पटाक्षेप भाग - 1

03-05-2012

पटाक्षेप भाग - 1

नीरजा द्विवेदी

भाग - 1

“नहीं। आन्टी नहीं; अंकल से कहिये ज्ञानेन्द्र को क्षमा कर दें। यदि उनकी नौकरी चली गई तो उनके परिवार का क्या होगा? वृद्ध माता-पिता और मृत भाई के छोटे-छोटे बच्चों के पालन-पोषण का भार भी उन्हीं पर है” - मल्लिका ने अपनी डबडबाई हुई बड़ी-बड़ी आँखों से मृणालिनी की ओर देखते हुए गम्भीरतापूर्वक कहा।

मृणालिनी अवाक हो मल्लिका की ओर देखती रह गई - पाँच फुट दो इंच लम्बी, इकहरे बदन की, गौर वर्णीय, लगभग २२-२३ वर्षीय भोली सी लड़की, माथे पर बिखरी उलझी लटें, रोते-रोते लाल हुई आँखें, गुलाबी पोलका डौट का कुर्ता और काली सलवार पहने सामने खड़ी थी। काले रंग का दुपट्टा उसके गले में पड़ा था, जिसके एक छोर से उसकी पतली-पतली उँगलियाँ लपेटने-खोलने का खिलवाड़ कर रही थीं। “आन्टी, मैं अपने कारण मातृ-पितृ विहीन बच्चों को निराश्रय नहीं करना चाहती” - मृणालिनी की आश्चर्य चकित मुखाकृति को देखकर मल्लिका ने पुनः कहा और नेत्र झुका लिये।

मल्लिका के इस अप्रत्याशित उत्तर पर मृणालिनी ने आवेश में कहा- “ऐसे दहेज लोलुप व्यक्तियों को सबक सिखाना ही चाहिए।“

मृणालिनी की सहानुभूति पाकर मल्लिका के हृदय का बाँध टूट गया। वह उसके गले लगकर फूट-फूट कर रोने लगी। मृणालिनी का हृदय कचोटने लगा। प्यार से मल्लिका को बाहों में समेट कर बोली- “यदि तुम ‘चाहो’ और ‘हाँ’ करो तो हम लोग तुम्हारा विवाह साम-दाम-दण्ड-भेद किसी भी प्रकार ज्ञानेन्द्र से ही करने का प्रयत्न करें। उसके घरवालों को विवाह के लिये ..........”

“नहीं, कभी नहीं” ....... शीघ्रता से मल्लिका बात काटकर बीच में ही बोल पड़ी। अपने को संयत करने का प्रयास करके दुपट्टे से आँखों को पोंछते हुए उसने मृणालिनी से कहा -

“आन्टी आप मेरी पीड़ा को समझ नहीं पायेंगी। मुझे दुःख इस बात का नहीं कि मेरा विवाह नहीं हो रहा है। वास्तव में यह दारुण अपमान ........ अस्वीकार किये जाने की ग्लानि है ........ मैं कैसे व्यक्त करूँ अपनी भावना को ........ विवाह की तिथि निश्चित् होकर कार्ड छप जाने पर इस प्रकार मेरा विवाह स्थगित हो रहा है ......... काश! धरती फट जाये और मैं उसमें समा जाऊँ। शर्म के कारण मैं यूनिवर्सिटी भी नहीं जा पा रही हूँ। मुझे प्रतीत होता है जैसे सबकी दृष्टि मेरा परिहास कर रही हैं। सहेलियों की सहानुभूति मुझे सर्पदंश की यन्त्रणा देती है। यदि विवाह नहीं करना था तो पहले ही मना कर देते। इस प्रकार अस्वीकृत किये जाने की असह्य पीड़ा, मानसिक प्रताड़ना को भुक्त भोगी ही समझ सकता है” ......... कहकर लम्बी साँस भरकर सिसकती मल्लिका ने मृणालिनी के कन्धे पर सिर रख दिया।

मृणालिनी ने धीरे से उसका मुख ऊपर उठाकर उसकी आँखों में देखते हुए दृढ़ता से कहा – “कौन कहता है तुम्हें अस्वीकार किया गया है? आज की परिस्थितियों में धन-लोलुप समाज में, दहेज लोभियों और दुष्ट प्रकृति के परिजनों से विवाह सम्बन्ध स्थापित करने की अपेक्षा कुँआरे रहना श्रेयस्कर है - तुम्हीं ने तो कहा था। तुम्हें तो ज्ञात है कि लड़के वालों ने वरिच्छा के पश्चात् दो लाख रुपये ले लिये थे कि घर की मरम्मत करानी है। निश्चय ही उन्हें कहीं और से अधिक धन मिल रहा है इसी कारण विवाह के मात्र २० दिन पूर्व उन्होंने विवाह स्थगित करने का बहाना खोज लिया। ऐसा आज कई लड़कियों के साथ हो रहा है। यदि तुम्हें अस्वीकार करना होता तो तुम्हें देखने के पश्चात् गोद भरने की रस्म न की गई होती। तुम्हारी तो वरिच्छा भी हो चुकी थी। ईश्वर को धन्यवाद दो कि तुम अनुपयुक्त वर और दुष्ट प्रकृति के परिवार में जाने से बच गई हो।“ मृणालिनी ने देखा कि - मल्लिका की सिसकियाँ थम चुकी हैं। वह बड़ी उत्सुकता से डबडबाये नेत्रों से उसकी ओर देख रही है तो बात आगे बढाती हुई बोली – “मल्लिका तुम लज्जित क्यों होती हो? ज्ञानेन्द्र ने तुम्हें अस्वीकार नहीं किया है। तुमने ज्ञानेन्द्र को अस्वीकार किया है। तुम्हारे कहने पर ही तुम्हारे ताऊ जी तुम्हारा विवाह गलत परिवार में नहीं करना चाहते। दहेज अधिक देकर विवाह के लिये सहमत न होना बड़े साहस का कार्य है। तुम्हें तो सर उठाकर चलना चाहिये। तुम तो अपनी समवयस्क लड़कियों के लिये आदर्श उदाहरण प्रस्तुत कर रही हो। तुम्हें तो स्वयं पर और अपने घर वालों पर गर्व होना चाहिये। यदि तुम स्वयं सिर झुकाकर चलोगी तो लोग तुम्हें हेय समझेंगे। यदि तुम अपना आत्म-सम्मान बना कर रक्खोगी तो समाज भी तुम्हें आदर की दृष्टि से देखेगा। कुछ चर्चायें होंगी उन पर ध्यान न दो। अपने काम से काम रक्खो। अपने पैरों पर खड़े होने का प्रयास करो। सफलता तुम्हारे कदम चूमेगी।” 

मृणालिनी ने देखा मल्लिका के मुख पर आत्म विश्वास की चमक आ गई है। 

इतने में मानस अन्दर आकर बोला -  “आन्टी! अंकल आपको बुला रहे हैं।”

“ठीक है मल्लिका मैं चल रही हूँ। अब अगली बार मुझे दीन-हीन मल्लिका नहीं - बहादुर मल्लिका मिलेगी - ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है।” कह मृणालिनी ने उसको प्यार करते हुए चलने का उपक्रम किया। मल्लिका ने कृतज्ञता से मृणालिनी के हाथ पकड़ कर माथे से छुआ लिये और बाहर आकर विदा करते हुए बोली - 

”थैंक्यू आन्टी। थैंक्यू अंकल। आप लोग फिर आइयेगा।”

रास्ते में सुपूजित को मृणालिनी ने मल्लिका के विषय में बताया और उसकी सहृदयता की प्रशंसा करते हुए बोली – “कमाल की है यह लड़की। जिस लड़के ने झूठे बहाने बनाकर विवाह करने से इन्कार कर दिया उसको ही क्षमा करके बाली कि आन्टी अंकल से कहियेगा उसको क्षमा कर दें। उसके बूढ़े माँ-बाप व भाई के छोटे-छोटे बच्चों के पालन-पोषण का भार उसी पर है।”

”वास्तव में बहुत सहृदय लड़की है। मुझे तो इतना क्रोध आ रहा है कि मैं सोच रहा हूँ कि दहेज विरोधी केस रजिस्टर कराके ज्ञानेन्द्र और उसके घरवालों को अच्छी तरह सबक सिखा दूँ। मल्लिका की सहृदयता का मान रखने को चुप रह जाता हूँ” - सुपूजित ने गहरी श्वाँस लेकर उत्तर दिया।

यदि मृदुलेश त्रिपाठी जीवित होते तो यह सब कुछ नहीं होता।” - मृणालिनी ने कहा। 

“हाँ। बिना पिता की पुत्री से दहेज अधिक मिलने का अवसर तो समाप्त हो ही जाता है।” - सुपूजित ने मृणालिनी की ओर देखकर कहा। 

“कितनी करुण कहानी है मल्लिका की? क्या इस युग में सज्जनों को कष्ट ही कष्ट मिलते रहेंगे?” भावविह्वल मृणालिनी के मुख से निकला। इतने में कार रायबरेली के डाक बंगले में आकर रुक गई। सुपूजित ने मृणालिनी से कहा -

“मुझे आवश्यक कार्य हेतु देहात में जाना है। तुम यहीं विश्राम करो। दो घन्टे में आ जाऊँगा।” 

सुपूजित अपने अधीनस्थ एक अधिकारी के साथ कार पर बैठकर चले गये। एक अधिकारी ने मृणालिनी को डाक बँगले के नं० एक कक्ष में पहुँचा दिया।

“मैडम क्या लेंगी आप चाय या ठन्डा?” विनीत स्वरों में उक्त अधिकारी ने पूछा। “केवल एक प्याला चाय भिजवा दें” - मृणालिनी ने कहा। 

शीघ्र ही चपरासी एक ट्रे में एक गिलास पानी और एक कप चाय लेकर आ गया। 

ट्रे मेज पर रखकर उसने कहा – “आपको कुछ और वस्तु की आवश्यकता हो तो मैं बाहर हूँ, बेल बजा दीजियेगा।”

मृणालिनी बाथरूम में हाथ-मुँह धोकर आई। चाय पीकर उसको अपने शरीर में कुछ स्फूर्ति की अनुभूति हुई। इलाहाबाद से रायबरेली तक की यात्रा केवल दो घन्टे की है परन्तु मानसिक तनाव के कारण उसको अत्यन्त शिथिलता और थकावट का आभास हो रहा था। चाहने पर भी मल्लिका की भोली, उदास छवि वह अपने नेत्रों से ओझल नहीं कर पा रही थी। वह उठकर खिड़की के बाहर देखने लगी - बिगुन बेलिया के फूलों की कतारें सड़क के किनारे बहुत सुन्दर लग रही थीं। लाल, पीली, सफेद, हल्की बैगनी, लाल-सफेद, रतनारी बिगुन बेलिया की सुन्दरता देखते ही बन रही थी। सामने लॉन में केवल घास ही लगी थी। लॉन के बीचों बीच फव्वारे में कमल की बेल पड़ी थी। हरे-हरे पत्तों के बीच खिले अधखिले कमल बहुत सुन्दर लग रहे थे। पति के आने में अभी देर थी। वह पर्दा गिराकर चारपाई पर आकर लेट गई। उसने स्वयं को विचारों के प्रवाह में प्रवाहित होने दिया।

पिछले वर्ष नवम्बर की ही तो बात है। सुपूजित इलाहाबाद से लखनऊ स्थानान्तरण पर आ रहे थे। इलाहाबाद में श्री मृदुलेश त्रिपाठी, उनके यूनिवर्सिटी के साथी- उनके अधीनस्थ अधिकारी थे। चलते समय श्री त्रिपाठी सुपूजित के समीप आकर बोले -

“साहब, मेरी बेटी मल्लिका का विवाह लखनऊ निवासी, पाण्डे जी के लड़के ज्ञानेन्द्र से तय हो गया है। उनके घर में कुछ नहीं है, परन्तु लड़का बहुत सज्जन है। लड़के और घरवालों ने लड़की पसन्द करके गोद भर दी है। मैंने वरिच्छा कर दी है। विवाह की तिथि निश्चित होते ही सूचित करूँगा। आपको सपरिवार विवाह में सम्मिलित होना पड़ेगा” - आग्रह और उल्लास से मृदुलेश त्रिपाठी ने सुपूजित और मृणालिनी की ओर देख कर कहा।

“बहुत-बहुत बधाई। यह तो बड़ी प्रसन्नता की बात है। हम दोनों विवाह में अवश्य सम्मिलित होंगे” - सुपूजित ने सस्नेह उत्तर दिया। 

लखनऊ आये हुए एक सप्ताह व्यतीत हुआ था। सुपूजित सोफे पर पैर ऊपर उठाकर, पाल्थी मार कर बैठ, चश्मा लगाये हुए बड़े ध्यान से समाचार पत्र पढ रहे थे कि अचानक उनके मुख से जोर से निकला-

“गजब हो गया मणि ......... त्रिपाठी - मृदुलेश त्रिपाठी की मृत्यु हो गई।”

“क्या .........?” मृणालिनी चौंककर पति के समीप आकर बैठ गई और मुख्य पृष्ठ पर छपे समाचार को देखने लगी। फिरोजाबाद में ट्रेन दुर्घटना में अनेकों हताहत। मृतकों की सूची में श्री मृदुलेश त्रिपाठी, पुलिस अधीक्षक इलाहाबाद का भी नाम था। मृदुलेश त्रिपाठी की माँ अभी जीवित हैं। पिछले वर्ष उनके छोटे भाई की करेन्ट लगने से अकस्मात मृत्यु हो गई थी। अब मृदुलेश त्रिपाठी के साथ यह दुर्घटना हो गई।” - सुपूजित ने दुःखी स्वर में बताया। 

मृणालिनी सोचने लगी कि जिस घर में लड़की के विवाह की तैय्यारियाँ हो रही हों वहाँ अचानक पिता की मृत्यु का समाचार पहुँचने से कितना आघात पहुँचेगा? उस माँ के ऊपर क्या बीत रही होगी जिसके दो युवा पुत्र अकाल ही काल कवलित हो गये हों।

सुपूजित और मृणालिनी बहुत देर तक चुपचाप बैठे रह गये। सुपूजित ने कहा - ”मणि हमें इलाहाबाद चलना चाहिए। मैं तीन दिन की छुट्टी ले रहा हूँ। मृदुलेश त्रिपाठी की इस दुर्घटना से मैं काम करने की मनःस्थिति में नहीं हूँ।”

“मैं भी यही सोच रही थी। मृत्यु से कुछ दिन पूर्व ही मल्लिका के विवाह के लिये हम दोनों को आमन्त्रित करके मृदुलेश त्रिपाठी ने अप्रत्यक्षतः अपना भार हमें सौंप दिया हैं। मुझे भय है कि पिता की मृत्यु होने से लड़के वाले कहीं शादी तोड़  न दें।” -मृणालिनी ने कहा।

“सभी व्यक्ति ऐसे नहीं होते। त्रिपाठी कह रहे थे कि वे लोग बड़े सज्जन हैं।” - सपूजित ने कहा।

मृणालिनी के मानस चक्षुओं में मृदुलेश त्रिपाठी की माँ, पत्नी, बेटे, बेटी की छवि साकार हो उठी। उनके साधारण साज-सज्जा वाले सरकारी आवास में-बरामदे में चारपाई पर-श्वेत केश, भारी बदन की, गौर वर्ण की एक महिला लेटी हुई थीं। लगभग अस्सी वर्ष तो उनकी वय होगी ही। दो युवा पुत्रों की मौत का आघात सहन करते हुए अपनी सद्यः विधवा बहू और बच्चों को साहस बँधाने का यत्न करती उस महिला को देखकर मृणालिनी का कलेजा दहल उठा था। वह उन्हें सहानुभूति देने का साहस न कर सकी थी और श्रीमती त्रिपाठी के कमरे की ओर बढ़ गई थी। 

कमरे के अन्दर डबल बेड पर कत्थई सिन्थेटिक की प्रिन्टेड साड़ी पहने श्रीमती त्रिपाठी बैठी थी। मल्लिका नीले रंग की मैक्सी पहने माँ के पास बैठी थी। दोनों माँ-बेटी एक दूसरे को समझाने का प्रयत्न करतीं और पुनः फफक-फफक कर रो उठतीं। मृणालिनी के संयम का बाँध टूटने वाला था कि उसे दूसरे कमरे में त्रिपाठी जी का बेटा जलद दिखाई दिया। इतनी छोटी वय में समस्त उत्तरदायित्व कन्धे पर आ जाने पर भी उसने अपने को प्रकृतस्थ कर रक्खा था। मृणालिनी उसके पास जाकर खड़ी हुई तो जलद ने कहा - 

“आन्टी हम लोग पापा के न रहने से विषम परिस्थिति में हैं। मल्लिका के विवाह की तारीख तेईस फरवरी तय हुई है।”

“तुम लोग दिल कड़ा कर मल्लिका का विवाह निश्चित तिथि पर ही कर दो। हम लोग यथासम्भव सहायता करेंगे।” - मृणालिनी ने कहा। 

“जी, ताऊ जी और अन्य सम्बन्धी भी यही कह रहे हैं, पर दीदी को कौन समझायें।” जलद ने कहा।

“मैं कल फिर आऊँगी तब बात करूँगी मल्लिका से।” कह मृणालिनी पति के साथ चली गई। उसे याद आया कि दूसरे दिन रोती, सिसकती, छटपटाती, तड़पती मल्लिका को बाँहों के घेरे में लेकर प्यार से विवाह के लिये राजी कर पाना कितना दुष्कर कार्य था? उसने इस शर्त पर विवाह की सहमति दी थी कि ज्ञानेन्द्र से स्पष्ट बात कर ली जाये कि उसे माँ और भाइयों की देखभाल करने में सहायता करने पर कोई आपत्ति तो नहीं होगी।”

यह समस्या भी शीघ्र ही सुलझ गई थी क्योंकि उसी समय ज्ञानेन्द्र का फोन आ गया था। उसने माला से कहा – “तुम चिन्ता न करो। तुम्हारा उत्तरदायित्व मेरे ऊपर विवाह के पश्चात् आता। अब परिस्थितियाँ बदल गई हैं। पापा के न रहने से- तुम्हारा, मम्मी का और जलद व मानस का उत्तरदायित्व अब मुझ पर है ........।” ज्ञानेन्द्र के समझाने से मल्लिका में आत्म विश्वास का संचार हुआ और सम्बन्धियों को भी आश्वासन मिला। मृणालिनी की दृष्टि में ज्ञानेन्द्र श्रद्धा का पात्र बन गया। वह निश्चिन्त हो पति के साथ लखनऊ लौट आई थी।

जलद व मानस फोन से विवाह के विषय में सुपूजित से विचार-विमर्श करते रहते थे। जलद शादी के कार्ड छपवाने के लिये दे आया था। मृणालिनी को याद आया कि तीन फरवरी को जलद अपने ताऊ के साथ सुपूजित से मिलने आया था। आँसू छलछलाते नेत्रों से जलद ने सुपूजित के पैर छुए। उसके भर्राये कंठ से अस्फुट स्वर निकल कर मौन हो गये। अचनाक वह सिसक-सिसक कर रो उठा। सुपूजित ने उसे तसल्ली देते हुए पास बिठाया। मृणालिनी भी आकर पास बैठ गई। जलद की व्याकुलता और उसके ताऊ श्री विश्वनाथ त्रिपाठी की गम्भीर मुखमुद्रा अनिष्ट की आशंका प्रकट कर रही थी। उन्होंने भरे गले से, रुक-रुक कर बताया कि – “ज्ञानेन्द्र विवाह के लिये सहमत नहीं है। उनकी माँ नागपुर में अपने भाई के पास गई थीं। वहाँ उनको स्वामी जी ने, जो उनके कुलगुरु हैं; बताया कि ज्ञानेन्द्र का विवाह यदि मल्लिका से होगा तो घोर अनिष्ट होगा। यह विवाह किसी हालत में नहीं होना चाहिये। ज्ञानेन्द्र आ रहा था तो उसके ऊपर कुछ लोगों ने स्कूटर रोक कर चाकू से हमला किया। वह बाल-बाल बच गया। ज्ञानेन्द्र इतना भयभीत है कि शादी नहीं करना चाहता।”

सुपूजित ने कहा – “आपने समझाने का प्रयास नहीं किया।”

“बहुत किया, पर वह टस से मस नहीं होता। उसके घरवालों ने १९ जनवरी को हमसे रुपये लिये थे कि घर ठीक कराना है। अभी तक दो लाख रुपये ज्ञानेन्द्र के घरवाले ले चुके हैं। अब जब शादी के कार्ड छप चुके हैं तो उन लोगों ने विवाह न करने का पत्र डाल दिया,” - हताश के स्वर में त्रिपाठी जी के भाई ने कहा।

सुपूजित और मृणालिनी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये। इस स्थिति से कैसे निबटा जाये?

सुपूजित ने कहा – “मैं अपने एक अधीनस्थ समझदार अधिकारी को आप साथ भेजता हूँ। आप लोग एक प्रयास और कर देखें। यदि वह न मानें तो केस रजिस्टर करा दें। उनको अच्छा सबक सिखाया जायेगा।”

सुपूजित ने अपने स्टाफ आफिसर को बुलाकर सारी स्थिति समझाई और इस मामले को सुलझाने की आज्ञा दी।

स्टाफ आफिसर ने कहा – “सर! मैं आयु में छोटा हूँ, पर मेरी राय यह है कि लड़के को व घरवालों को समझाने का प्रयास किया जाये। वे यदि सहमत न हों तो केस रजिस्टर न कराकर रुपये वापस लेने का यत्न किया जाये। मेरी राय में जबर्दस्ती विवाह करना उचित नहीं है। कल को उन्होंने लड़की को तंग किया तो ........”

“बात तो ठीक है।” जलद व उसके ताऊ ने भी समर्थन किया।

स्टाफ आफिसर जलद व उसके ताऊ के साथ ज्ञानेन्द्र के घर गये। उसे समझाने के सारे प्रयास निष्फल हुए। स्टाफ आफिसर ने जब पुलिस की और केस रजिस्टर कराने की धमकी दी तो वे लोग बेमन से शादी करने को सहमत हो गये। जलद के ताऊ ने फोन से मल्लिका से पूछा तो उसने विवाह करने से इन्कार कर दिया और ताऊ जी यह रिश्ता समाप्त करके वापस आ गये। स्टाफ आफिसर ने रुपये वापस करने के लिये लड़के वालों को सहमत कर लिया। ५००००/- उन्होंने तत्काल वापस कर दिया और बाकी शीघ्र ही वापस कर देने को कहा।

कार के हौर्न की आवाज ने मृणालिनी की विचार तन्द्र भंग कर दी। सुपूजित वापस आ गये थे। इतने में चपरासी ने आकर कहा – “मैडम, साहब आ गये हैं। आपको बुला रहे हैं।” 

मृणालिनी चुपचाप कार में आकर बैठ गई। पति-पत्नी दोनों ही अपने-अपने विचारों में उलझे हुए मौन थे। एक तालाब में खिले-अधखिले कमलों की भरमार थी। मृणालिनी की दृष्टि अचानक तालाब के किनारे एक खिले हुए झुके कमल पर पड़ी और उसके अन्तस् में पुनः मल्लिका की भोली, उदास मुखाकृति कौंध गई। उसने गहरी निःश्वास लेकर पति की ओर देखा। शायद यही मनोस्थिति सुपूजित की भी थी। कुछ क्षण नेत्रों ने नेत्रों की भाषा पढ़ने का प्रयत्न किया परन्तु वाणी मौन ही रही। लखनऊ पहुँचने तक दो-चार बार एक दूसरे के ऊपर दृष्टि निक्षेप और गहरी श्वाँसों के अतिरिक्त उनके बीच इक्का-दुक्का ही बात हुई।

सुपूजित चुपचाप बैठने वाले नहीं थे। उन्होंने नागपुर से इन्क्वायरी कराई तो ज्ञात हुआ कि ज्ञानेन्द्र की माँ नागपुर में अपने भाई के यहाँ शादी के लिये निमन्त्रण देने गई थीं तो वहाँ उनके भाई ने उन्हें एक लड़की दिखाई जो सुन्दर भी थी और दहेज भी लाखों का लाने वाली थी। ज्ञानेन्द्र की माँ की आँखों पर लोभ का पर्दा पड़ गया और उन्होंने अपने भाई के साथ मिलकर यह षडयन्त्र रचाया। स्वामी जी की बात बनाकर शादी स्थगित कर दी गई। ज्ञानेन्द्र को भी सब लोगों ने पटा लिया और उसकी मति भ्रमित कर दी। 

- क्रमशः


 

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