पोइट आइसोलेशन में है वसंत!

01-03-2021

पोइट आइसोलेशन में है वसंत!

डॉ. अशोक गौतम (अंक: 176, मार्च प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

हर बार की तरह इस बार भी वसंत इसी मुग़ालते में था कि ज्यों ही वह स्वर्ग से धरती पर उतरने को जूते के फीते बाँधने लगेगा तो उसके जूतों के फीते बाँधने की आवाज़ सुन धरती पर हर आपदा विपदा में अंट शंट गा सरकारी पोइट सम्मेलनों में सौ पचास कमाने वाले पोइट हो-हल्ला मचा देंगे, कि हे मेरे देश के खूंखार प्रेमियो सावधान! वसंत ने अपने जूते के फीते कस लिए हैं और वह स्वर्ग से चल पड़ा है। इसलिए जिनके मन में नफ़रत के सिवाय और कुछ भी नहीं, वे भी प्रेम का सत्कार करने को खड़े हो जाओ। 

जूते के फीते बँध जाने के बाद उसने ऊपर से ही देखा, पर नीचे कहीं कोई हल्ला नहीं। हर पोइट मंच पर माघ सी ठंड, दिल्ली सा कोहरा! जिन पोइट मंचों प्रपंचों पर उसके आते ही पोइटों द्वारा एक दूसरे की टाँग न होने के बाद भी एक दूसरे की पीठ थपथपाते टाँग खिचाई शुरू हो जाती थी,  सारे पोइट मंच सुनसान। कहीं दरियाँ बिखरी हुईं तो कहीं कुर्सियाँ। ज्यों महीनों से वहाँ कोई पोइट गोष्ठी ही न हुई हो। या कि धरा पोइट मुक्त हो गई हो। श्रोता तो वसंत तक को पहले भी नहीं मिलते थे, पर अबके पोइट भी न मिले तो वह असमंजस में। डिजिटल होते समाज में कहीं मंचीय पोइट भी गुम तो नहीं हो गया? नहीं, पोइट का सब कुछ हो सकता है, पर मंचीय पोइट गुम नहीं हो सकता।

कल वह पोइटों को ढूँढ़ता ढूँढ़ता अचानक मेरे घर तक आ पहुँचा। डरा हुआ रंग, उड़ा चेहरा, बिखरे हुए बाल! हाथ में सैनिटाइज़र, मुँह पर मास्क। मुझे ग़ुस्सा भी आया, जो कोरोना से इत्ता डर तो भलेमानुस घर से बाहर ही क्यों निकले हो? माना, राजनीतिक रैलियों के अतिरिक्त हर जगह कोराना से डरना ज़रूरी है। पर ये भी तो कोई बात नहीं होती कि कोरोना की वैक्सीन आने के बाद भी इतना डर। अजीब बात है, वैक्सीन लगवाने से भी डरना और कोरोना से भी। ख़ैर, मेरी समझ में दुनिया की तो कोई भी बात आज तक समझ नहीं आई, पर कम से कम जीने की यह दोहरी रीति तो बिलकुल भी समझ में न आई। ख़ैर, मैंने समझने की कोशिश भी नहीं की। मैं उन दिखावे-सजावे के बुद्धिजीवियों में से नहीं जो बात समझ न आने के बाद भी बात समझ में आने का दिखावा कर अपने से तो धोखा करते ही हैं, पर समस्या के साथ भी धोखा करते हैं।

पता नहीं क्यों उसने तब आव देखा न ताव, वह प्रेमिका की तरह मेरे गले लगने को हुआ तो मैंने उससे तीन गज की दूरी बहुत ज़रूरी मानते कहा, "कौन? हद है! मान न मान, आप मेरे भगवान! देखो डियर! मैं इन दिनों अपनी बीवी के गले तक दिखावे को भी नहीं लग रहा और एक तुम हो कि . . ."

"डरो मत मित्र! मैं वसंत हूँ," उसने मेरे न पूछने के बावजूद भी अपना परिचय दिया तो मैंने अपने सिर में खुजली न होने के बाद भी खुजली करते कहा, "वसंत बोले तो स्प्रिंग?"

"हाँ! वही वसंत जिसे कामदेव रति का रूप माना जाता है। मैं वही वसंत जो माघ में जैसे-कैसे बचने की यमराज से कामना करने वालों को अपने आने पर विवाह के लिए उतावला बावला कर देता हूँ। पर मित्र! अबके यहाँ कोई पोइट मंचों पर फुदकता हुआ नहीं दिख रहा। माना, शृंगार रस अब वल्गर रस में परिवर्तित हो चुका है। जब किसी चेहरे पर हँसी नहीं तो बेकार में मुरझाए चेहरों को हास्य रस की पोइटता सुना क्यों टमाटर खाने। रही बात वीर रस की तो अब उस पर सीमा पर लड़ने वाले सैनिकों से अधिक एकाधिकार रक्षामंत्री का हो गया है। कल तक मेरे आने पर जो पोइट, पोइट न होने के बाद भी पागल होने की पोइट्री की नौटंकी करते थे, आज वे सब कहाँ हैं? उन्हें अपने स्वागत में न पा मैं पागल हुआ जा रहा हूँ मित्र! कहीं अपोइटों को अहसास तो नहीं हो गया कि आजतक हर सीज़न, तीज-त्योहार पर वे पोइट्री के नाम पर जो ज़बरदस्ती गाते लिखते रहे, वह पोइट्री नहीं थी, या कि . . . श्रोता तो पहले ही हर मंच से ग़ायब रहते थे, पर अब मंचों से पोइटों का ग़ायब होना मुझसे क़तई सहन नहीं हो रहा। आख़िर अबके सब पोइट गए तो कहाँ गए? क्या पोइटों को साँप सूँघ गया?"

"नहीं, कोरोना सूँघ गया है।"

"कोरोना!! कालजयी पोइट भी मरने से डरता है क्या?"

"हाँ वसंत! वह सबसे अधिक मरने से ही डरता है। उसके बाद उस गोष्ठी में जाने से डरता है जहाँ पारिश्रमिक न मिले। जाता भी है तो अपना अहंकार रखने के लिए ही जाता है। जहाँ उसे कविता का पारिश्रमिक मिलता है वहाँ वह वैसे ही टूट पड़ता है ज्यों गिद्ध कई दिनों की सड़ी मरी भैंस पर टूट पड़ता है। अब तम ही कहो, क्या वह भी पंचतत्व-व्यापारियों की ही तरह हाड़-मांस का बना नहीं होता? उसके भी पेट-पीठ नहीं होते क्या? वैसे तो इन दिनों बेहद डरे हीरोइक रस का पोइट भी आइसोलेशन में ही उत्तम हीरोइक रस प्रधान पोइट्री रच रहा है, पर उसके साथ ही साथ अन्य रस-अरस, अपोइट-पोइट भी कोरोना के डर से अपनी अपनी पोइट्री के साथ दुबके, अपनी साँसें रोके, कोरोना की नब्ज़ के बदले अपनी नब्ज़ पर क़लम धरे बैठे समाज से आइसोलेट होकर फ़ेसबुक पर रच रहे हैं, व्हाट्सएप पर छप रहे हैं। पेड मंचीय पोइट्री तो बाद में भी हो जाएगी जो कोरोना से बच गए तो।"

"तो इसका मतलब . . ." वसंत को अचानक चक्कर आया और वह वहीं गिर गया। अब इसे कैसे उठाऊँ? आसपास कोई कचरा अधकचरा भी नहीं। मैंने वसंत का जो इस उम्र में स्पर्श कर दिया और मुझमें कहीं ये प्रवेश कर गया तो? इस प्रेम से  अब मैं बहुत डरता हूँ भाई साहब! मेरे न चाहते हुए भी ज़बरदस्ती मुझे उकसा-उकसा अपनी जवानी के बाद भी इसने मुझे बहुत नचाया, बद ही नहीं, जमकर बदनाम करवाया है। प्रेमिकाओं तो छोड़ो, बीवी तक की नज़रों में गिराया है।

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