पीड़ा को विश्व का साम्राज्य दो

23-05-2017

पीड़ा को विश्व का साम्राज्य दो

डॉ. रमा द्विवेदी

जाओ हवाओ देश प्रिय के, 
विरह के गीत गाओ तुम,
जाओ घटाओ जाओ जाओ, 
विरहाग्नि न भड़काओ तुम।
 
इस विरह के ताप से 
जर-जर के मैं ठठरी भई,
श्वास यूँ तो चल रही पर 
श्वास अनगिन चुक गई।
 
झर रहे हैं अश्रु आँखों से 
उन्हें बतलाओ तुम॥
 
दिन-रात में अन्तर नहीं 
इक से मुझे दोऊ लगे,
दिन में अँधेरी रात है 
और रात में तारे गिने।
 
मेघों ने पी चाँदनी ली, 
चाँद को बतलाओ तुम॥
 
गीली-सुलगती लकड़ी सी 
यह रात भी जल गई,
रात से सुबह हुई फिर 
शाम में वो ढल गई। 
 
जल रहा है तन-बदन प्रिय को 
जरा बतलाओ तुम॥
 
इस विरह की अग्नि में 
देखो दिवाकर जल गया,
चांद झुलसा, श्वेत बादल
आज काला पड़ गया।
 
कर रहा पीऊ-पीऊ पपीहा 
स्वाति-घन बरसाओ तुम॥
 
इस विरह की पीड़ा को 
तुम विश्व का साम्राज्य दो,
सब जुड़े बस दर्द से 
तब मानव का कल्याण हो।
 
साथ सब रोएँ-हँसे सबको 
जरा समझाओ तुम॥

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