पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 2

15-11-2019

पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 2

दिनेश कुमार माली

भुवनेश्वर से पुरी

नंदिता जी को उनके ऑफ़िस में छोड़कर हमारी कार दौड़ने लगती है पुरी की तरफ़ जाने वाली विस्तृत सड़क पर। पर्यटन की दृष्टि से बनाई हुई इस विस्तृत सड़क के दोनों ओर की प्राकृतिक सुषमा मन के अंदर असीम शांति पैदा कर रही थी। हो भी क्यों नहीं, शांति का दूत था यह प्रांत, कभी विश्व-इतिहास में। कभी अशोक जैसे निर्दयी सम्राट को शांतिपूर्ण जीवन जीने की सीख यहीं पर तो मिली थी। अचानक सामने दिखाई पड़ने लगी, दयानदी। उसे देखते ही उदयनाथ बेहेरा कहने लगे, “यही वह नदी है, जहाँ अशोक सम्राट (269-232) के मन में दया की भावना पैदा हुई थी। हज़ारों निर्दोष लोगों का वध हुआ, अशोक की कलिंग-विजय की अदम्य इच्छा की पूर्ति के लिए।" 

इतिहास विषय में विमला जी की विशेष रुचि होने के कारण उनका मन इतिहास के किन पृष्ठों को टटोल रहा होगा, यह तो मैं नहीं कह सकता, मगर इतना ज़रूर कहूँगा कि जगन्नाथ की इस पवित्र धरती के पौराणिक विषय-वस्तु, भौगोलिक, ऐतिहासिक एवं मिथकीय पात्रों को जानने की उनकी इच्छा अवश्य बलवती हुई होगी कि किस तरह दुष्ट यानी चंडाशोक धर्माशोक में बदल गया होगा? तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक परिस्थितियाँ कैसी रही होंगी? उत्तर में वैतरणी से गंगा नदी तक तथा दक्षिण में गोदावरी में फैले हुए इस भूखंड में कितनी धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक क्रांतियाँ हुई होंगी? 

रघुवंश में कालिदास ने इस प्रांत का नाम ‘उत्कल’ रखा, बाद शैवमत के आने से अर्थात् शिवलिंगों की पूजा होने से कलिंग और बाद में ‘ओड्र’ नामक बर्बर जातियों के प्रवेश से ओड़िशा। आज के पढ़े-लिखे ओड़िया लोग अपने प्रदेश का ‘उत्कल’ या ‘कलिंग’ प्रदेश कहना ज़्यादा क्यों पसंद करते हैं? मेरे मन में याद आ गया डॉ. काली चरण चैधरी का वह वक्तव्य, जिसमें उन्होंने ‘ओड़िशा’ के अनेक प्राचीन नामों जैसे ओड्र, कोशल, तोषालि, कलिंग, कंगोद, समाप, बोषली, मोषली आदि का उल्लेख किया था। ‘महाभारत’ के समापर्व के अनुसार सहदेव ने ‘ओड्र’ राज्य पर विजय प्राप्त की थी। पुराण के अनुसार सुद्युम्न के पुत्र ‘उत्कल’ ने इस राज्य की प्रतिष्ठा की थी, इसलिए इसका नाम ‘उत्कल’ पड़ा तो कई विद्वानों के अनुसार यह भूमि विविध कलाओं की उत्कर्षता को प्रतिपादित करती है, इसलिए यह प्रांत ‘उत्कल’ कहलाता है। जो भी हो, धार्मिक विप्लव की कहानी कुछ और ही है। पता नहीं, क्या-क्या बातें विमला जी के दिमाग़ में चल रही होंगी। दया नदी के पास उनका मन हुआ कि क्यों नहीं कार को एक पल रोककर ही सही, कभी रक्तरंजित रही इस दयानदी के किनारे बैठकर बौद्ध भिक्षु और अशोक के वार्तालाप के क्षणों और कंपनों अपनी स्मृति-वातायन से देखने और अनुभव करने का प्रयास करती।

अचानक यथार्थ स्थिति में आते हुए उन्होंने प्यार भरी दृष्टि मेरी ओर बेहेरा साहब की तरफ़ देखा, मानो उनकी तंद्रावस्था टूट रही हो। फिर अपनी चेतना को दूसरे धरातल पर लाते हुए डॉ. सरोजिनी से पूछने लगी, “आज भी आपकी कई कहानियाँ ‘रेप’, ‘प्रतिबिंब’, ‘बेड़ी’, ‘दुख अपरिमित’, ‘बलात्कृता’, मेरे मन-मस्तिष्क पर ज्यों की त्यों छाई हुई है। आपके उपन्यास ‘विषादेश्वरी‘ ‘बंद कमरा‘ और ‘पक्षीवास‘ ने तो बहुत प्रभावित किया है। ‘विषादेश्वरी‘ की नायिका तो पुरी की थी, जहाँ तक मुझे याद है? ‘पक्षीवास‘  का तो कहना ही क्या, पढ़ने मात्र से शरीर में सिहरन उठने लगती है और रोंगटे खड़े हो जाते है, इतना दर्द आपके कथानकों में कहाँ से आता है? ‘दुख अपरिमित‘ कहानी का अंत तो आपने अधर झूल में ही छोड़ दिया है, ऐसा क्यों? उस छोटी बच्ची का क्या हुआ होगा, जो दलदल में धँस रही थी, एक हाथ में अपना स्कूल बैग उठाए हुए थी, वह बची होगी भी या नहीं? आज भी पाठकों को आपके उत्तर का इंतज़ार होगा। यहीं नहीं, आपकी एक और कहानी ‘बलात्कृता’ में एक सामान्य-सी घटना को लेकर जिस तरह मार्मिक वर्णन किया है कि कहना ही क्या! सच पूछूँ तो, सरोजिनी जी आप इतना अच्छा लिखती कैसे हैं? मुझे वह टेबल और कुर्सी देखनी है, जहाँ पर बैठकर आप लिखती हैं।"

एक ही साँस में विमला जी ने उनकी लिखी हुई कहानियों और उपन्यासों पर अपनी पाठकीय प्रतिक्रिया व्यक्त कर दी।

सरोजिनी जी के चेहरे पर एक मृदु मुस्कान स्पष्ट दिखाई देने लगी। एक सच्चे पाठक की प्रतिक्रिया पाकर एक समर्पित लेखक अपने आपको इस क़दर भाग्यशाली समझता है मानों उसे कोई खोया हुआ ख़ज़ाना मिल गया हो। 

एक बार मेरी तरफ़ स्नेहभरी निगाहें डाली हुए मुस्कराते हुए वह कहने लगी, “मैं अपनी कहानियों और उपन्यासों के पात्र इर्द-गिर्द के परिवेश, समाज और यहाँ तक कि परिवार के सदस्यों में खोजती हूँ। मैं यथार्थ पर लिखना चाहती हूँ, न कि कल्पना के बल पर अर्थात् अनुभूतियाँ जो मैं अनुभव करती हूँ, वही लिखती हूँ।"

उनके कथन को काटते हुए मैं अपनी तरफ़ से उनके उत्तर को आगे बढ़ाता हूँ, “भाभीजी, अक्सर अपने परिवार और इर्द-गिर्द के जीवित पात्रों अथवा घटनाओं को अपनी कहानियों में समेटती हैं, जैसे ‘दुख अपरिमित’ कहानी उनकी बेटी मयूरी पर लिखी गई है, तो ‘बेड़ी’ अपनी पड़ोसी महिला पर। ‘बलात्कृता’ अपने घर में हुई चोरी की घटना पर टूटी अलमारी देखकर तो ‘प्रतिबिंब’ कोयलांचल के किसी श्रमिक नेता की ज़िंदगी को केन्द्रित कर। इसी तरह उपन्यासों में बहुत सारे पात्रों को वह अपने भीतर इस तरह समेट लेती हैं मानो वह ख़ुद ही उसकी भूमिका अदा कर रहीं हों मतलब लेखिका की आत्मा ही पात्र की आत्मा बन जाती है।"

यह कहकर मैं अपने भीतर समाए हुए आलोचक को चुप करने का संकेत करता हूँ। अभी भी विमला जी का आधा सवाल अनुत्तरित था, इनका सवाल का बचा हुआ हिस्सा था कि वह कब और किस जगह पर बैठकर लिखती है। 

विमला जी के आशंका भरे चेहरे की तरफ़ देखकर नीरवता को तोड़ते हुए सरोजिनी जी उत्तर देती हैं, “मेरे लिखने का समय या स्थान निर्धारित नहीं है। पारिवारिक महिला होने के कारण यह संभव भी नहीं हैं टेबल और कुर्सी पर बैठकर लिखना मेरे बस की बात नहीं है। मैं एक डायरी में लिखती हूँ बिस्तर पर बैठकर, तकिए को गोदी में रखकर। समय के बारे में क्या कहूँ, जब मुझे लगता है कि मेरे भीतर से कोई लिखने के लिए फ़ोर्स करता है तो मैं लिखना शुरू कर देती हूँ, अन्यथा कुछ समय बाद वह भाषा, वह बिंब, वह दृश्य सब कुछ या तो धूमिल पड़ जाएगा या फिर ग़ायब हो जाएगा। कभी-कभी तो केवल एक ही सीटिंग में पूरी कहानी लिख डालती हूँ ताकि कहानी की अंतर्वस्तु, उद्देश्य भंग न हो जाए। यह मेरी ड्राफ़्ट कहानी होती है, उसे बाद में किसी ‘पत्रिका’ में भेजने के लिए फिर से ‘रिराइट’ करती हूँ आवश्यक संशोधनों के बाद। इस प्रक्रिया में कुछ छूट जाता है तो कुछ जुड़ जाता है। ऐसी ही प्रक्रिया उपन्यासों के साथ होती है। ‘बंद कमरा’  जैसा उपन्यास तो मैंने सात-आठ दिन में ही लिख डाला था, बिस्तर पर पेट के बल सोकर लिखते हुए। दोनों हाथों की कोहनियों में घाव तक पड़ गए थे। खाना बनाना तक भूल गई थी। मैं जगदीश (उनके पति का नाम) की सदैव आभारी रहूँगी कि उन्होंने मुझे पूरा सहयोग दिया और खाना ख़ुद जाकर बाज़ार से लेकर आने लगे। वे मेरी कृतियों के पहले पाठक बनते थे। मेरा मानना है कि जब आपके भीतर अभिव्यक्ति की तीव्रता जन्म लेती है, तभी लिखना चाहिए, अन्यथा नहीं। मैं तो इसी किसी दैविक-सत्ता का वरदान ही मानती हूँ, जो मन को शब्द, रंग, गंध, स्पर्श आदि के बिम्ब-प्रतिबिंब, अनुभूतियों और स्मृतियों से ऐसे अप्लावित कर देता है कि आप लिखे बिना रह नहीं सकते।"

पहले ही कह चुका हूँ कि मैं सरोजिनी जी का पड़ोसी रहा था, लगभग एक दशक तक और उनकी कृतियों के अनुवाद के दौरान रचना-प्रक्रिया से परिचित था। जगदीश मोहंती और सरोजिनी साहू का नाम ओड़िया साहित्य में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। सरोजिनी साहू के कहानियों और उपन्यासों का देश-विदेश की कई भाषाओं में अनुवाद होने के कारण, उन्होंने समकालीन भारतीय साहित्य में न केवल ओड़िशा की उपस्थिति दर्ज कराई, वरन श्रीलंका इंग्लैंड, अमेरिका, फ्रांस, चीन आदि विदेशों में भी भारतीय साहित्य की गरिमा को आगे बढ़ाया है। ‘रेप’ कहानी के अनेक विदेशी अनुवादों ने उन्हें विश्व परिदृश्य पर न केवल अज्ञेय की तरह मनोवैज्ञानिक मौलिक साहित्यकार के रूप में स्थापित किया है, वहीं ओड़िशा की मिट्टी की महक और संस्कृति को विश्व दरबार से परिचित करवाया है।

इधर-उधर की साहित्यिक चर्चा, ओड़िशा की लोक-कथाएँ और संस्कृति पर आपस में चर्चा करते हुए हमारी कार पता नहीं, कब पुरी के प्रवेश द्वार पर पहुँच गई। जगन्नाथ धाम पुरी में प्रवेश करते ही एक प्रकार की सकारात्मक ऊर्जा, आध्यात्मिक शक्ति अनुभव होने लगती है और प्राकृतिक सुषमा आपके मन के द्वार खोलने लगती है।

राजस्थान के विभिन्न मंदिरों पर शोध करने वाली तथा भारतीय इतिहास में अत्यधिक रुचि रखने वाली विमला जी के मन-मंदिर में अवश्य राजा ययाति केशरी, चोडंगदेव और अनंगभीम के नाम प्रवेश कर रहे होंगे- ऐसा मैं सोच रहा था। सरोजिनी जी उन्हें ‘रथ यात्रा’ के बारे में बता रहीं थीं।

“आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया यानी जून महीने में रथ-यात्रा होती है। बलभद्र, जगन्नाथ जी और सुभद्रा दारू ब्रहा के रूप में अपने-अपने रथों में यानी तालध्वज (चौदह पहियों वाला, 13.2 मीटर ऊँचा), नंदिघोष (सोलह पहियों वाला, 13.5 मीटर ऊँचा) और देवदलन (बारह पहियों वाल, 12.9 मीटर ऊँचा) जगत-जन दर्शन देने की इच्छा से मंदिर से बाहर निकलते हैं, अपने-अपने सारथियों मातलि, सात्यकि और अर्जुन के साथ। लाखों श्रद्धालु रथ खींचते हैं और अपने को भाग्यशाली मानते हैं। ये रथ पहुँचते हैं- गुडिचा मंदिर, अपने मौसी के घर। वहाँ नौ दिन रुकने के बाद फिर अपने मंदिर में लौट आते हैं। इस वापसी यात्रा को ‘बाहुड़ा यात्रा’ कहते हैं।"

यह बताते हुए वह चुप हो गईं और मंदिर के सामने पानी के नलों के नीचे अपने पाँव धोने लगीं। यह देखकर हम सभी भी अपने पाँव प्रक्षालित करने लगे। पाँव प्रक्षालन शायद मंदिर की स्वच्छता के लिए अभिन्न अंग माना गया होगा, ताकि मंदिर में किसी भी प्रकार की गंदगी न फैले, आख़िर हज़ारों लोगों का मंदिर में तांता बना रहता है।

मेरे मन में एक ख़्याल अवश्य आया कि नारीवादी लेखिका होने के कारण सदैव से ही सरोजिनी जी का ध्यान नारी शक्ति और नारी अधिकारों के प्रति अवश्य जाता है, कभी उन्होंने सोचा क्या रथ के बारे में सुभद्रा देवी के साथ पक्षपात नहीं किया हमारे पूर्वजों ने? इस देश में नारी को जगत जननी का दर्जा दिया जाता है, नारी की पूजा की जाती है। उस देश में महापुरुषों ने सुभद्रा जी की श्रेणी दूसरे समतुल्य देवताओं की तुलना में नीचे क्यों की? यह तो झंझावात मेरे अंदर में चल रहा था, मगर बाहर निकलकर मूर्त रूप नहीं ले पा रहा था, शायद साहस नहीं जुटा पा रहा था। आख़िर देवी-देवताओं का मामला जो ठहरा और वह भी ब्रह्मांड के पति के परिवार पर अंगुलि उठाना था। जिस परिवार का हर कार्य के आगे या तो ‘महा’ जुड़ता है या फिर ‘बड़’ यानी बड़ा, उदाहरण के तौर पर- छप्पन भोग का प्रसाद महाप्रसाद, उनकी बाहों को महाबाहु, उनकी आँखों को बड़ आँखि, मंदिर की ध्वजा को महाबाना, मंदिर को बड़ मंदिर, सामने के रास्ते को बड़ दांड, मंदिर के आंगन के वटवृक्ष को ‘महाद्रुम’, प्रभु की देवदासी को ‘माहारी’ और उनकी प्राचीर को ‘मेघनाद पाचेरी’ कहा जाता है। 

कहते है, जगन्नाथ नारी सशक्तिकरण के हिमायती हैं तभी तो उनका प्रसाद पहले मंदिर के प्रांगण में विमला देवी को चढ़ाया जाता है, तब जाकर वह ‘महाप्रसाद’ बनता है। फिर अपनी बहिन सुभद्रा के लिए छोटा रथ, कम पहियों वाला, ऐसा क्यों?

मन में उठ रहे अनेक प्रश्नों के झंझावत को विराम करते हुए चुपचाप एक स्थित-प्रज्ञ की भाँति मैं अपने दल के पीछे-पीछे जाने लगा, जिसका नेतृत्व कर रही थीं सरोजिनी साहू, उनके पीछे पंक्तिबद्ध चल रहे थे उदयनाथ बेहेरा, जगदीश भंडारी और विमला भंडारी और मैं। मंदिर के भीतर की मोटी दीवार को देखकर जहाँ मन के कौतूहल पैदा होता है, वहाँ बाईस सीढ़ियों को पारकर श्रद्धालुओं की लम्बी लाइन में लगना सभी के भीतर आध्यात्मिकता के स्फुरण पैदा कर रही थी। बीच-बीच में कुछ पंडे सिर के ऊपर लकड़ी के चिमटे से हल्का-सा वार कर रहे थे तो बाईस सीढ़ियों पर यत्र-तत्र आदमी और औरतें पंडों के पास बैठकर दुख-क्लेश को मिटाने के लिए नन्हें-नन्हें हवनों का कर्म-कांड कर रहे थे। यह कहना असंगत होगा या सुसंगत, पता नहीं, क्या वास्तव में कर्मकांड से उनके दुख दूर हो रहे थे? क्या यह तो नहीं परंपरा के नाम पर, केवल मनोवैज्ञानिक ढंग से उनके ऊपर अदृश्य आवरण बिछाया जा रहा था, सदियों से चली आ रही मानसिक गुलामी को बरकरार रखने के लिए? 

भीड़ की एक हिलोर से हम गर्भ-गृह में पहुँच गए और सामने थी काष्ठ से बनी तीन मूर्तियाँ- अपाद और अहस्त-जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की। विमला जी और सरोजिनी जी ने साड़ी के पल्लू से अपना सिर ढककर दोनों हाथ ऊपर उठाते हुए ज़ोर से उच्चारण किया- ‘जय जगन्नाथ’ और हम लोगों ने भी उनका अंधा-अनुकरण। देव-दर्शन के दौरान महिलाओं द्वारा पल्लू से सिर ढकना अगर हमारी सांस्कृतिक पहचान है तो पुरुष रुमाल से सिर क्यों नहीं ढकते, जैसे मुसलमान मस्जिदों में या नमाज़ पढ़ते समय करते हैं- ‘या अल्लाह इल्लाह’? ख़ैर जो भी हो, आरती पर हाथ घुमाकर आँखों और चेहरे पर स्पर्श करते हुए हमने मंदिर के दूसरे दरवाज़े से बाहर गलियारे में प्रवेश किया- सामने थी शंकराचार्य गादी यानी चबूतरा, जिसके ऊपर जनेऊ धारी पोपले मुँह वाले शरीर के ऊपरी हिस्से पर कोई वस्त्र नहीं, सिवाय धोती पहने हुए कुछ पंडों की जमात मंत्रोच्चारण कर रही थी। इस चबूतरे के नीचे ज़मीन पर हम लोग कुछ समय तक बैठे, मेरे शरीर का कुछ हिस्सा इस वेदी को स्पर्श किया तो ऊपर बैठे पंडे ने तुरंत टोक दिया और दूर बैठने का निर्देश दिया, शायद उसे लगा हो कि मैं चबूतरे में संचित वर्षों पुरानी आध्यात्मिक ऊर्जा को कहीं सोख तो नहीं लूँगा या कहीं मेरे शरीर के स्पर्श से चबूतरे की आध्यात्मिक ऊर्जा प्रदूषित तो नहीं हो जाएगी?

चबूतरे के नीचे बैठते समय मेरे मन में कई विचार आने लगे, शायद यह वही चबूतरा होगा, जहाँ आदि शंकराचार्य ने मंडन मिश्र को शास्त्रार्थ में हराकर बौद्ध धर्म से आक्रांत इस मंदिर को मुक्त कराकर सनातन हिन्दू धर्म में लाने का सफल प्रयास किया। आदि शंकराचार्य हिन्दू-धर्म में आई कई अनैतिक कुरीतियों जैसे मद्य, मांस, मैथुन, मत्स्य और मुद्रा (पंच मकार) से दुखी थे, जोकि बौद्ध धर्म की जाति विहीनता और भिक्षु-भिक्षुणियों के पारस्परिक अश्लील संबंधों से समाज में प्रचलित हो रही थी तंत्र-साधना के नाम पर। वाम-मार्गी, चोल-मार्गी संप्रदाय, भैरवी-चक्र सभी तो धार्मिक-शास्त्रों में प्रवेश पाते जा रहे थे।

लेकिन अभी भी मेरे लिए जिज्ञासा का विषय है कि अचानक बौद्ध मंदिर जगन्नाथ मंदिर में कैसे बदल गया? अचानक बुद्ध कृष्ण कैसे बन गये? और बुद्ध हिंदूओं के अवतार? फिर हिंदुओं के ख़िलाफ़ इतना बड़ा धार्मिक विप्लव, वह भी बिना किसी ख़ून-ख़राबे के? क्या यह संभव है? ये सारी विचार-तरंगें चबूतरे की नींव की ईंट और प्रस्तर पर हज़ार साल पुराने धार्मिक बदलाव को मेरी आँखों के सामने एक-एक कर पेश कर रहीं थीं, मगर मैं अपने दल के किसी भी सदस्य के सम्मुख आस्था-विहीन तर्क प्रस्तुत कर अपने नास्तिक होने का सबूत नहीं देना चाहता था। किसी भी आस्थावान आदमी के मन में अनास्था के बीज बोना अपराध है। बहुत बड़ा अपराध है, किसी भी विचारशील प्राणी के मन में नई विचारधारा पैदा करना, बिना उसकी सहमति और तर्क-सम्मत अनुभवों के। और ऐसे भी अध्यात्म में तर्कहीनता ही पहली सीढ़ी होती है, समर्पण की, जैसे जगन्नाथ जी के प्रवेश द्वार पर बाईस सीढ़ियाँ है आपको समर्पण के बाईस अवसर प्रदान करती है। 

उसके बाद हम सभी मंदिर की परिक्रमा करने लगे, इसकी दीवारों पर विभिन्न देवी-देवताओं के चित्र और सूक्ष्म नक्काशी के कार्य देखकर विश्व के लोग दंग रह जाते है। 

परिक्रमा के दौरान उदयनाथ बेहेरा जगन्नाथ मंदिर की स्थापना के बारे में लोक कथाएँ सुनाने लगे- "सारला दास की ओड़िया महाभारत के अनुसार भगवान कृष्ण की मृत्यु जारा शबर नामक एक शिकारी के तीर से होती है, जब वह उनके दो जामुनी पाँवों को ग़लती से हिरण के कान समझ बैठता है। जब उनके शरीर को जलाया जाता है तो उनका हृदय आग से नहीं जल पाता है, अतः उनके अर्ध-दग्ध शरीर को समुद्र में विसर्जित कर दिया जाता है। जो द्वारिका से अरब सागर से बहते-बहते बंगाल की खाड़ी यानी ओड़िशा के पूर्व तट तक पहुँच जाता है। चमत्कार से उनका दिव्य हृदय एक नीले पत्थर में बदल जाता है, जिसकी जारा और उसकी पीढ़ियाँ पूजा करती हैं। समय गुज़रता चला जाता है। मालवा नरेश सम्पूर्ण भारत में विष्णु पूजा को फिर से चालू करवाना चाहते थे, मगर उसके लिए कोई उपयुक्त मूर्ति नहीं मिल पा रही थी। राजा ने चारों दिशाओं में अपने दूत भेजे। उनमें एक विद्यापति विश्ववसु ब्राह्मण पूर्व दिशा में खोजने गया और बहुत खोजबीन के बाद उसे जारा शबर का गाँव मिला। विश्ववसु बहुत सुंदर था, शादी-शुदा होने के बाद भी गाँव के मुखिया ने अपनी बेटी की उसके साथ शादी कर दी। जिसके माध्यम से उसको पता चला कि उस गाँव के पास घने जंगलों में नीले पत्थर की बनी मूर्ति को शबर जाति वाले लोग गुप्त रूप से पूजा करते हैं। इस आश्चर्यजनक खोज के बाद विश्ववसु मालवा नरेश इन्द्रद्युम्न के पास गया और अपनी विशाल सेना को लेकर ओड़िशा लौटा, मगर शबर आदिवासियों ने अपने भगवान को बाहरी लोगों को देने से इंकार कर दिया। यह सुनकर राजा ने गाँव वालों को बंदी बना दिया। उसके बाद विश्ववसु के कथनानुसार उस घने जंगल में नीले पत्थर के भगवान को खोजने लगा, मगर सब व्यर्थ। रात को राजा को स्वप्नादेश हुआ कि तुमने गाँव वालों के साथ निर्दयतापूर्वक व्यवहार किया है, अतः मैंने यह स्थान छोड़ दिया है। मगर तुम्हारे कठिन परिश्रम को देखकर मैं ख़ुश हूँ। अतः अगली सुबह मैं प्रस्तर प्रतिमा के रूप में प्रकट होऊँगा, जिसे तुम अपने मंदिर में लगा सकते हो। अगली सुबह वह प्रतिमा जलाशय में मिली, मगर न तो वह ख़ुद और न ही उसकी संपूर्ण सेना मिलकर उठा सकी। रात को फिर राजा को स्वप्नादेश हुआ कि अगर इस प्रतिमा को शबर मुखिया और विश्ववसु स्पर्श करेंगे तो वह उठेगी। ऐसा ही किया गया। यह प्रस्तर प्रतिमा ही जगन्नाथ का प्रारंभिक स्वरूप है।" 

बेहेरा साहब की यह लोककथा मुझे किसी फ़ैंटेसी से कम नहीं लग रही थी, मगर साहित्यिक दृष्टिकोण से बहुत सारे ऐसे मसले आ रहे थे, जो तत्कालीन समाज में हो रहे परिवर्तनों की साक्षी बन रहे थे। उदाहरण के तौर पर, कृष्ण तो आर्यों के देवता थे और शबर अनार्य, तब क्या इस लोक-कथा के माध्यम से आर्यों और अनार्यों को जोड़ने का प्रयास चल रहा था? विश्ववसु की शबर लड़की से शादी भी इस बात का प्रमाण है। स्वप्न के आधार पर कहानी कर आगे बढ़ना किसी चमत्कारिक फैंटेसी से कम प्रतीत नहीं हो रही है और सबसे प्रमुख सवाल जो मेरे मन में उठ रहा था, क्या मालवा देश के लोगों की भाषा जंगली लोगों की भाषा से मेल खाती थी? अपने आपको सुपीरियर मानने वाले ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ग के लोग जंगली आदिवासी लोगों के देवता को अपना देवता क्यों बनाएँगे? जब कृष्ण की मृत्यु द्वारिका के जंगल में जारा शबर के तीर से होती है तो वह कैसे पहुँच जाता है द्वारिका से पुरी, हज़ारों किलोमीटर की दूरी तय करते-करते, कृष्ण के अर्धदग्ध हृदय की तलाश में? पैदल चलकर या किसी विमान में बैठकर? जबकि उस ज़माने में यानी हज़ार साल पहले खूंखार जानवरों की भरमार रही होगी। ख़ैर, लोक-कथा है, आस्था है, मानना है, आख़िरकर जगन्नाथ जी की उत्पत्ति का सवाल है!

जगन्नाथ की लोक-कहानियों में कई बदलाव देखने को मिलते हैं। जब मैंने सर हेन्स सिंगर की पुस्तक   ‘द हिस्ट्री ऑफ जगन्नाथ टेंपल’ पढ़ी तो कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। ऐसे तो यह पुस्तक इतिहास है, इसमें कोई मिथकीय पात्र नहीं हैं। विश्वस्त सूत्रों जैसे पुरी के तत्कालीन ज़िलाधीशों, सेक्रेटरी और लॉर्ड आदि की टिप्पणियों पर आधारित आधिकारिक फ़ुटनोटों के माध्यम से देश,काल और पात्र की सही-सही जानकारी का वर्णन किया गया है। कभी-कभी तो ऐसा भी लगने लगता है कि अंग्रेज़ों ने भारतीय समाज की धार्मिक कुरीतियों को मिटाने में सशक्त भूमिका निभाई है। जब भारत में सती-प्रथा का प्रचलन था, सतीत्व की रक्षा के लिए उन्हें मृतक पति की लाश के साथ ज़िंदा जला दिया जाता था और उनके घर वाले इस पर गर्व की अनुभूति करते थे। क्या अग्नि-दाह अमानवीय आत्म-हत्या नहीं है? राजा राम मोहन राय ने अंग्रेज़ों से मिलकर जब ‘सती उन्मूलन अधिनियम’ पारित करवाया तब जाकर सदैव के लिए यह कुरीति भारत के नक्शे से मिट गई, ठीक ऐसे ही जैसे मोदी सरकार में ट्रिपल तलाक़ से मुस्लिम औरतों को राहत मिली। फिर भी इस देश में अभी भी ऐसी छुट-पुट घटनाएँ घटती रहती है। कभी नर्मदा नदी के तट पर बने काल-भैरव मंदिर में अपने जीवन से दुखी लोग नर्मदा नदी के पुल से पथरीले चट्टानों पर कूदकर अपना जीवन त्याग देते थे। नारियल के फूटने की तरह नरमुंड फूटकर खून के फव्वारे निकलते थे तो काल-भैरव प्रसन्न होकर उस दुखी प्राणी को मोक्ष प्रदान कर देते थे। पता नहीं, भारतीय धर्मों में या विश्व के धर्मों में मोक्ष का कांसेप्ट कहाँ से आ गया? एक ऐसा काल्पनिक शब्द – जिसे पाने के लिए अनगिनत लोगों ने अपनी जानें दे दी। ठीक ऐसी ही परंपरा का जगन्नाथ मंदिर में भी प्रचलन था, जब पुरी के बड़-डाँड पर जगन्नाथ जी रथ-यात्रा चलती थी तो आर्तप्राणी रथों के भारी भरकम पहियों के नीचे आकर अपनी मृत्यु का वरण करते थे- यह सोचकर कि जगन्नाथ भगवान उन्हें अपने लोक में ले जाकर जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति प्रदान करेंगे। आधुनिक युग में कितना हास्यास्पद लगता है यह सब! पंडों और पाखंडियों ने धर्मभीरु साधारण जनता को अपनी आस्था के केंद्र में लाकर उनमें ऐसा सम्मोहन पैदा कर देते थे कि दुख सहने में अक्षम निस्सहाय प्राणी मोक्ष के लालच में रथों के पहियों के नीचे घुसकर मरना पसंद करते थे।

सर हेन्स सिंगर की पुस्तक ‘द हिस्ट्री ऑफ जगन्नाथ टेंपल’ में 18 वीं शताब्दी की अनेक ऐसी मर्मांतक घटनाओं का आँखों-देखा वर्णन मिलता है, जिसे यहाँ प्रस्तुत करना इस आलेख के कलेवर को दीर्घ करने का दुष्कर प्रयास है। अंग्रेज़ों ने तो तत्कालीन मृत्युदर्शी रथ यात्राओं को ‘सैटेनिक कार फ़ेस्टिवल’ कहा, जो तत्कालीन भारतीय समाज में व्यापत घोर अंध-विश्वास,निम्न धार्मिक चेतना और प्रचंड धर्मभीरुता को दर्शाता है। जब सलमान रश्दी ने ‘सैटेनिक वर्सेज़’ पुस्तक लिखी तो पूरे विश्व के मुस्लिम समुदायों में हलचल मच गई और लेखक का मारने के लिए फ़तवे भी जारी कर दिए गए। अंग्रेज़ों ने अगर उस ज़माने की रथ-यात्रा को ‘सैटेनिक कार फ़ेस्टिवल’ कहा तो क्या बुरा किया? आप ही ज़रा सोचिए, आपकी आँखों के सामने कोई रथ जीवित लोगों के शरीर पर से होते हुए गुज़र जाएगा तो क्या किसी सभ्य समाज को उसे स्वीकार करना चाहिए? वह भी धार्मिक आस्था के नाम पर? आज भी अंग्रेज़ जगन्नाथ को ‘क्रूएल डेटी’ (क्रूर भगवान) कहते हैं और अँग्रेज़ी में जगन्नाथ न लिखकर ‘जगएरनौट’ या ‘जगरनॉट’ लिखते हैं। यह उनके उच्चारण की भूल नहीं हो सकती है, बल्कि जगन्नाथ को ‘लॉर्ड ऑफ यूनिवर्स’ नहीं मानकर उनका मज़ाक उड़ाना होगा। अँग्रेज़ी मिशनरियों की चाल-बाज़ी भी हो सकती है। जगन्नाथ के लाल होंठ देखकर उन्हें वे रक्त-पिपासु तक कह देते है। केवल अंग्रेज़ लोग मूर्तिपूजा के ख़िलाफ़ थे, ऐसा नहीं है। 

जगन्नाथ मंदिर की पत्रिका मादलापाँजी में आता है कि एक अफ़गानी पठान काला पहाड़ ने पुरी पर आक्रमण किया तो दिव्यसिंह नामक किसी भक्त ने भगवान को चिलिका की किसी गुफा में छुपा दिया, मगर धनपत सिंह जैसे गद्दार ने काला पहाड़ को उस जगह का पता बता दिया। काला पहाड़ जगन्नाथ जी को हाथी की पीठ पर बाँधकर गंगा नदी के तट पर लेकर गया और उन्हें आधा जलाकर गंगानदी में फेंक दिया। बेसुरा मोहंती नामक वैष्णव संन्यासी ने अर्ध-दग्ध जगन्नाथ जी को वहाँ से लाकर कुजांग के किनारे पर रख दिया। उस अफ़गान ने मंदिर के ‘कल्पवृक्ष’ को भी उखाड़कर फेंक दिया था और फिर उसे जला दिया। उसके बाद मंदिर का सारा ख़ज़ाना लूटकर अपने देश लौट गया।  

कहानी कितनी सही है या कितनी ग़लत- यह तो नहीं कहा जा सकता है। मगर अबुल फजल ने ‘तबाकत-ए-अकबरी’ में इस घटना का ज़िक्र किया है। अब आप ही सोचिए, जगन्नाथ की जो मूर्ति अफ़गानों से अपनी रक्षा नहीं कर पाई, वह जगत की रक्षा कर पाएगी? जिस जगन्नाथ (विश्व-स्रष्टा) ने अफ़गान को जन्म दिया, उसी अफ़गानी ने उन्हें चुराकर जलाने की हिम्मत कैसे कर दी? इसका अर्थ यह हुआ- ‘न काष्ठे न मृण्मये विद्यते देवो’ 

केवल मुस्लिम धर्म की ही बात क्यों करें? ओड़िशा का अपना महिमा अलेख क्या कम है? सन् 1881 में महिमा संप्रदाय का वल्कल कोपीनधारी साधु दासाराम ने अपने कुछ अनुयायियों और कुछ महिलाओं के साथ जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश किया- उद्देश्य था जगन्नाथ की मूर्ति का आहरण कर पुरी के तट पर जलाने का। मंदिर की भीड़ ने ‘मॉब लिंचिंग’ कहिए, दासराम को लात-मुक्कों की बरसात से सिंहद्वार पर ही मृत्यु के घाट पर पहुँचा दिया, बाक़ी बचे उसके अनुयायियों पर कचहरी में मुकदमा दर्ज हुआ। उन्हें कुछ महीने की जेल हुई और फिर छोड़ दिया गया। 

मुसलमानों के बाद जगन्नाथ मंदिर पर मराठाओं ने अपनी रोटी सेंकी और अंग्रेज़ों ने तो इस मंदिर को दुधारू गाय मानकर दर्शनार्थियों पर मराठाओं की तरह ‘यात्रीकर’ (पिलग्रिम टैक्स) लगा दिया, जो सन् 1803 से 1863 तक चला, पूरे साठ साल और अंग्रेज़ों के राजस्व का साधन बना। अंग्रेज़ों ने मंदिर के संचालन हेतु नियम-विनियम-अधिनियम भी बनाए, जिसमें मुख्य है – रेग्युलेशन IV ऑफ़ 1806 , जिसके अनुसार पुजारियों और सेवकों की तंख्वाह बाँध दी गई थी। 

कहते हैं, जगन्नाथ मंदिर कैथोलिक है यानी जाँत-पांत का कोई लेना-देना नहीं है। हक़ीक़त में मगर ऐसा कुछ भी नहीं था, कई निम्न जातियों जैसे हाड़ी, पाण, मछुया, घुसकी, कुस्बी, चमार, धोबी, जोगी, अघोरी साधू आदि का प्रवेश निषेध था। 

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’ में जगन्नाथ मंदिर को बुद्ध मंदिर मानते है, जगन्नाथ जी की प्रतिमा में बुद्ध का दांत रखने का उल्लेख करते है। शंकराचार्य की वेदी भी इस बात की प्रतीक है कि शैव मत के प्रचारक को वैष्णव संप्रदाय के क्या लेना-देना? यह बुद्ध मंदिर था, तभी तो वे मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ करने यहाँ आए थे अपने शैव मत की स्थापना के लिए। शास्त्रार्थ में उनकी जीत होने के बाद उनके अनुयायियों ने उन्हें ज़हर खिला दिया, जिसमें उनकी मृत्यु हो गयी और वे इस विशाल मंदिर के मठाधीश बन गए। स्वामी दयानंद सरस्वती की ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में इस घटना का उल्लेख मिलता हैं कि शंकराचार्य बौद्धों को वहाँ से हटाकर वैदिक स्कूल खोलना चाहते थे, मगर उनका यह सपना पूरा नहीं हो पाया। 

डॉ. मायाधर मानसिंह भी अपनी पुस्तक ‘द सागा ऑफ़ द लैंड ऑफ़ जगन्नाथ’  में इस मंदिर को तंत्रपीठ मानते है क्योंकि साल में एक बार जगन्नाथ मंदिर के परिसर में विमलादेवी (काली का एक रूप) के सामने पशु बलि दी जाती है। यही नहीं, मंदिर की दीवारों पर उत्कीर्ण नग्न मूर्तियाँ तंत्र-साधना की पुष्टि करती हैं। इतना ही नहीं, डॉ. मायाधर मानसिंह उस शबर जाति के पास मिले नीले पत्थर को शिवलिंग का प्रतिरूप ही मानते हैं, जैसे कि आंध्रप्रदेश के श्रीसेलम की नदियों में अपवाहित चिकने गोल पत्थरों को शिवलिंग का स्वरूप समझा जाता है। यह भी सोचने वाली बात है, शुरू-शुरू में जगन्नाथ को ‘नीलमाधव’ कहा जाता था। क्यों? नीलमलई पर्वत शृंखला से मिले हुए भगवान होने के कारण यह संज्ञा दी गई थी। आज भी इस पर्वत को ‘नीलाचल’ या ‘नीलाशैल’ कहते हैं।कभी-कभी जगन्नाथ धाम को श्रीशैल और श्रीसेलम परंपराओं का निर्वहन करने के कारण पुरी को ‘श्रीक्षेत्र’ कहा जाता है। शायद कृष्णा नदी के किनारे ओरिजनल देवता का आवास होना ही सारलादास की कल्पनाशक्ति को उद्दीप्त करने के लिए पर्याप्त था कि नील मलाई के नीले पत्थर के शिवलिंग को कृष्ण के हृदय से जोड़कर ‘नील माधव’ कहते हुए उन्हें ‘श्रीशैल’ या ‘नीलाचल’ में नया घर प्रदान कर दिया। क्या यह उम्दा फैंटेसी नहीं है? धीरे-धीरे यह फैंटेसी किसी धर्म का अभिन्न अंग बनकर साधारण लोगों के लिए आस्था का प्रमुख केन्द्र बन जाती है।

- क्रमशः

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