प्राचीन भारत में खेल-कूद (स्वरूप एवं महत्व)

15-10-2020

प्राचीन भारत में खेल-कूद (स्वरूप एवं महत्व)

प्रवीण प्रणव  (अंक: 167, अक्टूबर द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

समीक्ष्य पुस्तक: प्राचीन भारत में खेल-कूद (स्वरूप एवं महत्व)
लेखक: अवधेश कुमार सिन्हा
प्रकाशक: मिलिन्द प्रकाशन, हैदराबाद
प्रथम संस्करण: अगस्त 2018
SBN: 978-81-908990-1-7
पृष्ठ संख्या: 158

अवधेश कुमार सिन्हा द्वारा लिखित और मिलिन्द प्रकाशन, हैदराबाद द्वारा प्रकाशित पुस्तक “प्राचीन भारत में खेल-कूद (स्वरूप एवं महत्व)” को पढ़ना सुखद और विस्मयकारी रहा। विस्मयकारी इसलिए कि खेल-कूद मानव जीवन का अभिन्न अंग रहा है। विभिन्न इतिहासकारों ने अपने शोध प्रबंधों में इसे समाहित किया है। सिंधु घाटी सभ्यता से ले कर आज तक के जिस किसी भी काल के इतिहास पर शोध किया गया, उनमें जीवन शैली, व्यापार, खान-पान के अलावा खेल-कूद का भी समावेश किया गया। लेकिन खेल-कूद को ही मूल विषय मान कर विभिन्न काल में इसके बदलते स्वरूप पर कोई प्रामाणिक शोध प्रबंध हो, ऐसा ध्यान में नहीं आता। पुस्तक की भूमिका में मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद के इतिहास विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. दानिश मोइन लिखते हैं: “मूल साहित्य के बहुतायत के बावजूद भारतीय खेल-कूद पर ऐतिहासिक दृष्टिकोण से लगभग नहीं के बराबर या बहुत कम कार्य प्रकाशित हुए हैं। आधुनिक इतिहासकारों ने भी इसे शोध का एक अछूता विषय रखा है।“ ऐसे अछूते विषय को अपने पुस्तक की विषय-वस्तु के लिए चुनने हेतु लेखक अवधेश कुमार सिन्हा बधाई के पात्र हैं। 

विषय के अनोखेपन से आगे बढ़ते हुए यह विस्मय तब और भी बढ़ जाता है जब लेखकीय परिचय में हम पाते हैं कि अवधेश कुमार सिन्हा भौतिक शास्त्र के छात्र रहे हैं और ऑनर्स की उपाधि प्राप्त की है। यदि उनके कार्य क्षेत्र की बात करें तो लेखक भारतीय लेखा-परीक्षा एवं लेखा विभाग के एक अधिकारी के पद से सेवा-निवृत हैं। ऐसे में इतिहास (जो न उनके अध्ययन काल से जुड़ा है न कार्य क्षेत्र से) के एक ऐसे विषय पर जिसमें शोध सामग्री बहुतायत में उपलब्ध नहीं है, पर इस पुस्तक को लिखना निश्चय ही आश्चर्यजनक है।

इस पुस्तक के लिए मैंने ‘विस्मयकारी’ के साथ ‘सुखद’ इसलिए कहा कि इतिहास की पृष्ठभूमि न रहते हुए भी लेखक ने जिस तरह इस पुस्तक को संवारा है, क़ाबिलेतारीफ़ है। इतिहास की पुस्तकों के लिए यह आवश्यक है कि पुस्तक में उद्धृत संदर्भों की प्रामाणिकता संदेह से परे हो। ऐसी पुस्तकों में कपोल-कल्पनाओं या अपनी इच्छा के अनुरूप निष्कर्ष निकालने की आज़ादी न के बराबर होती है। अवधेश कुमार सिन्हा की यह पुस्तक इतिहास की प्रामाणिक पुस्तक होने का दावा नहीं करती लेकिन उन सभी मूल्यों पर खरी उतरती है जो इतिहास की पुस्तकों के लिए मान्य हैं। इस पुस्तक के लिए आभार व्यक्त करते हुए लेखक ने लिखा है: “मूलतः इतिहास का विद्यार्थी नहीं होते हुए भी भारत के प्राचीन इतिहास को जानने की जिज्ञासा सदैव रही है। मेरे तत्कालीन सहकर्मी एवं मित्र अखौरी गोपालजी सहाय, जो पटना विश्वविद्यालय से इतिहास में पी.एच.डी. कर रहे थे, से प्रेरणा मिली कि अपने विस्तृत प्राचीन इतिहास के सामाजिक जीवन के कुछ ऐसे अनछुए पहलुओं को प्रकाश में लाया जाए जिसकी प्रासंगिकता आज भी हो। फलस्वरूप, इस शोध-प्रबंध की परिकल्पना की गई।“ लेखक ने बिहार राज्य केंद्रीय पुस्तकालय (सिन्हा लाइब्रेरी) पटना के तत्कालीन पुस्तकालयाध्यक्ष का भी आभार व्यक्त करते हुए कहा है कि उन्होंने संदर्भाधीन ग्रन्थों को शोध के लिए उपलब्ध करवाया। ये दोनों संदर्भ इस तरफ़ इशारा करते हैं कि यह पुस्तक विगत कुछ महीने या वर्षों के शोध का परिणाम नहीं बल्कि कई वर्षों तक इस विषय पर किए गए उनके शोध का निष्कर्ष है। पुस्तक के आरंभ में ही लेखक को शुभकामना देते हुए मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी के कुलपति डॉ. मोहम्मद असलम परवेज़ ने लिखा है: “यह जानना हर एक के लिए बहुत ही दिलचस्प होगा कि हमारी हज़ारों साल पुरानी संस्कृति के विभिन्न कालों में हमारे खेल-कूद क्या थे। यह एक बहुत रोचक विषय है लेकिन इस पर शायद ही कुछ लिखा गया हो। अवधेश कुमार सिन्हा ने न केवल एक अनूठा विषय चुना है बल्कि उस के साथ भरपूर न्याय भी किया है।“ 

विषय-वस्तु में सबसे पहले संकेताक्षरों की सूची है। तीस से ज़्यादा ग्रंथ जिनमें अथर्ववेद संहिता, अभिज्ञान शाकुंतलम, नारद स्मृति, ब्रह्म पुराण, मतस्य पुराण, विष्णु पुराण, यजुर्वेद संहिता, ऋग्वेद संहिता, वृहस्पति स्मृति आदि प्रमुख हैं, इस बात को रेखांकित करते हैं कि इस पुस्तक के शोध का दायरा विस्तृत है। यही नहीं पुस्तक के हर पृष्ठ के नीचे उस पृष्ठ में उद्धृत विवरण का संदर्भ पृष्ठ संख्या के साथ दिया गया है जो लेखक के निष्कर्षों को प्रामाणिकता प्रदान करता है। पुस्तक के अंत में ‘संदर्भिका’ शीर्षक के अंतर्गत 162 पुस्तकों, पत्रिकाएँ और इंटरनेट वेबसाइट का विवरण है जिसे मूल ग्रंथ (वैदिक संहिताएँ, ब्राह्मण ग्रंथ, पुराण, सूत्र ग्रंथ, स्मृति ग्रंथ, प्राचीन ऐतिहासिक ग्रंथ), प्राचीन साहित्य, आधुनिक ग्रंथ (विदेशी साहित्यकार/लेखक, भारतीय साहित्यकार/लेखक और पत्र-पत्रिकाएँ व इंटरनेट की श्रेणी में सजाया गया है। ‘अनुक्रमणिका’ विषय के अंतर्गत पुस्तक में प्रयुक्त खेलों के नाम और कई अन्य महत्वपूर्ण शब्दों की सूची है। इन सभी नाम के साथ पुस्तक में ऐसे शब्द जहाँ-जहाँ प्रयुक्त हुए हैं, उनका विवरण है। यद्यपि इस पुस्तक के शोध का काल प्राचीन भारत है लेकिन इस काल के बाद भी खेल-कूद के स्वरूप में क्रमिक बदलाव होता गया जिस पर लेखक ने परिशिष्ट में ‘भारत के परवर्ती काल में खेल-कूद का स्वरूप’ विषय के अंतर्गत प्रकाश डाला है। प्राचीन भारत की सभ्यता के समकालीन सभ्यताओं में भी खेल-कूद विकसित हो रहे थे। इनमें कई खेल आज भी हमारे बीच लोकप्रिय हैं। ऐसे खेलों को जो दूसरी सभ्यताओं से आए, लेखक ने परिशिष्ट में ‘समकालीन सभ्यताओं/देशों में खेल-कूद का स्वरूप’ विषय के अंतर्गत स्थान दिया है। परिशिष्ट के दोनों अध्याय इस पुस्तक की उपयोगिता और बढ़ाते हैं। अमूमन किसी ऐतिहासिक शोध-प्रबंध के माध्यम से जब हम प्राचीन काल-खंडों की यात्रा पर निकलते हैं तो हर काल-खंड में खेल-कूद पर एक संक्षिप्त जानकारी मिलती है। लेकिन खेल-कूद को ही मूल विषय बना कर विभिन्न काल-खंडों में इसके बदलते स्वरूप पर शोध करना निःसंदेह बहुत ही श्रमसाध्य काम है जिसे लेखक ने बख़ूबी निभाया है।   

पुस्तक के आरंभ में ‘प्रस्तावना’ विषय के अंतर्गत लेखक ने खेल-कूद के महत्व को रेखांकित करते हुए लिखा है कि अपने दिन-प्रतिदिन के संघर्ष भरे जीवन में जब व्यक्ति एकरसता और उसकी नीरसता से ऊब जाता है तो उसे कुछ क्षणों के लिए मनोविनोद कि आवश्यकता महसूस होती है जो उसके जीवन को पुनः एक नये स्फूरन से भर नैतिकता, साहस, शौर्य आदि मानवोचित गुणों का भी विकास करता है। और इस मनोविनोद के विभिन्न साधनों में सर्वाधिक लोकप्रिय और रुचिकर साधन है खेल-कूद। 

इस पुस्तक में प्रयुक्त काल-खंडों का निर्धारण करते हुए लेखक ने लिखा है कि पाषाण काल से लेकर धातुकाल तक मनुष्य निरंतर संघर्ष करते हुए आदमी की तरह जीने के लक्ष्य तक ही पहुँच पाया ऐसे में इस काल में विलासिता और मनोरंजन से संबन्धित कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। भारतीय मानव की सभ्यता का वास्तविक दौर 3250 और 2750 ई. पू. के बीच सिंधु नदी की घाटी में जन्मी सभ्यता के साथ शुरू होता है जो इस पुस्तक के शोध का आरंभिक काल है। लेखक के अनुसार गुप्त काल में सभ्यता अपनी परिपक्वता के उस शीर्ष पर पहुँच गई जहाँ से खेल-कूद के स्वरूप एवं महत्व में कोई महती बदलाव नहीं आया फलतः इस पुस्तक के आलोच्य अवधि की ऊपरी सीमा गुप्त काल (510 ई.) तक की है। इस अवधि में भी मौर्य युग के अन्त (185 ई.पू.) से ले कर गुप्त काल के आगमन के पूर्व का काल इस शोध में शामिल नहीं है। इसका कारण बताते हुए लेखक ने लिखा है कि इस दौर में कई विदेशी आक्रमण हुए जिसकी वज़ह से स्थिरता का अभाव रहा। शासन में कई परिवर्तन होते रहने से आमजन में प्रचलित खेल-कूद के स्वरूप में कोई महत्वपूर्ण बदलाव नहीं आया। इस पुस्तक के लिए निर्धारित काल-खंड को लेखक ने पाँच अध्यायों में वर्गीकृत किया है – सिंधु घाटी की सभ्यता का काल (3250 और 2750 ई.पू. के बीच), वैदिक काल (1600 ई.पू. से 600 ई.पू. तक), सूत्र काल से लेकर मौर्यों के उदय के पूर्व तक (ईसा से सातवीं शती पूर्व से छठी शती ई.पू. के प्रारम्भ तक), मौर्य युग (321 ई.पू. से 185 ई.पू.) एवं गुप्त युग (275 से 510 ई. तक)। 

सिन्धु घाटी की सभ्यता के बारे में इतिहासकारों ने बहुत कुछ लिखा है। अब तक मिले अवशेषों से यह ज्ञात है कि सिन्धु घाटी सभ्यता मुख्य रूप से दक्षिण एशिया के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में, जो आज के उत्तर पूर्व अफगानिस्तान, पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिम और उत्तर भारत में फैली थी। प्राचीन सभ्यता के तीन महत्वपूर्ण सभ्यताओं – प्राचीन मिस्र, मेसोपोटामिया और सिन्धु घाटी में सिन्धु घाटी सभ्यता सबसे व्यापक, विकसित और चर्चित रही। इस सभ्यता के लोगों की जीवन शैली, खान-पान, व्यापार, वर्ग भेद, शिकार आदि विषयों पर बहुत शोध ग्रंथ उपलब्ध हैं। अवधेश कुमार सिन्हा की यह पुस्तक इस मायने में महत्वपूर्ण है कि कई शोध ग्रन्थों से उन्होंने इस सभ्यता में खेल-कूद से जुड़े विषयों को खंगाला और एक जगह संकलित किया। पुस्तक के विषय वस्तु से पूर्णतः न्याय करते हुए खेल-कूद से इतर की जानकारी, जो बहुतायत से उपलब्ध है, को यहाँ उद्धृत नहीं किया गया है। विभिन्न स्थानों की खुदाइयों में बहुतायत में खिलौने और अन्य ऐसी वस्तुएँ मिली जिनका उपयोग खेलों में किया जाता होगा। पासे का खेल संभवतः सबसे ज़्यादा प्रचलित था। पासों के आकार-प्रकार पर लेखक ने विस्तृत जानकारी दी है। कुछ पासे मिट्टी के बने थे जिन्हें शायद किसी मुलायम सतह पर खेला जाता हो जबकि कुछ पासे पत्थर के बने थे लेकिन उनमें टूट-फूट के निशान मिले हैं जिससे ज्ञात होता है कि शायद इन पासों को किसी सख्त सतह पर खेला जाता रहा होगा। इन पासों की बनावट आज के लूडो के पासे की तरह ही थी लेकिन आज के लूडो के पासे में किसी भी विपरीत भाग के अंकों का जोड़ सात होता है जैसे छः के विपरीत भाग में एक होता है, पाँच के विपरीत दो जबकि सिन्धु घाटी सभ्यता के पासे कई प्रकार के पाए गए। कुछ पासों में एक के पीछे दो, तीन के पीछे चार तो कुछ पासों में एक के पीछे दो, तीन के पीछे पाँच और चार के पीछे छः पाए गए। कुछ पासों के हर भाग समान रूप से समतल नहीं पाए गए जिनसे लगता है कि खेलने वाले को अपने पासे लाने की आज़ादी रही होगी और पासे ऐसे बनाए गए होंगे कि अधिक अंकों वाले हिस्से ऊपर आएँ। लेखक ने पासे से मिलते और भी खेलों के बारे में विस्तार से लिखा है जो इस सभ्यता में प्रचलित थे। इस सभ्यता में जानवरों का शिकार भी खेल-कूद के तौर पर किया जाता रहा होगा। खुदाई में बहुतायत में तीर-धनुष और मिट्टी की गोलियाँ मिली हैं जो शायद गुलेल में प्रयोग की जाती होंगी। मुर्गे की लड़ाई और तीतरों के लड़ाई के चित्र भी मिले हैं जिनसे पता चलता है कि इन जानवरों का पालन और प्रशिक्षण इन लड़ाइयों के लिए किया जाता होगा। कुछ मुद्राओं पर बैल के आकृति के आस-पास मनुष्य भी अंकित हैं तो शायद मनुष्य-वृषभ द्वंद्व-युद्ध भी इस काल में प्रचलित रहा होगा।

वैदिक काल जिसे 1600 ई.पू. से ले कर 600 ई.पू. तक माना जाता है, में आर्यों का जीवन आमोद प्रिय था। रथदौड़ और घुड़दौड़ खेल-कूद के प्रमुख साधन थे। इस सभ्यता में खेल, दक्षता प्रदर्शित करने, विवाह के लिए, उपहार प्राप्त करने आदि के उद्देश्य से खेले जाते थे। रथदौड़ और घुड़दौड़ के नियम थे जिनका विस्तृत विवरण इस पुस्तक में है। इन खेलों के लिए ईश्वर से प्रार्थना का उल्लेख भी इस सभ्यता में मिलता है जिसे लेखक ने ऋगवेद के विभिन्न श्लोकों से सत्यापित किया है। द्यूतक्रीड़ा एवं अक्षक्रीड़ा सामान्य जन-जीवन में प्रचलित खेल थे। अक्षक्रीड़ा में प्रयुक्त पासों की संख्या ऋग्वेद में त्रि-पंचशः के रूप में उल्लिखित है। ‘त्रि-पंचशः’ के संख्यात्मक अर्थ पर विद्वानों में मतैक्य नहीं है। लेखक ने विभिन्न विद्वानों के विवेचन के आधार पर पासों की संख्या तिरपन माना है। वैदिक सभ्यता में इस खेल को खेलने का तरीक़ा और नियम सिन्धु घाटी सभ्यता काल से अलग थे। लेखक ने विस्तार से लिखा है कि इस खेल के नियम क्या थे, इन्हें कैसे खेला जाता था, खेल में प्रयुक्त शब्दों का भी विस्तृत उल्लेख है। वैदिक काल में पासे के खेल में आर्थिक पहलू के जुड़ जाने से आलसी और विलासी लोग इसकी तरफ़ आकृष्ट होते चले गए। ऋग्वेद के संदर्भ से ज्ञात होता है कि आर्थिक पहलू का आकर्षण इतना था कि ऋषि-मुनि भी इससे बच नहीं पाते थे। ऋग्वेद के ही एक श्लोक से ज्ञात होता है कि संभवतया कभी-कभी विधवाएँ भी धन के लालच में सभा-भवन में जुआ खेलने जाती थीं यद्यपि इस आचरण की सामाजिक तौर पर निंदा की जाती थी। जुए का खेल इस दौर तक आते-आते सिर्फ़ आमोद-प्रमोद का विषय न रह कर व्यसन भी बन गया। ऋग्वेद के कई प्रसंगों में इसके दुष्परिणाम की चर्चा करते हुए इसकी निंदा की गई है। इस काल में आर्य आखेट से परिचित थे। आखेट के लिए कभी-कभी बाणों का प्रयोग होता था लेकिन मुख्यतः जाल और गड्ढे उपयोग में लाए जाते थे। पक्षियों को जाल से तो हाथी और सिंह को गड्ढे में गिराकर पकड़ा जाता था। शूकरों को दौड़ा कर कुत्तों की सहायता से पकड़ा जाता था। इस काल में मछली पकड़ने के खेल का भी प्रचलन था जो मनोरंजन के साथ-साथ भोजन भी प्रदान करता था। सामूहिक आमोद-प्रमोद या उत्सव के दौरान मल्लयुद्ध का खेल भी हुआ करता था।

रामायण और महाभारत के संदर्भों को लेखक ने ‘सूत्र काल से लेकर मौर्यों के उदय के पूर्व तक’ अध्याय में लिया है। इस काल में खेल के लिए क्रीड़ा शब्द का प्रयोग होने लगा था। द्यूत खेलने के लिए सभागार बने हुए थे लेकिन वे राज्य द्वारा नियंत्रित नहीं होते थे। इन्हें निजी तौर पर संचालित किया जाता था। महाभारतकालीन इतिहास से पता चलता है कि पांडव बाल्यकाल में ‘वीटा’ खेलते थे जो आज के ‘गिल्ली-डंडे’ जैसा था। इस काल में बच्चों के प्रमुख खेल खुल्लय (कौड़ी), वट्टय (लाख की गोली), तिन्दूस (गेंद), पोत्तुल्ल (गुड़िया), शरपात (धनुष), गोरहग (बैल), घटिक (छोटा घड़ा) आदि थे। रामायण से पता चलता है कि शांतिकाल में मल्लयुद्ध और बाहुयुद्ध प्रशिक्षण और मनोरंजन के साधन थे। रथदौड़ और घुड़दौड़ इस काल में भी थे, इस काल में पुरुषों के बीच भी दौड़ की प्रतियोगिता होती थी। उद्यान क्रीड़ा, पुष्प क्रीड़ा भी मनोरंजन के साधन थे। आखेट राजाओं के लिए मनोरंजन का साधन था और जनमानस के लिए मनोविनोद का। मछ्ली पकड़ने का काम मनोरंजन और आजीविका के लिए होता था। जुए के खेल का महाभारत में जो महत्व है, हम सब को ज्ञात है। लेखक ने इस खेल, इसके नियम और खेलने की प्रक्रिया के बारे में विस्तार से लिखा है।

मौर्य काल में जन-जीवन आमोद-प्रमोदमय था। समाज में मनोरंजन का स्थान इतना बढ़ गया था कि अनेक व्यक्तियों ने मनोरंजन से संबन्धित व्यवसाय कर लिए थे। इस काल में मनोरंजन के लिए यात्राएँ भी होती थीं। अशोक ने इन यात्राओं के स्थान पर धर्म-यात्राओं की परंपरा का आरंभ किया। इस काल में राजतंत्र का विकास हो चुका था अतः प्रजा के मनोरंजन का दायित्व राज्य पर था। द्यूत क्रीड़ा इस काल में भी बहुत प्रसिद्ध थी लेकिन इसका नियंत्रण राज्य द्वारा होता था। राज्य द्वारा सार्वजनिक द्यूत गृह बनवाए गए थे जिनका संचालन राज्य द्वारा होता था। यहाँ द्यूत खेलने वालों से राज्य द्वारा कर लिया जाता था। लेखक ने इस प्रक्रिया का विस्तार से विवरण दिया है। इस काल में पासे के साथ अन्य फ़लक खेल भी खेले जाते थे जिनका उद्देश्य सूझ-बूझ को बढ़ावा देना था। इन खेलों के माध्यम से दो सेनाओं को लड़ाने, व्यूह रचना करने और अपनी चाल से सामने वाले की व्यूह रचना को नष्ट करना इन खेलों के उद्देश्य थे। यही खेल आगे चल कर शतरंज के नाम से विख्यात हुआ। मौर्य काल में यद्यपि अहिंसा का प्रचलन था लेकिन पशु-पक्षियों के द्वंद्व-युद्ध पर प्रतिबंध नहीं था। अशोक के शिलालेखों से ज्ञात होता है कि सामाजिक अवसरों पर मल्लयुद्ध का आयोजन होता था जिनमें भाग लेने दूर-दूर से पहलवान आते थे। इस काल में मुक्केबाज़ी और कुश्ती का खेल संभ्रांत लोगों के मनोरंजन का खेल नहीं हो कर निम्न श्रेणी के लोगों द्वारा दर्शनार्थियों के मनोविनोद के लिए खेला जाता था। धनुष-बाण का खेल भी प्रचलित था लेकिन यह मुख्यतः क्षत्रियों का खेल था। चन्द्रगुप्त मौर्य की राज्यसभा में खड्ग युद्ध का भी वर्णन मिलता है। इस काल में आखेट निम्न वर्ग के लिए आजीविका का साधन था लेकिन सम्पन्न लोगों के लिए यह एक मनोरंजक खेल था। राजाओं द्वारा शिकार पर जाने का विस्तृत विवरण इस काल के शोध प्रबंधों में मिलता है। 

यद्यपि पुराणों की रचना गुप्त काल से बहुत पहले, ईसा की प्रथम शताब्दी के कई सौ वर्ष पूर्व हुई थी लेकिन इनके स्वरूप में जो बदलाव आए और जिस स्वरूप में यह आज उपलब्ध हैं, वह गुप्त काल में हुआ। इसी तरह याज्ञव्ल्क्य, नारद, कात्यायन और वृहस्पति के स्मृति ग्रन्थों में चर्चित सामाजिक जीवन में प्रचलित रीति-रिवाज़ों और संस्कारों को भी गुप्तकालीन ही माना गया है। लेखक ने इन सभी से खेल-कूद से जुड़े संदर्भों को ले कर गुप्तकाल में खेल-कूद के स्वरूप पर प्रभावशाली अध्याय लिखा है। इस काल तक सामाजिक व्यवस्था पूर्णतः विकसित हो चुकी थी, खेल-कूद सामाजिक जीवन के अभिन्न अंग बन चुके थे। कई खेल पूर्व काल के खेल के संशोधित स्वरूप थे तो कुछ खेल नए थे जो इस काल में ही विकसित हुए। पासे का खेल इस काल में भी प्रचलित था हालाँकि इसे बड़ी संख्या में दर्शकों के सम्मुख खेला जाता था। नालंदा के बौद्ध भी पासे का खेल खेलते थे। इस काल में यह खेल सभी वर्गों के लोगों द्वारा खेला जाता था और दाव पर अधिक संख्या में मुद्राएँ जीती-हारी जाती थीं। द्यूत का खेल कुशलता के लिए भी जाना जाता था। मत्स्य पुराण में वर्णित है कि द्यूत में कुशलता दिखा कर राजा को प्रसन्न करना चाहिए लेकिन राजा के लिए निर्देश है कि उसे द्यूत से दूर रहना चाहिए क्योंकि यह राज-विनाश का कारण बनता है। इस काल में राजा लोग स्त्रियों के साथ भी द्यूत खेलते थे। यूँ तो द्यूत के खेल की निंदा की गई है लेकिन इसके फ़ायदे का भी उल्लेख मिलता है। उदारता की भावना, एकाग्रता, स्वावलंबन, क्षणिक ख़ुशी और उदासी से मुक्ति इत्यादि इसके लाभ बताए गए हैं। आखेट इस काल का प्रमुख खेल था लेकिन यह सिर्फ संभ्रांत और राजा लोगों के लिए था। इस काल में आखेट की विधि और हानि-लाभ के बारे में लेखक ने विस्तार से लिखा है। संभ्रांत लोगों में जलक्रीड़ा और झूला या दोला का खेल भी प्रचलित था। कालीदास की रचनाओं से ज्ञात होता है कि लड़के-लड़कियों में गेंद (कन्दुक) का खेल भी प्रचलित था। पहले के काल से चले आ रहे खेलों में मल्लयुद्ध, पशु-पक्षियों के युद्ध भी बहुत प्रसिद्ध थे। वात्स्यायन ने कामसूत्र में लिखा है कि एक नागरिक का दैनिक जीवन सुबह मनोविनोद में, दोपहर मित्रों के साथ, मुर्गे की लड़ाई या तोता पढ़ाने में और संध्या गायन में व्यतीत होना चाहिए।  

इस पुस्तक की आलोच्य अवधि के बाद भी खेलों के स्वरूप में परिवर्तन होता गया। ताश का खेल प्राचीन काल में मनोविनोद का खेल था जिसे पहले क्रीड़ापत्रम और बाद में गंजीफ़ा के नाम से जाना गया। वर्तमान स्वरूप में आने से पहले यह खेल कई बदलावों से गुज़रा। साँप-सीढ़ी के खेल का आरंभ 13वीं शताब्दी में हुआ। इस खेल में सीढ़ी गुणों को और साँप दुर्गुणों को दर्शाते थे। अंग्रेज़ इस खेल को 1892 में इंग्लैंड ले गए जहाँ से यह वर्तमान स्वरूप में विकसित हुआ। कलारिपयाट्टू जिसका आधुनिक स्वरूप कराटे और कुंग-फू से मिलता है, की शुरुआत चौथी शताब्दी में हुई और 16वीं शताब्दी तक ये अपने चरम पर पहुँचा। बौद्ध भिक्षुओं ने इसे सुदूर पूर्व के देशों में फैलाया। सिलाम्बम तमिलनाडू में बहुत लोकप्रिय हुआ। तमिलनाडू में ही जल्लीकट्टू खेल भी प्रसिद्ध हुआ जिसे आज भी खेला जाता है। मलखम्ब का आरंभ 12वी सदी में हुआ लेकिन 18वीं शताब्दी तक इसे उतनी लोकप्रियता नहीं मिली। पेशवा बाजीराव द्वितीय के शासन काल में इसे लोकप्रियता मिली। इन सभी खेलों के बारे में विस्तृत विवरण लेखक ने परिशिष्ट अध्याय में ‘भारत के परवर्ती काल में खेल-कूद का स्वरूप’ विषय के अंतर्गत दिया है। प्राचीन भारत के समकालीन सभ्यताओं में खेलों के स्वरूप और वर्तमान में यह खेल जिस रूप में मौजूद हैं उन पर लेखक ने परिशिष्ट में ‘समकालीन सभ्यताओं/देशों में खेल-कूद का स्वरूप’ विषय के अंतर्गत लिखा है। लेखक ने यूनान, चीन, रोम और मेसोपोटामिया में खेले जाने वाले खेलों को इस शोध का आधार बनाया है।

अमूमन इतिहास से जुड़ी पुस्तकें सामान्य पाठक वर्ग के लिए रुचिकर नहीं होती हैं। इस पुस्तक के लेखक अवधेश कुमार सिन्हा का इतिहास की पृष्ठभूमि से न आना इस मायने में बेहतर रहा है कि पुस्तक की भाषा सरल है, संदर्भों को जिस तरह सजाया-सँवारा गया है उससे पठनीयता बनी रहती है और किसी सामान्य पाठक को भी इन काल-खंडों और इस दौरान खेल-कूद के बदलते स्वरूप को समझने में मदद मिलती है। प्राचीन भारत का इतिहास सदैव इतिहासकारों और इससे जुड़े छात्रों के लिए शोध का विषय बना रहेगा। खेल-कूद इस सभ्यता के अभिन्न अंग रहे हैं ऐसे में बिना खेल-कूद के क्रमिक विकास और बदलाव को शोध का अंग बनाए बिना शोध-पत्र अधूरा ही रहेगा। इस पुस्तक को जितने शोध के बाद लिखा गया है और जितने संदर्भ इसमें लिए गए हैं उसके आधार पर यह निःसन्देह कहा जा सकता है कि सामान्य पाठक वर्ग के लिए तो यह पुस्तक रुचिकर है ही लेकिन ‘प्राचीन भारत में खेल-कूद (स्वरूप एवं महत्व)’ को सभी विश्वविद्यालयों के पुस्तकालय का अनिवार्य अंग होना चाहिए।  

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