फोटो का सच 

31-05-2008

फोटो का सच 

तरुण भटनागर

जब वे सरकारी दफ़्तर पहुँचे, वे हाँफ रहे थे। वह दफ़्तर बिल्डिंग की तीसरी मंज़िल पर था। वे कुछ दिनों से कई बार यहाँ आते रहे हैं। वे बड़ी मुश्किल से सीढ़ियाँ चढ़कर इस दफ़्तर तक पहुँच पाते हैं। सीढ़ियाँ चढ़ते हुए, उन्हें एकाध दो बार थकावट भरा चक्कर सा आ जाता है। ऐसे में वे अपनी छड़ी किनारे टिकाकर, किसी कुर्सीपर बैठ जाते हैं। दफ़्तर के हर मंज़िल पर प्रतीक्षार्थियों के लिए कुछ कुर्सियाँ रखी हैं। जहाँ बैठकर उन्हें सुस्ताना पड़ता है। पर तीसरी मंज़िल तक पहुँचते-पहुँचते वे थककर चूर हो जाते हैं। उन्हें अपने दिल की धड़कन कान में बजती सुनाई देती है। पूरे कपड़़े पसीने से भीग जाते हैं और एक बार जो छाती की धौंकनी चलनी चालू होती है, वह फिर घण्टों तक बंद नहीं होती। 

तीसरी मंज़िल पर पहुँचकर वे उस कमरे तक पहुँचते हैं। वे पिछले छह माह में कई बार यहाँ आ चुके हैं। उस कमरे के बाहर पड़ी बैंच पर वे थोड़ा देर सुस्ता लेते हैं। फिर धीरे-धीरे अपनी छड़ी टेकते हुए कमरे में उस क्लर्क की टेबल तक पहुँचते हैं। 

उन्हें वह क्लर्क हमेशा उसी टेबल पर मिला है। उस दिन भी वह वहीं था। उन्हें हर बार उस क्लर्क को वहाँ पाकर संतोष होता है। वह एक सी मुद्रा में फ़ाईल को गोद रहा होता है। उसके एक तरफ़ टेबल पर फ़ाईल का अंबार लगा होता है और दूसरी तरफ़ लाल पीले कपड़ों में लिपटी कुछ फ़ाईलें बेतरतीब ढंग से ज़मीन पर पड़ी होती हैं। 

उस दिन वे सीधे उस क्लर्क की टेबल के पास पहुँचे और उसकी टेबल पर दो फोटो रख दीं। एक ब्लैक एण्ड व्हाइट फोटो जो आकार मे थोड़ी बड़ी थी और पुरानी होने के कारण ब्लैक एण्ड व्हाइट की बजाय थोड़ा सीपिया रंग की हो गई थी और दूसरी एक रंगीन फोटो जो हाल ही में खींची गई एक नई फोटो है। 

क्लर्क अपने काम में लगा रहा। उसने अपने चश्मे के कांच और भौंह के बीच से अपनी आँख चुराते हुए उन्हें देख लिया था। उसे पता चल गया था कि वे उसके सामने खड़े हैं। उसे यह भी पता था कि वे क्यों खड़े हैं। पर फिर भी वह फ़ाइलों को गोदने में लगा रहा। वह कुछ यूँ प्रदर्शित कर रहा था, कि वह व्यस्त है। उसके पास और भी ज़रूरी काम हैं। उसे, उनकी परवाह नहीं। ऐसा प्रदर्शित कर वह उन्हें टालना चाह रहा था। पर उन्हें यह बात समझ में नहीं आई। वे उसकी टेबल के सामने खड़े रहे। उन्हें उम्मीद थी कि वह क्लर्क उनकी ओर देखेगा। वे पहले भी कई बार आ चुके हैं। उन्होंने क्लर्क से कई बार बात की है। कभी-कभी देर तक बात की है। क्लर्क उन्हें जानता है। वह उन्हें अवश्य तवज्जो देगा। पर क्लर्क ने बहुत देर तक उनकी ओर नहीं देखा। थोड़ी देर बाद वे टेबल के पास रखी बिना हत्थे वाली कुर्सी पर बैठ गये। वे तिहत्तर वर्ष के हैं। यहाँ तक आते-आते वे इतना थक जाते हैं कि देर तक खड़े नहीं रह पाते। उन्हें बैठना पड़ता है। 

सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते वे कई बार ख़ुद से खिन्न हो जाते हैं। वे मन ही मन इतने कड़वे हो जाते हैं, कि अपने शरीर को और सीढ़ियों को गालियाँ देने लगते हैं। ये कम्बख़्त सीढ़ियाँ ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेती... बूढ़े आदमी का ख़्याल ही नहीं। कम से कम बूढ़े आदमी के लिए तो इन्हें ख़त्म होना चाहिए। साँप की तरह बढ़ती जाती हैं। और यह शरीर...। कितनी तेज़ी से कब्र ढूँढ रहा है। इन टाँगों को जाने क्या होता जा रहा है। ये टाँगें तो उनका कहा मानती ही नहीं। जब से अर्थराइटिस हुआ है, बिल्कुल लक्कड़ सी हो गई हैं। ज़रा सा घुटना क्या मोड़ लो, पूरा पैर सूजकर शकरकंद जैसा हो जाता है। 

वे थोड़ी देर तक कुर्सी पर बैठे रहे। 

वे बीसियों बार इस दफ़्तर आ चुके हैं। उनके बेटे जीवेन्द्र की मृत्यु के बाद सरकार ने कहा था कि उन्हें पैसा मिलेगा। आदेश भी आ गया है। पर क्लर्क कहता है कि उन्हें कोई ऐसा सबूत पेश करना पड़ेगा जिससे सिद्ध हो कि वे ही जीवेन्द्र के पिता हैं। उन्होंने घर में बहुत छानबीन की। दोनों अलमारियाँ, बड़ा संदूक, जीवेन्द्र की अलमारी, टेबिलों के ड्रार और यहाँ तक कि दीवान का बॉक्स और उसमें रखा सारा सामान और तो और उन्होंने बुक शैल्फ़ की एक-एक किताब को पलटकर-झटकारकर देखा...। शायद कहीं कोई ऐसा काग़ज़ हो, जो प्रमाणित करे कि वे ही जीवेन्द्र के पिता हैं। पर ऐसा कोई काग़ज़ नहीं मिला। जीवेन्द्र की मार्कशीट, उसका बर्थ-सर्टिफिकेट, ...सब जीवेन्द्र के पास ही था। पता नहीं उसने कहाँ रखा था। अब बहुत मुश्किल हो गई। पहले-पहल उन्हें क्लर्क ने बताया था कि मुनिस्पलिटि से दूसरा बर्थ-सर्टिफिकेट मिल सकता है। उन्होंने मुनिस्पलिटी के भी चक्कर लगाये। पर वहाँ इतना पुराना रिकार्ड नहीं है। वहाँ का अधिकारी कहता है, पुराना रिकार्ड न होने से डुप्लिकेट बर्थ-सर्टिफिकेट नहीं मिलेगा। उन्होंने यह पूरी कहानी क्लर्क को सुनाई। क्लर्क ने उनसे कहा कि वे यूनिवर्सिटी से जीवेन्द्र की मार्कशीट ले सकते हैं। फिर उन्होंने युनिवर्सिटी के चक्कर लगाये। युनिवर्सिटी के सेक्शन ऑफ़िसर ने उनसे कहा कि डुप्लिकेट मार्कशीट के लिए उन्हें ओरिजनल मार्कशीट के गुमने की एफ.आई.आर. पुलिस के पास करवानी पड़ेगी...। अब इस उम्र में वे कहाँ-कहाँ भटकें। एक दिन उन्होंने क्लर्क से कह दिया कि वे भाग-दौड़ नहीं कर पाते हैं। उनका शरीर साथ नहीं देता है। वे क्या करें? फिर शालिनी को भी देखना पड़ता है। शालिनी उनकी पत्नी है। उनसे तीन साल छोटी है। उसकी शुगर बहुत बढ़ गई है। उसे हाइपोग्लाइसीमिया के कारण चक्कर आते हैं। जीवेन्द्र की मृत्यु को एक साल होने आया। पर वे आज भी घुटती हैं। ढंग से खा पी नहीं पाती हैं। डॉक्टर कहता है कि ऐसा ही रहा तो प्राब्लम और बढ़ जायेगी। एक बार तो शालिनी की शुगर इतनी लो हो गई थी, कि उसे गश आ गया था। वे घबरा गये थे। वे शालिनी को देर तक अकेला नहीं छोड़ सकते। दूसरा कोई देखने वाला नहीं है। 

उस दिन क्लर्क को यह सब कहते हुए वे कुछ रुआँसे हो गये थे। फिर उन्हें हमेशा की तरह ख़ुद पर, अपने शरीर पर खीज हो आई। वे अपनी तुलना अपने दोस्त विशेश्वर के साथ करते हैं। विशेश्वर उन्हीं की उम्र का है। पर वह पूरी तरह भला चंगा है। छिहत्तर साल में भी चकाचक। उसे ना तो दमा है और ना आर्थराइटिस। वे ख़ुद को बहुत ढाढ़स बँधाते हैं। पर क्या करें शरीर साथ नहीं देता। उन्हें अपने शरीर को धकियाना पड़ता है। 

उस दिन क्लर्क ने उनकी सारी बातें सुनी थी। उस दिन से उन्हें यह क्लर्क ही सब कुछ नज़र आने लगा है। उन्हें लगता है, यह क्लर्क उनकी समस्या का देर-सबेर निदान निकाल ही लेगा। जो काम मुनिस्पलिटी और युनिवर्सिटी में नहीं हो पाया, वह यह क्लर्क कर सकता है। एक तरह से उन्होंने ख़ुद को आश्वस्त किया है कि यह क्लर्क उनका काम कर सकता है। फिर यह दफ़्तर भी उनके घर से पास ही है। वे यहाँ आसानी से आ जा सकते हैं। दिनों दिन वे मजबूर से होते जा रहे है। वे इस दफ़्तर से आगे नहीं जा सकते। वे इस दफ़्तर से आगे उम्मीद नहीं कर सकते। उनके शरीर ने उन्हें ज़्यादा उम्मीद करने लायक़ नहीं छोड़ा है। उनकी उम्मीदें इस दफ़्तर और क्लर्क पर आकर रुक गईं हैं। वे अपने शरीर को तो किसी तरह धकियाकर आगे बढ़ा लेते हैं, पर उम्मीदों को नहीं। 

"ये क्या है?"

क्लर्क ने कुछ ढिठाई के साथ, उन फोटुओं की ओर इशारा कर उनसे पूछा। उन्होंने अपना गला खंखारकर साफ़ किया। वे झिझक रहे थे। उन्होंने जानबूझकर अपना गला खंखारा। पर जब उस दिन शालिनी ने उनसे कहा था कि वे ये फोटुएँ क्लर्क को दिखायें, तब उन्हें कुछ भी अटपटा नहीं लगा था। वे तुरंत तैयार हो गये थे। शालिनी ने कहा था कि शायद इन फोटुओं से बात बन जाये। और उन्हें लगा कि यह ख़्याल उन्हें क्यों नहीं आया? उन्हें लगता है कि इन फोटुओं से बेहतर कुछ भी नहीं। कितना आसान है, यह बताना कि यह जीवेन्द्र है और यह मैं। देखो ये हम दोनों है और ये शालिनी है। देखो...। क्या अब भी किसी प्रमाण की ज़रूरत है। क्या अब भी शंका है। ये फोटुएँ कितना स्पष्ट कहती हैं। ये फोटुएँ कहती हैं, कि मैं ही हूँ जीवेंद्र का पिता। हाँ वे ही...कितना साफ़ है कि वे ही जीवेन्द्र के पिता हैं। और यूँ सोचते हुए उनका मन भारी हो जाता, जैसे बरसात में भीगकर कपड़े भारी हो जाते हैं। जैसे मरने के बाद शरीर भारी हो जाता है। जीवन के इस अंतिम पड़ाव पर ख़ुद को, अपने जिगर के टुकड़े, अपने बेटे का पिता बताने के लिए, भटकते हुए, अक्सर उनका मन भारी हो जाता है। हाँ उनका मन दोनों तरह से भारी हुआ है। कभी बरसात में भीगे कपड़ों की तरह, तो कभी मरी हुई लाश की तरह...। उन्होंने अपने को झटकारा। वे मन के भारी होने वाली बात को झटककर अलग करना जाहते थे। उन्होंने ख़ुद को उस बात से अलग कर लिया। 

एक बात उनके भीतर गहरी लकीर की तरह खिंच गई है- इन फोटुओं से बेहतर कुछ नहीं। हाँ कुछ भी नहीं। ये कितना स्पष्ट बताती हैं। फोटुएँ कभी झूठ नहीं बोलतीं। वे झूठ नहीं बोल सकतीं। जब उन्हें खींचा जाता है, तब बाहर की दुनिया और फोटो पेपर के बीच बस एक पारदर्शक लैंस होता है। उस लैंस में कोई छलावा नहीं होता है। वह बाहर की दुनिया को वैसा का वैसा फोटो पेपर पर उतार देता है। अगर लैंस बाहर की दुनिया के साथ छेड़छाड़ करे तो लोग कहते हैं, कि लैंस ख़राब हो गया है। लोग लैंस को बदल देते हैं। बचपन में जब वे स्कूल में पढ़ते थे, तो विद्वान के टीचर ने उन्हें बताया था, कि इंसान की आँख और कैमरा लगभग एक सी ही चीज़ हैं। दोनों में लैंस होता है। दोनों के लैंस दृश्य की दूरी, प्रकाश, अँधेरा, दृश्य की गहराई आदि के हिसाब से एडजस्ट हो जाते हैं और यूँ बाहर की दुनिया वैसी की वैसी उतर आती है। कैमरे में फोटो पेपर पर और आँख में रैटिना पर, दुनिया वैसी ही उतर आती है, जैसी वह है। अर्सा बाद वे समझ पाये कि टीचर की बात सही नहीं थी। कैमरा उस तरह नहीं देख सकता जिस तरह आँखें देखती हैं। आँखें चुनकर देखती हैं। वे दिखते दृश्य में से इच्छा अनुसार चुन लेती हैं और इंसान को वही दिखाती हैं, जो वह देखना चाहता है। वे दृश्य में से उन हिस्सों को काट देती हैं, जो उन्हें रुचिकर नहीं लगते हैं। उन्होंने आज तक ऐसी आँख नहीं देखी जो दृश्य को बिना काट-छाँट के देख पाये। उसे वैसा ही देखे जैसा वह दृश्य है। स्वयं उनकी आँख ऐसा नहीं कर पाती है। उनकी आँख हमेशा उन्हें वही दिखाने की कोशिश करती है, जो वे देखना चाहते हैं। उनकी आँख उनके मन को पटाती है। उनकी आँख उनके मन से डरती है। पर कभी-कभी वह बाहर के दृश्य में काट-छाँट नहीं कर पाती है। कुछ दृश्यों में काट-छाँट करना आँख को नहीं आता है। ऐसे में वह ख़ुद ब ख़ुद बंद हो जाती है। आँख का दिखाया सच नहीं होता है। हम जो देखते हैं, वह एक छल की तरह है। कई बार यह छल इतना भयंकर होता है, कि हमारा देखना, देखना नहीं रह जाता है। कभी-कभी हमारा देखना देखने की श्रेणी में भी नहीं आता। कभी-कभी देखने का छल बहुत ख़तरनाक होता है। वह देखना नहीं होता है। वह अपराध होता है। ख़ुद का ख़ुद के विरुद्ध अपराध। पर कैमरे का दिखाया हमेशा सच होता है। कैमरा हमेशा आँख से बेहतर रहा है। उसने कभी किसी को नहीं छला। तभी कैमरे की फोटो, उन दृश्यों से बेहतर है जिन्हें हम रोज़ देखते हैं। क्योंकि इन फोटुओं में छलावा नहीं है। इन फोटुओं के बाद किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं। इनके बाद भला किसी काग़ज़ की क्या ज़रूरत? सच के बाद फिर और जानने को क्या रह जाता है। फोटो के सच के बाद, कुछ और जानना पागलपन है, चीटिंग है। बचपन में टीचर ने उन्हें ग़लत बताया था, कि आँख और कैमरा लगभग एक सी चीज़ हैं। 

क्लर्क के प्रश्न पर वे कुछ जवाब नहीं दे पा रहे थे। वे बस खड़े रहे। 

"ओफ़्फो आप समझे नहीं...।"

"मैं लाया हूँ ना। ये दो तस्वीरें। आपने कहा था।"

"अरे बाबा ये नहीं।"

"क्यों?"

यह "क्यों" उन्हें बौड़म सा लगा। उन्हें लगा मानो यह "क्यों" किसी दूसरे ग्रह से आया है। जैसे यह "क्यों" उन्होंने नहीं कहा हो। जैसे यह "क्यों" कोई पाप हो। वे आज तक उन तस्वीरों पर "क्यों" नहीं लगा पाये हैं। वे कभी जान ही नहीं पाये कि ऐसा "क्यों" हो सकता है। यह उनकी समझ से परे रहा है। पर आज यह "क्यों" कहते हुए उन्हें क्षोभ भी नहीं हुआ। ...छि: उन्होंने ख़ुद से ही कह दिया "क्यों" । 

बहुत दिनों से उन्होंने ख़ुद इन तस्वीरों को नहीं देखा है। शालिनी ने भी बहुत दिनों से इन तस्वीरों को नहीं देखा है। जीवेन्द्र के मरने के बाद तो एक बार भी नहीं देखा है। इन तस्वीरों को देखने की हिम्मत नहीं होती है। शालिनी ने तो ये तस्वीरें बहुत दिनों से नहीं देखी हैं। जीवेन्द्र के मरने के एक साल बाद भी वह इन तस्वीरों को नहीं देख पाती है। उन्हें लगता है, वे शालिनी को ये तस्वीरें दिखा सकते हैं। पर दूसरे ही पल उन्हें लगता है, कि वे शायद ऐसा नहीं कर पायें। उन फोटुओं को देखने के लिए बहुत हिम्मत चाहिए। अब उन फोटुओं को सहजता के साथ नहीं देखा ता सकता है। उन फोटुओं का मतलब अब बदल गया है। वरना पहले...। शाम की चाय के समय शालिनी ख़ुद पुराने फोटो के एलबम निकाल लाती थी। फिर दोनों बुड्‌ढे-बुढ़िया देर तक उन पुरानी फोटुओं को देखते रहते थे। कुछ फोटुओं को वे जल्दी-जल्दी देखते और कुछ फोटुओं पर वे थोड़ी देर रुक जाते। फिर उन फोटुओं के बारे में बातें करते। लगभग एक सी बातें। उन्हें पता होता कि उन्हें किस फोटो पर रुकना है। उन्हें पता होता कि उन्हें क्या बातें करनी हैं? उन्हें पहले से ही पता होता कि वे उस फोटो के बारे में क्या बात करेंगे? वे जानते कि वे क्या बातें करेंगे? पर फिर भी वे बात करते। देर तक बतियाते रहते। एक सी बातें बतियाते। इन फोटुओं में अजीब सा आकर्षण है। उनकी एक सी बातें भी कभी ख़त्म नहीं होती थीं। कभी लगता ही नहीं था कि वे बातें ख़त्म हो जायेंगी। जबकी एक सी बातें ख़त्म हो जाती हैं। बार-बार की जाने वाली एक सी बातें अपना मतलब गुमा देती हैं। एक सी बातों वाली चीज़ें अपना अर्थ खो देती हैं। पर फोटुएँ ने अपना अर्थ नहीं खोया। ऐसा नहीं हो सकता था। वे बातें, वे फोटुएँ मानो ख़त्म होने के लिए नहीं बनी हों। वे दोनों उन फोटुओं को देखते और देर तक बतियाते रहते। हँसते खिलखिलाते। फिर चुप होकर उन फोटुओं को देखते। एक सी बात। फोटुओं की एक सी बात। जो पूरे अट्ठाइस सालों में भी, ज़रा सा नहीं घिसीं। ब्लैक एण्ड व्हाइट से सीपिया रंग की और रंगीन से फेंट होकर तेलही सी होतीं पुरानी फोटुएँ, अक्सर शाम को चाय पीते समय यूँ हो जातीं मानों वे अभी-अभी की हों। वे पूरे अट्ठाइस सालों को पार कर एकदम से आ खड़ी होतीं। ...शायद फोटुएँ वहीं रहतीं, पूरे अट्ठाइस सालों के पार। पूरे अट्ठाइस सालों के पीछे और आज का दिन बदल जाता। आज का दिन बदलकर अट्ठाइस साल पुराना कोई दिन हो जाता। फिर जैसे वह फोटो पहली बार घर आई हो। और उसे वे दोनों पहली बार देख रहे हों। वे फोटुएँ, एक सी बात के सााथ हर बार नई बनकर आईं। उन फोटुओं ने आज के कई दिनों को एक पल में नये से बहुत पुराना, अट्ठाइस साल पुराना दिन बना दिया। पता नहीं क्या होता था? पर जो भी होता था, वह इन दोनों में से कोई एक था। और जो होता था वह एकमात्र होता था। जैसे रोज़ की हर शाम, जो नई है और एकमात्र, जो अब अगले दिन फिर से नई और एकमात्र होगी। 

परन्तु फिर भी उन्होंने ही कहा - "क्यों" । छि:...। 

"आप मेरी बात सुनेंगे...।"

उन्होंने सपाट तरीक़े से क्लर्क से कहा। क्लर्क ने उनकी ओर अनमने ढंग से देखा और फिर उसने अपने कंधे झटकारे और फ़ाइलों को गोदने लगा। उन्होंने क्लर्क के सामने उन दोनों तस्वीरों में से एक तस्वीर रख दी। यह पुरानी ब्लैक एण्ड व्हाइट तस्वीर थी। क्लर्क ने कुछ कहने के लिये अपना मुँह खोला ही था। पर उसके कुछ कहने के पहले ही वे कहने लगे-

"देखो ... ये फोटो तब की है, जब जीवेन्द्र पैदा हुआ था। ये मैं हूँ। और यह जो छोटा सा बच्चा मेरी गोद में है। ये...। यह जीवेन्द्र है। बाइस नवम्बर उन्नीस सौ बासठ। उन दिनों हम नाहन में रहते थे। आपने नाहन का नाम सुना है।"

क्लर्क ने ना की मुद्रा में अपना सिर हिलाया। 

"नाहन हिमाचल प्रदेश में है। चारों ओर पहाड़ ही पहाड़। ख़ूब चक्करदार घाटियाँ। वहाँ पहुँचने के लिए ऐसी कई चक्करदार घाटियों को पार कर बस पहुँचती है। वहाँ बड़ी सख़्त ठण्ड पड़ती है। शिमला और कुल्लू से भी ज़्यादा। नाहन की ठण्ड बड़ी ग़ज़ब है। पूरे दिन कुड़कुड़ाते रहो। ऐसे ही ठण्ड का दिन था वह। जीवेन्द्र सुबह क़रीब दस बजे पैदा हुआ था और यह फोटो लगभग बारह बजे का है। देखो जीवेन्द्र कितना छोटा है। बित्ता भर का...। देखो...।"

उन्होंने वह फोटो अपने हाथों में लेकर क्लर्क की आँखों के ठीक सामने कर दी। पर क्लर्क वह फोटो देखने की बजाय उनकी ओर देखने लगा। उनके चेहरे पर एक दमक थी। जैसे सरकते कपासी बादलों के बीच से आकाश झाँकता है, फिर छिपता है, फिर झाँकता है...। ठीक वैसी दमक। 

"नर्स ने पूरे दो सौ रुपये लिये थे और तब मुझे जीवेन्द्र को छूने दिया था। शालिनी तो ऑपरेशन थियेटर में बेहोश पड़ी थी। जीवेन्द्र मेरी गोद में था। वह आँखे मिचमिचा रहा था। फिर थोड़ी देर बाद वह धीरे से मुँह खोलता और बंद करता...। उसके मुँह से चपचपाने की हल्की सी आवाज़ आती। मैंने डॉक्टर से पूछा कि यह ऐसे क्यों कर रहा है? डॉक्टर ने बस इतना कहा कि इसे पतला दूध, एकाध चम्मच पिला सकते हैं। मैं दूध ले आया। उसे थोड़े से पानी में घोला और जीवेन्द्र को पिलाने लगा। देखो इस फोटो में मैं उसे दूध पिला रहा हूँ। नर्सिंग होम के बाहर एक स्टूडियो था। उसका नाम अब याद नहीं। बस वहीं से एक फोटोग्राफर आया था। वह अपने आप आया था। उसी ने यह फोटो खींची थी...।"

वे बांध में इकट्ठा होते पानी की तरह बोल रहे थे। धीरे होते हुए। थोड़ा कम होता प्रवाह। पर बेझिझक। अपनी प्रवृत्ति से। एक जगह इकट्ठा होते हुए। नैसर्गिक। 

कितनी अजीब चीज़ है, किसी बात को याद करना। जैसे बैकवॉटर होता है। समुद्र में डूबने वाली नदी में रोज़ चढ़ता समुद्र के ज्वार का बैकवॉटर। वह नदी के प्रवाह के विपरीत नदी में चढ़ता है। नदी का जो पानी समुद्र में मिल जाता है, समुद्र में डूब जाता है और यूँ ख़ुद को खोकर समुद्र हो जाता है, वही पानी फिर से नदी में चढ़ता है। नदी में उतरता है। नदी के बहाव के विपरीत नदी में फैलता जाता है। कभी आपने देखा है, यह दृश्य। यह समुद्र किनारे का सामान्य दृश्य है। वहाँ यह रोज़ होता है। हमारे जीवन में भी यह रोज़ होता है। एक ज्वार के साथ, यादें चढ़ती हैं समय की धार के विपरीत। फिर ज्वार ख़त्म होने लगता है और यादें समय के प्रवाह के विपरीत उतरती हैं और फैलने लगती हैं। पता ही नहीं चलता है कि, कहाँ है बहते समय की धार और चढ़कर घुलती यादें। सब कुछ फैलने लगता है और यूँ समुद्र के किनारे एक झील सी बन जाती है। वह झील सा इकट्ठा पानी देर तक बना रहता है। हम ख़ुद में डूबे रहते हैं। पर फिर चढ़े हुए पानी को वापस जाना होता है। यादों को लौटना होता है। यादें लौटती हैं। पानी वापस समुद्र में उतरता है। दिन फिर से चल निकलता है। नदी वापस बहने लगती है। सारा पानी फिर से समुद्र में मिलने लगता है। दिन अपनी धार पकड़ लेता है। रुका हुआ समय बहने लगता है। 
उन्हें क्लर्क से फोटो के बारे में कहते हुए अच्छा लग रहा था। यह तस्वीर अक्सर वे और शालिनी ही देखते रहे हैं। वे दोनों ही इस पर बात करते रहे हैं। उन्हें नहीं याद कि यह तस्वीर उन्होंने किसी और को इस तरह दिखाई हो। पूरी संजीदगी के साथ। खुलकर। कभी कदास घर आने वाले लोगों में से कुछ ने पुराना एलबम पलटते हुए एक उड़ती नज़र से इस फोटो को देखा होगा। पर उन्हें नहीं याद कि किसी को उन्होंने इस फोटो की बात बताई हो। शायद ही किसी और को इस फोटो की बात पता हो। उन्होंने इस फोटो के बारे में आज पहली बार किसी बाहरी आदमी से बात की। हो सकता है, किसी और से भी की हो। पर उसे इस फोटो के बारे में इतना नहीं बताया होगा। बस इतना ही कहा होगा-यह जीवेन्द्र के जन्म के समय की फोटो है। ये जो मेरी गोद में है। यह बच्चा यह जीवेन्द्र है। ...या ऐसी ही कोई बात। यह क्लर्क पहला आदमी है जिसे वे इस फोटो के बारे में इतना कुछ बता रहे हैं। बहुत विस्तार के साथ बता रहे हैं। वे इस फोटो को बहुत सँभालकर रखते हैं। उस समय ब्लैक एण्ड व्हाइट फोटो ही खिंचती थी। कितनी अदभुत है, यह फोटो...।
 
क्लर्क बेपरवाह था। वह उनकी बात सुन भी रहा था और नहीं भी। वह कभी फ़ाइल गोदने लगता, तो कभी बीच में उनकी ओर देखकर मुस्कराता। उसकी मुस्कान बनावटी थी। वह उन्हें टालने के कुछ संकेत दे रहा था, जिस पर उनका ध्यान नहीं गया। वे फोटो और उसकी बातों में डूबे रहे। 

बहुत दिनों से उन्होंने ख़ुद यह तस्वीर नहीं देखी थी। जीवेन्द्र की मृत्यु के बाद सारी फोटुएँ और एलबम बक्से में बंद रहे। वे कुछ दिनों से उन फोटुओं को शालिनी के साथ शाम को चाय पीते हुए, पुराने दिनों की तरह देखना चाहते थे। वे कुछ दिनों से ख़ुद को तैयार कर रहे थे। वे ख़ुद को तैयार कर रहे थे कि, वे किस तरह इस फोटो का सामना करेंगे। जीवेन्द्र के मरने के बाद इस फोटो के मायने बदल गये है। उन्हें लगता है यह फोटो उन्हें कमज़ोर बना देगी। उनके भीतर जो चीज़ें इकट्ठा होकर, नया आकार ले रही हैं, वे फिर से इधर-उधर हो जायेंगी। उनका मन करेगा कि वे शालिनी के कंधों पर अपना सर रखकर थोड़ा देर रो लें। जैसा वे यदाकदा अवसाद और पीड़ा के समय करते आये हैं। पर वे ऐसा नहीं कर पायेंगे। उन्हें अब शालिनी का कंधा इतना कमज़ोर लगता है कि, अगर उन्होंने उस पर अपना सिर रख दिया तो वह कंधा टूट जायेगा। वे शालिनी के कारण ख़ुद को रोक रखते हैं। 

पुराने दिनों इस फोटो को देखकर वे और शालिनी लगभग एक सी बातें किया करते। शालिनी कहती- तुम तो जीवेन्द्र को इस तरह गोद लिये हो जैसे तुम्हें बच्चे पालने का एक्सपीरियेंस हो। वे कहते- देखो सबसे पहले माँ का रोल मैंने किया था। ...एक सी बातें। इस फोटो की बात कभी ख़त्म नहीं हुई। कभी रुकी ही नहीं। सोचा ही नहीं था कि एक दिन बात रुक जायेगी और फोटो बक्से में रख दी जायेगी। पूरे एक साल तक हम यह फोटो नहीं देखेंगे। इस फोटो पर कोई बात नहीं करेंगे। ...कभी सोचा ही नहीं था। 

फोटुओं का मतलब कितनी जल्दी बदल जाता है। उनका अर्थकभी स्थायी नहीं रहता। फोटुएँ बहुत निर्लज्जता के साथ बदल जाती हैं। अब इसी फोटो को लो। कहाँ तो शालिनी अक्सर इस फोटो को देखती रहती थी। वह कभी अघाती नहीं थी। गहराई से, टकटकी लगाकर वह इसे देखती रहती थी। इसे देखकर हँसती थी। इस पर चहकते हुए बात करती थी। और आज...। आज वह इसे देख भी नहीं सकती। उसे डर लगता है। वह टूटकर दु:खी हो जाती है। वह इस फोटो को देखकर अब नहीं हँस सकती। वह इस फोटो पर अब चहकते हुए बात नहीं कर सकती। और तो और वह इस फोटो का सामना तक नहीं कर सकती। वह इस फोटो को नहीं देख सकती। पूरे एक साल से यह फोटो लोहे के बक्से में अपने एलबम में दबी हुई पड़ी रही। जैसे इस फोटो के हाथों कोई पाप हो गया हो। शायद पाप ही हुआ है। इस फोटो ने एक पाप किया है। इस फोटो ने जीवेन्द्र की यादों को बनाये रखने का पाप किया है। वे यादें आज भी उस फोटो से निकलकर बाहर आ रही हैं। यह फोटो कभी जान ही नहीं पाई, कि ये यादें जिन्हें वह इकट्ठा कर रही है, एक दिन उसके नियंत्रण के बाहर हो जायेंगी। और तब सब फोटो का यह पाप जान जायेंगे। एक दिन ऐसा ही हुआ। यादें उसके नियंत्रण से बाहर हो गईं। शायद यह नहीं सोचा गया था, कि एक दिन सब कुछ खुल जायेगा। और यह फोटो एक अपराधी बन जायेगी। वे और शालिनी यह सब जान चुके हैं। जान चुके हैं कि इस फोटो ने पाप किया है। जिस दिन उन्होंने यह जाना, बस उसी दिन, ठीक उसी दिन उन्होंने उस फोटो को लोहे के बक्से में बंद कर दिया। यह उसके पाप का दण्ड है, कि वह उनकी नज़रों के सामने ना आये। क़ैद रहे उन यादों के साथ, जो उसने इकट्ठी की हैं। पर वे इस फोटो को धोखेबाज़ नहीं कहते हैं। उन्हें इस फोटो से प्यार है। वे इसे धोखेबाज़ नहीं कह सकते। 

उनके हाथ हल्के से काँप रहे थे। उनकी उँगलियों में दबी वह तस्वीर भी काँप रही थी। उस तस्वीर के ग्लेज़्ड पेपर पर पड़ रही टयूबलाईट की रोशनी भी काँप रही थी। पता नहीं वे उँगलियाँ क्यों काँप रही थीं? शायद बुढ़ापा या शायद कुछ और...। यूँ उँगलियाँ बेवजह नहीं काँपती। 

"ही वाज़ ए लवली चाइल्ड।"

उन्होंने धीरे से खिसखिसाते हुए कहा। इतना धीरे कि क्लर्क नहीं सुन सकता था। वास्तव में यह बात उन्होंने अपने आप से कही। 

उनका ध्यान "ही वाज़" पर नहीं गया। यह उन्हें अब सामान्य लगता है। यह कहते हुए उन्हें कोई हिच नहीं होता। पर कई बार जब वे अकेले होते हैं, तब वे ख़ुद से जीवेन्द्र के लिए नहीं कह पाते हैं- "ही वाज़"। पर दूसरों से कह पाते हैं। वास्तव में दूसरे के सामने ख़ुद से भी कह पाते हैं। जीवेन्द्र के मरने के बाद एक साल में डाइल्यूट हो गया है- "ही वाज़"। पर सिर्फ़ उनके लिए, शालिनी के लिए नहीं। उसके लिए ये शब्द आज भी जड़ हैं। उनका अर्थ समय नहीं बदल पाया है। वे इंतज़ार कर रहे हैं, कि चीज़ें शालिनी के लिए भी बदल जायें। पर अब इंतज़ार करते-करते वे थक गये हैं। वे मानते है कि कुछ चीज़ें छूट जायें। जैसे ट्रेन से फेंका डिस्पोज़ेबल गिलास होता है, जिसके लौटने की कोई उम्मीद नहीं। एक दिन ठीक इसी तरह फेंक दिया जायेगा- "ही वाज़"। शालिनी के लिए यह बहुत ज़रूरी है। पर कब? यह प्रश्न उन्हें थका डालता है। 
क्लर्क से बात करते समय वे ये नहीं जान पाते हैं, कि कौन सी बात वे ख़ुद से कह रहे हैं और कौन सी क्लर्क से। ज़्यादातर वे ख़ुद से ही कहते हैं। ख़ुद से कहना अजीब है। लोग प्रश्न खड़ा करते हैं। भला कोई ख़ुद से बात करता है। जब हम कहते हैं, तो माना जाता है कि हम किसी से कह रहे हैं। यह नहीं माना जाता, कि हम जो कह रहे हैं वह हम ख़ुद से कह रहे हैं। अजीब सी दादागिरी है। अगर हम ख़ुद से कहें तो भी कहा जाता है, कि हम किसी और से कह रहे हैं। हमारी हमसे ही कही बात, किसी और से कही बात बताई जाती है। उस बात पर से हमारा हक़ छीन लिया जाता है। पर कई बार हम भूल जाते हैं, कि ऐसा है। कि यही माना जाता है। हम जानबूझकर भूल जाते हैं। हम भूलने का नाटक करते हैं। और ख़ुद से बात करने लगते हैं। हमें ख़याल ही नहीं आता कि वह बात हमारी बात नहीं मानी जा रही है। ...वे ख़ुद से बात करते समय, क्लर्क तक अपनी बात जाने देते हैं। उनके लिए इस बात का मतलब नहीं है, कि वे किससे बात कर रहे हैं। उन्हें ख़ुद से कुछ कहना है। क्लर्क का वहाँ होना उनके लिए बेमानी सा है। 

वे क्षण भर को चुपचाप क्लर्क की टेबल के पास खड़े रहे। क्लर्क अपने काम में मगन था। फिर वे चुपचाप टूटे हत्थे वाली कुर्सी में बैठ गये। वे दोनों फोटो उनके हाथ में थीं। उन्हें क्लर्क का यूँ अनरियेक्टिव होना अजीब सा लगा। जिस फोटो को लेकर वे और शालिनी घण्टों बात करते हैं, जो उनके लिए बहुत अहम हो गई है। उस फोटो पर कोई इतना अनरियेक्टिव कैसे हो सकता है? 

फिर उन्हें यह भी महसूस हुआ, कि वे कुछ ज़्यादा ही बोलते हैं। ज़्यादा ही चबड़-चबड़ करते हैं। उन्होंने क्लर्क को परेशान कर डाला। पूरे समय ख़ुद ही बक-बक करते रहे। क्या ज़रूरत थी, पूरी रामकहानी कहने की? उन्हें क्लर्क पर थोड़ा तरस आया। 

वे बैठे रहे। क्लर्क ने अपनी फ़ाइलों से अपनी आँख ऊपर करते हुए उन्हें उड़ती नज़र से देखा। फिर बेपरवाही से कहने लगा-

"बाबा। फोटो नहीं चलेगी। कोई डाक्यूमेण्ट लाना पड़ेगा।"

उनका भ्रम क्षण भर को टूटा। फोटुओं को सबसे बेहतर मानने का भ्रम। पर दूसरे ही पल वे सँभल गये। वे जानते हैं इन फोटुओं से बेहतर कुछ नहीं। उन्हें यक़ीन है, इनसे बेहतर कुछ नहीं। उन्होंने पल भर सोचा। बस वे क्लर्क को समझा नहीं पाये हैं। इतनी सी तो बात है। बस समझाना है, कि ये फोटुएँ सबसे बेहतर कैसे हैं? उन्हें उस क्लर्क पर थोड़ा ग़ुस्सा भी आया। उनके मन में आया कि कह दें- ये फोटुएँ बेहतर हैं। बेहतर हैं उन सब चीज़ों से जिन्हें तुम रोज़ देखते हो। क्योंकि तुम्हारे देखने में छलावा है। तुम्हारा देखना डरी हुई आँख का देखना है। उस आँख का देखना है, जो तुम्हारे मन के पैरों तले नाक रगड़ती है। उस आँख का देखना है, जो हर बार देखने से पहले तुम्हारे मन से पूछती है, कि यह देखूँ या नहीं। और अगर देखूँ तो इस दृश्य से क्या-क्या काट दूँ। क्या-क्या छुपा दूँ। छि: कितने गंदे तरीक़े से देखती है, आँख...। आँख का देखना भी कोई देखना है। देखना है, तो इन फोटुओं को देखो। ये उस कैमरे से खींची गई हैं, जिसका कोई मन नहीं है। जिस पर किसी के मन का बस नहीं चलता। जो वही दिखाता है, जो है। और इन फोटुओं के बाद भी तुम कहते हो कि, कोई डाक्युमेण्ट लाओ। ...पागल हो गये हो क्या? तुम्हें शर्म नहीं आती। ...पर वे चुप रहे। उन्हें लगा मामला कहीं बिगड़ ना जाये। 

"डाक्यूमेण्ट वाला प्राब्लम तो आपको पता है।"

"फिर तो बड़ा मुश्किल है।"

"अच्छा तो आप ये वाली फोटो देख लो।"

"अरे बाबा...।"

"आप देख तो लो। मुझे यक़ीन है कि आपके बड़े अधिकारी इस फोटो पर सहमत हो जायेंगे। फिर किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।"

"देखिये ये काम करते हुए मुझे दस साल हो गये हैं। मैं जानता हूँ ऐसे नहीं हो सकता।"

"अच्छा आप देख तो लो...।"

क्लर्क ने उनकी ओर हिक़ारत भरी नज़र से देखा। पर इससे उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ा। वे उठे और क्लर्क की टेबल के सामने खड़े हो गये। उन्होंने दूसरी तस्वीर उस क्लर्क के सामने रख दी। क्लर्क उस फोटो को देखने लगा। उन्हें अच्छा लगा कि वह अबकी बार वह फोटो को देख रहा है। उन्हें लगा बात बन जायेगी। वे क्लर्क को बताने लगे। 

"ये जीवेन्द्र की आख़री फोटो है। देखो ये मैं हूँ। मैं नहीं चाहता था कि शालिनी उसके क्रेमनेशन में जाये। हमारे यहाँ औरतें नहीं जाती हैं। पर वह ज़िद कर के गई थी। स्ट्रांग लेडी...। देखो ये वही है। जीवेन्द्र की चिता के पीछे खड़ी है...।"

उन्होंने बहुत सपाट ढंग से कहा। क्लर्क उनकी ओर देखने लगा। वे इस फोटो को नहीं लाना चाहते थे। वे पहली वाली ब्लैक एण्ड व्हाइट फोटो भी नहीं लाना चाहते थे। पहले वे कुछ दूसरी फोटुएँ ला रहे थे। उन्होंने कुछ दूसरी फोटुएँ लोहे के बक्से से निकाल भी ली थीं। वे उन्हीं फोटुओं को लाने वाले थे। उनमें से एक फोटो इण्डियन मिलिट्री एकेडमी में खींची गई थी। उस रोज़ एकेडमी में जीवेंद्र की पासिंग आउट परेड थी। वह अपनी मिलिट्री वाली ड्रेस में था। उसने अपनी ड्रेस में वे तमगे लगा रखे थे, जो उसे कुछ देर पहले मिले थे। उसकी शर्ट की बकल पर एक तमगा शालिनी ने भी लगाया था। वह मिलिट्री का अफ़सर बन चुका था। फर उन तीनों ने वह फोटो खिंचवाई थी। वे, जीवेंद्र और बीच में शालिनी। वह फोटो बड़ी सपाट थी। उस फोटो में स्पष्ट था, कि यह जीवेन्द्र है और ये वे। पूरे बाइस साल का जीवेन्द्र। उनका पूरा परिवार। स्पष्ट सबूत। ये वे हैं, जीवेन्द्र के पिता। कितना स्पष्ट। ...ऐसी कई फोटुएँ हैं उनके पास। बिल्कुल स्पष्ट। पर वे उन फोटुओं की जगह ये फोटुएँ ले आये। फोटुओं को टटोलते वक़्त वे इन फोटुओं पर रुक गये थे। फिर उन्हें ही उठा लिया। वे जानते हैं ये फोटुएँ स्पष्ट नहीं हैं। एक सबूत के तौर पर स्पष्ट नहीं हैं। पहली फोटो में गोद में एक बच्चा है। सामने वाला पूछ सकता है, कि वह बच्चा जीवेन्द्र कैसे है। वह कोई और बच्चा भी तो हो सकता है। दूसरी फोटो में जीवेन्द्र की चिता है। उसमें जीवेन्द्र की शकल नहीं दिख रही है। दोनों ही फोटुओं में जीवेन्द्र छुपा हुआ है। फिर वे कैसे कह सकते हैं, कि यह रहा जीवेन्द्र और ये वे। कितनी अस्पष्टता, कि वे कह भी नहीं सकते कि अब कोई गुंजाइश नहीं...यही सबूत है, कि वे ही जीवेन्द्र के पिता हैं। 

पर फिर भी वे उन्ही फोटुओं को ले आये। वे दूसरी फोटुएँ ले आये। उनका मन हुआ कि वे इन्हीं फोटुओं को ले चलें। उनके लिए फोटो का एक सबूत होना बेमानी हो गया। फोटो का स्पष्ट होना बेमतलब की बात हो गया। वे बस इन्हीं फोटुओं को ले जाना चाहते थे। ये फोटुएँ उनकी पसंदीदा फोटुएँ जो हैं। फिर उन्होंने अर्से से इन फोटुओं को नहीं देखा था। इन फोटुओं पर किसी से बात नहीं की थी। उनका मन हो रहा था, कि वे इन फोटुओं को किसी को दिखायें। किसी से इन फोटुओं पर बात करें। अगर जीवेंद्र मरा नहीं होता और शालिनी इस तरह दु:खी नहीं होती कि पूरा समय चुप बनी रहे, तो वे शालिनी से ही बात करते। हमेशा की तरह शाम की चाय के साथ इन फोटुएँ के बारे में बतियाते। पर यह संभव नहीं है। लेकिन आज उन्हें ऑफ़िस के क्लर्क से इन पर बात करने का बहाना मिल गया। इन फोटुओं के बहाने, इन फोटुओं पर बात। उनके भीतर कुछ कुलबुला रहा था, जैसे पतीले में खौलता पानी और उसकी भाप से ढक्कन पर जमा लटकती पानी की बूँदें...। गर्म और गीला, दोनों एक साथ। उनका ख़ुद पर नियंत्रण नहीं रहा। उन्हें वे फोटुएँ ही ले जानी पड़ीं। 

इन फोटुओं को लाते वक़्त उनके मन में एक बात और थी। उन्हें लगता इन फोटुओं को देखकर क्लर्क पसीज जायेगा। क्लर्क को उन पर दया आ जायेगी। वह उनकी पीड़ा महसूस कर पायेगा। उसका मन ख़ुद उससे कह देगा, कि बहुत हो गया इस दु:खी आत्मा को भटकाते। फिर वह उनसे जीवेन्द्र का पिता होने का सबूत नहीं माँगेगा। वह माँग ही नहीं पायेगा। और यूँ बात आसान हो जायेगी। उनका काम हो जायेगा। रास्ता सुगम हो जायेगा। पर जब-जब उन्हें यह ख़्याल आता उन्हें ख़ुद पर शर्म आती। वे ग्लानि से भर जाते। यूँ एक चोर उनके भीतर दुबका बैठा था। उन्हें लगता वे अपना रास्ता निकालने के लिए इन फोटुओं का सहारा ले रहे हैं। उन्होंने कभी इन फोटुओं को अपना रास्ता साफ़ करने वाली चीज़ के रूप में नहीं देखा था। उन्हें इन फोटुओं से लगाव था। उन्हें इन फोटुओं से प्यार था। उन्होंने इन फोटुओं को लाभ वाली किसी चीज़ की तरह नहीं देखा था। उन्हें लाभ वाला गणित सूझा ही नहीं। और जब एक क्षण को यह ख़याल आया कि इन फोटुओं के सहारे उनका रास्ता सुगम हो जायेगा, तो वे ख़ुद को जैसे बरदाश्त नहीं कर पा रहे हों। कितना गंदा ख़याल है। जब भी वे ऐसा सोचते तो ख़ुद को झटकारने का बेतुका सा प्रयास करते, जैसे कीचड़ से सनी भैंस अपने शरीर को झटकारती है, पर हर बार झटके के साथ उड़ने वाले कीट पतंगे फिर से उसके शरीर पर आकर बैठ जाते हैं। जब जीवेन्द्र मारा गया था, उन्हें यक़ीन नहीं हुआ था। उन्होंने जीवेन्द्र को हटाकर नहीं सोचा था। उन्हें नहीं सूझा कि जीवेन्द्र को हटाकर भी सोचा जा सकता है। तभी उन्हें लगा था, जैसे किसी ने उनसे भद्दा मज़ाक किया हो। फिर जब लगा कि मज़ाक नहीं है। तब वे देर तक यक़ीन करते रहे कि बात ग़लत है। वह सुबह थी। क़रीब छह बज रहे थे। जीवेन्द्र की ब्रिगेड के ब्रिगेडियर का फोन आया था। वह उन्हीं का फोन था। उन्होंने बिना कुछ इधर-उधर की बात किये स्पष्ट बताया था कि सेकेण्ड लैफिटनैण्ट जीवेन्द्र माथुर एक एम्बुश में मारा गया। उन्होंने कुछ और जगह से फोन पर इस बात को कन्फर्म किया। जीवेन्द्र के एक साथी का भी फोन आया। फिर टी. वी. पर न्यूज़ में भी आया...। शालिनी सो रही थी। वे देर तक शालिनी से कह नहीं पाये कि जीवेन्द्र अब नहीं है। 

उन्होंने वह फोटो अपने हाथ में उठा ली। 

"ये जो शालिनी के पास खड़ा है। ये देखो...। ये सांवला सा लड़का। यह जीवेन्द्र का दोस्त है। एस. पिल्लई। आजकल लैफिटनेण्ट हो गया है। जीवेन्द्र अगर ज़िंदा होता तो वह भी लैफिटनेण्ट होता। ..लड़ाई में जाने से पहले जीवेन्द्र वोदका की एक बोतल लाया था। आप जानते हो वोदका। एक रूसी शराब होती है। उसने कहा था, जब हम जंग जीत लेंगे तब वह बोतल खोलेंगे। हम जंग जीत चुके हैं। मेरे पास आज भी वह बोतल है। वह बंद है। मैंने उसे नहीं खोला। मैंने उसे सँभाल कर रख लिया है।"

उनकी उँगलियाँ फिर से काँप रहीं थीं। उन्होंने वह फोटो क्लर्क की टेबल पर रख दी। 

उन्हें वह दिन याद आया जब जीवेन्द्र को मरणोपरांत सम्मान दिया गया था। वे और शालिनी दोनों साथ-साथ थे। मिलिट्री का बैण्ड बज रहा था। शालिनी रो रही थी। वे शालिनी को समझा रहे थे। कुछ लोग उनसे हाथ मिला रहे थे। जीवेन्द्र उनकी एक मात्र संतान थी। उन्हें इच्छा हो रही थी, कि वे लोगों को जीवेन्द्र के बारे में बतायें। पर हर मौक़ा जाता रहा। जब लोगों ने पूछा, वे चुप रहे। 

वे क्लर्क से कहने लगे-

"पता नहीं क्यूँ सब अविश्वसनीय सा लगता है। जैसे कुछ भी नहीं हुआ हो। बचपन में जब जीवेन्द्र छोटा था, मैं उससे बहुत कम बात कर पाता था। मेरी नौकरी कठिन थी। मैं अक्सर देर रात घर लौटता। अक्सर जब मैं रात को घर लौटता, वह सो चुका होता था। सुबह-सुबह वह जल्दी स्कूल चला जाता था। मैं थका होने के कारण अक्सर सुबह जल्दी नहीं उठ पाता था। मैं उससे बहुत कम बात कर पाता था। उन दिनों जीवेन्द्र तीन-चार साल का था। रात को सोने से पहले मैं थोड़ी देर बिस्तर पर लेटे-लेटे कोई नॉवेल पढ़ता। तब यदा-कदा जीवेन्द्र नींद में ऊँघता सा अपने कमरे से दबे पाँव चलकर मेरे कमरे के दरवाज़े तक आता और धीरे से पर्दे के किनारे से झाँककर मुझे देखता था। मैं उसे अपने पास बुला लेता। फिर वह नॉवेल के पन्ने पलटता और उसके बारे में मुझसे पूछता। ...आज भी एक भ्रम सा होता है। जैसे घर के किसी पर्दे के पीछे से वह झाँककर मुझे देख रहा है। कितनी पुरानी है यह बात। पर लगता है जैसे वो अभी आ जायेगा। जैसे वह आ सकता है...।"

कहते-कहते वे अचानक रुक गये। उन्होंने अपना चेहरा दूसरी तरफ़ घुमा लिया। दूसरी तरफ़ एक कोरी सफ़ेद दीवार थी। वहाँ कुछ भी नहीं था। 

वे अपने आप को समझाते रहते हैं। वे ख़ुद को समझाते हैं कि कुछ भी तो नहीं हुआ। वे कोशिश करते हैं कि उनका चेहरा सामान्य ही दिखे। पर कुछ है जिस पर वे नियंत्रण नहीं कर पाते हैं। जब मुट्ठी भींचते हैं तो वह पिचड़कर उँगलियों को सानता हुआ, उँगलियों के बीच से बाहर निकलने लगता है। उनके चेहरे पर कुछ रेखायें उभर आती है। वे रेखायें उनका कहना नहीं मानती है। आँखों में उतरने वाला पानी सबकुछ धुँधला देता है। यह सब वे दूसरों को नहीं दिखाना चाहते हैं। यह सब उन्होंने शालिनी से भी छुपाया है। पर वह सब छुप नहीं पाता है। दूसरों के सामने उन्हें खोल देता है। और तब एक बात छूट जाती है। जीवेन्द्र की बात। जिसे वे बता रहे थे। जिसे वे बता नहीं सकते। 

फोटो की बात। जिसे वे कह रहे थे। अधूरी छूट जाती है। एक लाइन है जिसके पार वे नहीं जा पाते हैं। एक लाइन जहाँ फोटो की बात ख़त्म होती है और उनकी अपनी बात शुरू होती है। जिसे वे पूरे एक साल बाद भी किसी से कह नहीं पाते हैं। शालिनी को तो कभी कह ही नहीं सकते। बाक़ी लोग अजनबी है। उनसे क्या कहना? इस क्लर्क से जाने वे कैसे कह गये। वे ख़ुद को रोक नहीं पाये। शरीर के साथ-साथ मन में भी एक कमज़ोरी आ गई है। फिर यह फोटो का जादू है। फोटो कहलवा देती है। उन्हें कहना पड़ता है। उन्होंने कह दिया। फोटो के कारण वे रुक नहीं पाये। 

कई बार उनका मन करता है, वे अपने को बिखर जाने दें। सिर्फ़ एक बार। फिर बहता पानी ख़ुद ढाल ढूँढ लेगा। चीज़ें फिर से उन्हीं जगहों पर जमने लगेंगी, जहाँ से वे हटी हैं। पर वे ख़ुद को ढाढ़स बँधायें रहते हैं। अभी नहीं। यह ठीक नहीं है। 

उनका चेहरा दूसरी ओर था। क्लर्क उनका चेहरा नहीं देख सकता था। पानी से भरी उनकी आँखों ने सामने के दृश्य को धुँधला बना दिया था। 

"बाबा...। परेशान मत हो।"

क्लर्क ने धीरे से कहा। 

वे उठ खड़े हुए। उन्होंने अपने आँसू पोंछे। वे जाने लगे। जाते-जाते उन्हें क्लर्क की बात सुनाई दी-

"बाबा... इस काम में फोटो की कोई वैल्यू नहीं है। कोई काग़ज़-पत्तर हों तो ले आना...।"

वे चले गये। क्लर्क अपने काम में लग गया। पता नहीं वे भूल गये या छोड़ गये... वे दोनों फोटो क्लर्क की टेबल पर कुछ दिनों तक पड़ी रहीं। 

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