हे प्रिय! कभी उस आकाश-सी फैलाओ अपनी बाँहें, जो धरती की उन्मुक्त गति को निरंतर देता है प्रिय आधार जिससे धरती पर बरसते हैं बादल आती-जाती हैं ऋतुएँ ग्रीष्म, वर्षा, शरद शिशिर, हेमंत और बसंत . . .