फिर याद तुम्हारी आयी है

01-09-2020

फिर याद तुम्हारी आयी है

डॉ. आर.बी. भण्डारकर (अंक: 163, सितम्बर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

"म.प्र. में टिड्डियों का आक्रमण!" आज यह समाचार पढ़ा तो मन अतीत में चला गया। ...क्या क्या झेलता है किसान। प्राकृतिक आपदाएँ वह झेले तो मानव कृत व्यवधान भी वही सहे।...

ख़ैर! साहित्य में अतीत की यादें ही संस्मरण कही जाती हैं।

आज कोरोना के इस संकट काल में इधर गाँव फिर चर्चा में हैं। जो श्रम जीवी लोग काम मिलने के आकर्षण से या शहरी चमक-दमक के आकर्षण से गाँव से शहर चले गए थे, कोरोना के इस संकट काल में वे फिर वापस गाँव लौट रहे हैं। अब शहर उन्हें "काट खाने दौड़ने" जैसा लगने लगा है।

हूँ।... इस घटना से एक यह बात अवश्य सिद्ध हुई है कि आम आदमी के लिए गाँव का सौंदर्य ही चिर सौंदर्य है उसके लिए शहरों का सौंदर्य तो अंततः "चार दिना की चाँदनी फेर अँधेरी रात" ही होता है।

बात उस समय की है जब गाँवों में खेती के लिए सिंचाई के साधन न के बराबर थे। खेतों पर कुँए तो होते थे, पर सम्भवतः पेय जल की उपलब्धता बनी रहने के लिए ही होते थे। गाँव में, खेतों पर तालाब भी होते थे पर मुझे लगता है उनका उद्देश्य पशुओं, जंगली जानवरों को पेय जल बनाये रखना ही रहा होगा। एक बात यह भी कि कुओं का जल स्तर सही बना रहे, इस उद्देश्य से भी उस समय तालाब बनाये जाते रहे होंगे।

उस ज़माने में आधुनिक कृषि उपकरण नहीं थे इसलिए खेती पारम्परिक कृषि उपकरणों द्वारा "हल-बैल" से की जाती थी।

आज जब टीवी पर बड़े-बड़े कृषि फ़ॉर्म देखता, सुनता हूँ तब लगता है कि मेरे गाँव में उस समय अधिकतर किसान "सीमांत कृषक" श्रेणी के ही थे; हाँ, किसी-किसी को अधिक से अधिक "मध्यम वर्गीय कृषक" कहा जा सकता था। दो फसलें होती थीं– खरीफ और रबी। कहीं-कहीं, कभी-कभी, कोई-कोई तीसरी फसल भी लेता था– जायद की फसल। इसमें प्रायः तरबूज, खरबूजा, खीरा, ककड़ी, तरह-तरह की कचरियाँ और ग्रीष्मकालीन सब्ज़ियों की खेती की जाती थी। स्वाभाविक है जायद की फसल नदियों और तालाबों के किनारे वाले खेतों में की जाती थी। मेरे गाँव के कुछेक कृषक कछवारी भी करते थे। वे निज कुँए से एक पीपे (कनस्तर) के माध्यम से पानी निकाल कर अपनी कछवारी (सब्ज़ियों) की सिंचाई करते थे। स्मरण आ रहा है कि मेरे गाँव के एक कक्का अवश्य ही बैलों के माध्यम से परोहे से अपनी कछवारी की सिंचाई करते थे।

उस समय हमारे यहाँ नदी के किनारे के कछार को छोड़कर कहीं भी गेंहूँ की पैदावार नहीं होती थी। खरीफ में ज्वार, बाजरा, अरहर, मूँग, मोंठ, उड़द, रोंसा, तिल, डढ़ारी आदि और रबी में चना, बेझर(जौ) सिंहुँआ, राई आदि फसलें होती थीं। प्रायः सभी के यहाँ फसल उत्पादन इतना होता था कि आत्म निर्भरता थी; ऐसी स्थिति कि-"मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय।"

सभी गाँव वासियों की तरह मेरे दद्दा भी दो फसलें करते थे। रबी की ऋतु में मुख्य रूप से राई, सिंहुँआ, चना और बेझर ही उपजाते थे। मेरे खेतों में बेझर छोड़कर उपरिवर्णित अन्य सभी खाद्यान्न ख़ूब उपजते थे। मेरे दद्दा को गुरी (बेझर को कूट-कूट कर, छान-छून कर तैयार किया गया अनाज) की फुलिकिया (रोटी) और उड़द की दाल बहुत पसंद थी। समस्या यह कि हमारे खेतों में रबी की फसल में खाद्यान्न में केवल चना उपजता था, बेझर होती नहीं थी। किसान के पास ऐसी समस्याओं का तोड़ था। ...बीहड़ इलाक़ा होने के कारण हर खेत में स्वाभाविक रूप से एक गड़ेरा (खेत का निचला भाग, जहाँ बरसात में पानी भर जाता है) बन जाता है। बरसात के दिनों में दूर से बहकर आने वाला पानी अपने साथ तरह-तरह की मिट्टी भी लाता है जो गड़ेरे में जमा हो जाती है; दूसरे यह कि काफ़ी दिनों तक पानी भरा रहने से वह मिट्टी अधिक उपजाऊ हो जाती है; गड़ेरे में अपेक्षाकृत आद(आद्रता) भी अधिक रहती है इसलिए इसमें बेझर की फसल अच्छी हो जाती है। इसलिए दद्दा हर साल एक खेत के गड़ेरे में बेझर बोया करते थे; इसकी उपज से उनके लिए साल भर के लिए गुरी का इंतज़ाम हो जाता था।

मेरे दद्दा अनपढ़ थे पर उन्हें दुनियादारी की सामान्यतः अच्छी समझ थी। (उनके लिए मैंने अपने गाँव के कई लोगों के मुँह से सुना है- "वे पढ़े नहीं कढ़े थे।") मुझे उनकी सरलता, ईमानदारी और काम के प्रति निष्ठा; सदैव आकर्षित करती रही है। सम्भवतः वे हम भाई-बहिनों में भी यही गुण देखना चाहते रहे हों। कोशिश करते थे करके सिखाने की। मैं गर्व के साथ कह सकता हूँ कि मुझमें काम के प्रति निष्ठा और समर्पण का भाव उनसे ही आया है। अलबत्ता यह अवश्य कि एक बार मैं उनकी परीक्षा में फ़ेल हो गया था।

दद्दा को किसी रिश्तेदारी में जाना था। वे हरदम अपना काम स्वयं करते थे पर बाहर जाना था सो उन्होंने गड़ेरे में बोई गई बेझर की रखवाली का ज़िम्मा मुझे सौंपा। यह भी बताया कि बेझर में दाने आ गए हैं इसलिए सुबह-सुबह रखवाली पर जाना बहुत ज़रूरी है।

मैं चूक गया; सुबह-सुबह रखवाली पर नहीं जा सका; लगभग पाँच घण्टे देर से 10 बजे गया। देखा कि पक्षी लगभग सारा दाना चुग गए हैं। बेझर के ठूँठ खड़े दिख रहे हैं। मुझे बहुत पश्चाताप हुआ लेकिन "अब पछताए होत का, जब चिड़िया चुग गई खेत।" घर आकर मैंने सारी स्थिति अम्मा को बताई। माँ तो माँ होती है, उन पर दुहरा दुख आ पड़ा– एक तो अनाज की हानि, दूसरा अब बेटे पर डाँट पड़ेगी।

अम्मा बेचारी अनाज के हो चुके नुक़सान का तो कुछ कर नहीं सकती थी, बेटे के बचाव की उन्होंने पूरी तैयारी कर ली। शाम को दद्दा वापस आ गए पर इस बारे में उनको किसी ने कुछ नहीं बताया। सब कुछ यथावत रहा।

अपनी आदत और दिनचर्या के अनुसार अगली सुबह दद्दा उस खेत पर गए। अम्मा को मालूम था, 9.30 के आसपास लौटेंगे। मैं घर पर ही था। अम्मा सारे काम छोड़कर मेरे ही आसपास।... लग तो ऐसा रहा था कि वे अपने नित्यप्रति के घरेलू कार्य कर रही हैं और सच में कर भी रही थीं। पर वे मेरी ढाल अधिक बनी हुई थीं; इधर दद्दा मुझे डाँटना शुरू करेंगे उधर वे बचाव के तर्क प्रस्तुत करने लगेगीं।

पूर्वानुमानित समय के लगभग ही दद्दा आये, बैठे,अम्मा ने गुड़-पानी दिया और सहमी-सहमी प्रतीक्षा करने लगीं मेरी डाँट पड़ने की। दद्दा ने अम्मा को बताया कि पक्षी सारी बेझर चुन गए; चार मन से कम न होती लेकिन अब चार पसेरी भी निकल आये तो भी बड़ी बात होगी; लगता है बबुआ कल गया नहीं खेत पर।

अम्मा ने दद्दा के कथन का पहला अंश पकड़ा, बोलीं-  "इत्ते चिरेरू आय कहाँ से जात हैं; एकई ही दिना में इत्ती बेझर चुन गए?"

दद्दा बोले, "हजारों चिरेरू हैं हार में; सिब जने अपँये अपँये खेतन सें बिड़ारत (भगाते) रहात हैं, अपओं खेत सूनों पर गओ सो इतै, उतै से आयकें भर गए सब बई में।" थोड़ा रुककर बोले, "हाँ, बबुआ काय नइ गओ तौ खेत पै? का तुमने रोक लओ तौ लाड़ के मारैं?"

अम्मा ने सफ़ाई दी, "गओ हतो। अकेलें नैक देर सें गओ तौ।... नेक देर तक सोइ गओ हतौ बिचारौ।"

"कित्ते खनें गओ तौ?(कितने समय गया था?)"

"कलेऊ की बरियाँ। (लगभग साढ़े नौ बजे के समय)"

दद्दा मेरी तरफ मुख़ातिब होते हैं, "बेटा डार कौ चूकौ बंदरा, मौका कौ चूकौ किसान" बड़े खनें उबरत है। समझे। (अभिप्राय - आषाढ़/समय का चूका किसान और डाल का चूका बंदर सदा पछताते हैं।)

माँ अवाक! इन्होंने तो डाँटा ही नहीं बबुआ को !

मैंने गर्दन नीची कर ली।

अपने पुत्र-कलत्र के लिए कठिन से कठिन दुख झेल लेना, बड़ी से बड़ी हानि में भी उफ्फ तक न करना, बेटे-बेटियों का अभी का लालन-पालन, जी-तोड़ मेहनत कर उनके भविष्य की सुरक्षा सुनिश्चित करना, पुत्र-कलत्र की अक्षम्य ग़लतियों को सहर्ष क्षमा कर देना... यही तो है पिता!

और सचमुच ऐसे ही तो थे मेरे दद्दा। उनकी स्मृति को नमन।...

अब सोने का समय हो चला है, सोता हूँ।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा
कविता
चिन्तन
कहानी
लघुकथा
कविता - क्षणिका
बच्चों के मुख से
डायरी
कार्यक्रम रिपोर्ट
शोध निबन्ध
बाल साहित्य कविता
स्मृति लेख
किशोर साहित्य कहानी
सांस्कृतिक कथा
विडियो
ऑडियो