पितृपक्ष

नीना सिन्हा (अंक: 190, अक्टूबर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

“क्या दादी! जब देखो पुरातन ज़माने की रीति-रिवाज़ों में व्यस्त रहती हैं! मम्मी को भी उलझा रखा है।"

“क्यों इतना चिढ़ा हुआ है? पितृ पक्ष चल रहा है, जानता है न?” दादी ने मुस्कुराते हुए अनसुना किया।

“आजकल आपको और मम्मी को गंदी-शंदी चीज़ें खाने वाले काले कौवे बड़े पसंद आ रहे हैं! जो कहीं भी पड़ा हुआ कुछ भी खाते हैं, उनको खीर-पूरी खिलाया जा रहा है! उनके भाव बढ़ गए हैं!” बोर्डिंग स्कूल से घर आया हुआ मयंक झल्लाया हुआ था, “श्राद्ध पर्व मैं भी समझता हूँ। पूर्वजों को स्मरण करना अच्छी बात है, पर कौवों का पीछा क्यों कर रहे हैं आप लोग? ऐसी क्या ख़ास बात पैदा हो गई है उनमें?”

“कहा जाता है, ‘इंद्र-पुत्र जयंत ने कौवे का रूप धारण कर माता सीता के पैर में चोंच मारी थी। तब भगवान श्रीराम ने तिनके का बाण चलाकर जयंत की आँख फोड़ दी थी। उसके द्वारा माफ़ी माँगने पर श्रीराम ने उसे वरदान दिया कि पितृ पक्ष में उनको अर्पित किया गया भोजन पितरों को मिलेगा।’ तभी से इनको भोजन कराने की परंपरा चली आ रही है। इनको यमराज का संदेशवाहक भी कहा जाता है। वे हमारा संदेश हमारे पितरों तक पहुँचा देते हैं। यह है पौराणिक कथा। इसके पीछे अगर कोई वैज्ञानिक कारण है तो मम्मी से पूछ! विज्ञान की विद्यार्थी थी। अपने प्रश्न लेकर उसी की शरण में जा।”

“अब तुम बताओ, मम्मी!”

“प्राचीन काल में हमारे ऋषि-मुनि अथाह ज्ञान का भंडार थे। मध्य-युग में हुए हमलों ने हमारे ज्ञान की थाती का बड़ा नुक़सान किया है। नालंदा विश्वविद्यालय को जला दिया जाना एक उदाहरण है, जिसके साथ जाने कितने ग्रंथ जल गए होंगे। ऐसे कितने ही उदाहरण मिलेंगे, जिनमें हमारी संस्कृति और साहित्य को बार-बार कुचला गया। दरअसल ऋषि-मुनि अपने ज्ञान को धर्म के साथ इसलिये जोड़ते थे ताकि जनसाधारण सूत्र स्मरण कर उनका पालन करे, क्योंकि गूढ़ बातें समझना सबके बस की बात नहीं।”

“पर मम्मी! इस सब के बीच में कौवे कहाँ आते हैं?”

“बताती हूँ, सब्र रख!

सावन-भादों (अगस्त-सितंबर) में कौवी के अंडों से बच्चे निकलते हैं। इन्हीं महीनों में श्राद्धपक्ष पड़ता है। कौवों को आसानी से पौष्टिक आहार मिल सके, इसीलिए इसे श्राद्ध पक्ष से जोड़ दिया गया। इस मान्यता की पृष्ठभूमि में बरगद और पीपल जैसे देव वृक्षों की सुरक्षा जुड़ी है, जो प्राणियों को  प्राणवायु के अलावा रोग-मुक्त शरीर के लिए औषधियाँ भी देते हैं। कौवे इन वृक्षों के फल खाते हैं तो बीज इनके पेट में ही अंकुरित हो जाते हैं। जब यह यत्र-तत्र बीट करते हैं तो वर्षा ऋतु के कारण पीपल और बरगद तुरंत उग आते हैं। इस प्रकार वे बीजों के चतुर्दिक संवाहक का काम करते हैं। यहाँ तक कि पुराने मकानों की दीवारों में भी पीपल और बरगद उग जाते हैं।”

“ह्म्म्म्म! तुम्हारी बातों में मुझे तर्क नज़र आ रहा है मम्मा! अब मैं उनसे नफ़रत नहीं करूँगा, खीर पूरी खिलाऊँगा। एक प्रश्न और, पितृ पक्ष में ही क्यों, वर्षभर क्यों नहीं?”

“हे भगवान! तेरी प्रश्नोत्तरी कभी ख़त्म नहीं होगी। मेरी जान छोड़, पापा से पूछ!”

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें