते थे और अगले ही पल साथ हँसते भी थे। कभी इस बारे में साकेत से बात होती तो यही कहता कि प्रेम जैसा कुछ नहीं है बस हमारी अच्छी पटती है आपस में।

“याद आया कुछ,” साकेत ने कहा, तो तंद्रा टूटी। “हाँ याद है पर आज इतने सालों बाद उसकी याद कैसे आई?”

“यूँ ही बस कल पुराने दस्तावेज़ों में रखा एक काग़ज़ मिला। यह कविता सालों पहले मैंने तृप्ति के लिए लिखी थी। मेरा लिखा कुछ छपता तो सबसे पहले वो उसे पढ़े इसकी उसे चेष्टा रहती थी। और इत्तिफ़ाक़ देखो आज जब सालों बाद ये काग़ज़ सामने आया तो आज भी 8 अप्रैल है।”

कई सवाल मन में उठने लगे जिनका जवाब साकेत से जानना था। 

“साकेत क्या तुम उससे प्यार करते थे?”

“नहीं भाई, वहाँ तक बात पहुँची ही नहीं। मैंने उससे कई बार जानने की कोशिश की पर उसने हर बार यही कहकर बात टाली कि हम अच्छे दोस्त हैं। ख़ैर मैंने भी कभी ज़्यादा कोशिश इसलिए नहीं कि क्योंकि मुझे पता था हमारी जातियाँ अलग-अलग हैं और मेरे लिए समाज के विरुद्ध जाना संभव नहीं होगा। फिर भी मैं हिम्मत जुटाने की कोशिश कर लेता मगर उसकी तरफ़ से कभी कोई स्पष्टता नहीं दिखाई गयी।

“बावजूद इसके हम अच्छे दोस्त थे। कॉलेज छूट जाने के बाद हमारी बातें कम ज़रूर होने लग गयीं थीं। मैंने कई बार जानने का प्रयास किया कि किस वज़ह से हमारे बीच दूरियाँ आईं हैं। आख़री बार जब हमारी बात हुई तो उसकी आवाज़ में वो उत्सुकता ही नहीं थी जो पहले हुआ करती थी। मुझे अहसास हो रहा था कि अब शायद यह दोस्ती उसके लिए बोझ से ज़्यादा कुछ भी नहीं है। उसी दिन मैंने उसका नंबर फोन से हटा दिया और उसी रात ये कविता लिखी थी। उस दिन तारीख़ थी 8 अप्रैल। उसके बाद न तो कभी उसका कोई संदेश मिला न कभी कॉल आया। वक़्त के साथ-साथ सारी यादें धुँधली हो गयीं पर इस काग़ज़ ने कल से मन को थोड़ा बेचैन सा कर दिया है।”

“तुम्हारे बच्चे हैं, सुषमा भाभी जैसी पत्नी है जो कितना ख़्याल रखती है। तुम्हारा, अच्छा ख़ासा सुखी परिवार है और तुम सालों पुरानी किसी याद को लेकर उदास हो; ये तो कोई सही बात नहीं है,” मैंने झुँझलाते हुए कहा।

“ऐसी बात नहीं है यार! मैं अपने जीवन में बहुत ख़ुश हूँ। बच्चों में तो मेरी जान बसती है और सुषमा से अज़ीज़ तो कोई हो ही नहीं सकता। उससे अच्छी जीवन संगनी कोई हो ही नहीं सकती थी। मेरे मन में कुलबुलाहट केवल इस बात की है कि मेरी और तृप्ति की दोस्ती किस कारण टूटी?... इस प्रश्न का उत्तर मुझे आज तक नहीं मिला। उस कारण को जानने की चेष्टा आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है।”

अपने मन का ग़ुबार निकालने से अब वो थोड़ा हल्का महसूस कर रहा था। 

“तुम्हारी कहानी सुन के मुझे फ़रहत एहसास की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं कहो तो अर्ज़ करूँ?” 

“तुम्हें कौन रोक सकता है जनाब?” मुस्कुराते हुए साकेत ने उत्तर दिया पर इस बार मुस्कान बनावटी नहीं थी। उसे सवाल का जवाब भले न मिला हो पर अब उदासी के बादल छँट चुके थे।

“तो सुनो फ़रहत एहसास लिखते हैं :

’एक रात वो गया था जहाँ बात रोक के
आज तक रुका हूँ वहीं रात रोक के’!”

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