पेंसिल 

01-07-2021

पेंसिल 

अरुण कुमार प्रसाद (अंक: 184, जुलाई प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

काग़ज़ कोरा था, कुँआरा। 
श्वेत धवल। 
पेंसिल काली थी, नुकीली और काली। 
उकेर गयी कविता उसके अंग में।  
भर गयी भाव, भंगिमा और जीवन 
उसके अंक में। 
 
व्यथाओं को जीवंत किया इतना कि
छलछला आए आँसू आँखों में 
संवेदना के। 
ख़ुशियों को बाँटने का संकल्प 
बाँटते हुए 
अपना तन घिस कर करती रही छोटा,
कहती रही बाँटने हर चेतना से।  
 
काष्ठ-काया से घिरी 
कठोर ग्रेफ़ाइट तो हूँ पर,
लिख देती हूँ तेरे सारे कोमल गढ़न। 
तेरे सारे हास, रुदन।  
 
प्रिय है काग़ज़ हमें,
काग़ज़ को हम। 
आँकना ऐ मनुष्य,
हमारी चाहत को 
अपने जैसा नहीं कम। 
 
दु:ख लिखते नोंक हो जाती है 
अचंभित ढंग से भोथरी। 
सहमी और खुरदुरी। 
उस युवक के फिसले सपने 
और 
इस युवती के गहरे सपने का राज़ 
छिपा जाती हूँ मैं। 
जो मर जाते हैं बग़ैर जीये
उस मुर्दा अभिलाषाओं पर 
कफ़न बिछा जाती हूँ मैं। 
ख़ुद को कोसूँ कि हँसूँ!

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