पश्चाताप

01-04-2021

पश्चाताप

अर्चना सिंह 'जया' (अंक: 178, अप्रैल प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

ज़िंदगी जो हमें सिखाती है शायद वह किसी पाठशाला में हमें सीखने को नहीं मिलता। वक़्त जैसे बेलगाम घोड़े की रफ़्तार की तरह भागता ही जा रहा था। ना जाने कब मैं ५९ वर्ष का एक बेबस इंसान हो गया था। भोर के ४ बजे नींद न आने के कारण आज मैं बिस्तर पर औंधा पड़ा हुआ, जीवन की पिछली उधेड़बुन में उलझ रहा था। आज जैसे अपनी ग़लतियों का पश्चाताप करना चाह रहा था, मगर मुझे सुनने वाला ही कोई ना था। काश! बीते उन पलों में जाकर मैं अपनी भूलों को सुधार पाता। मुझे इस बात का कभी एहसास नहीं हुआ कि मेरी भी स्थिति कभी इतनी दयनीय हो जाएगी। घर की सूनी दीवारें, दीवारों पर टँगी तस्वीरें जैसे मुझसे कई सवाल करती हों और कहती हों कि हुक्म दो, डाँट लगाओ, अपनी एक आवाज़ से लोगों की क़तार खड़ी कर दो। तुमसे तो पराए क्या, तुम्हारे अपने भी थरथर काँपते हैं। तुम्हारी एक आवाज़ में अर्पिता भागी चली आती थी और जो वह नहीं आ पाती थी तो तुम उसके माँ-बाप तक और उसके संस्कार तक की दुहाई दे देते थे। हाँ, सच ही तो है शायद मैंने उसकी अच्छाइयों को देखना ही नहीं चाहा। कहते हैं न कि दिन कभी एक से नहीं रहते और आज एक गिलास पानी देने वाला भी पास में कोई न था। यूँ तो कहने को दो बच्चों का पिता हूँ।

गुज़रा हुआ ज़माना आज नज़रों के सामने आ रहा था। हम पाँच भाई-बहन थे जिस कारण माता-पिता की जिम्मेदारियाँ दोहरी हो गई थीं। घर में जगह की कमी ज़रूर थी मगर दिलों में जगह की कमी नहीं थी। माता-पिता ने हमें शिक्षित कर दिया था ताकि हम अपने पैरों पर खड़े हो सकें। समझा जाए तो यही अपने आप में एक बड़ी बात थी। माँ नवीं तक पढ़ी हुई थी वहीं पिताजी शिक्षित और एक अच्छी नौकरी में थे । मेरे विवाह के दो वर्ष पश्चात ही पिताजी का देहांत हो चुका था, मेरे साथ मेरी माता जी रहती थीं। मेरी पत्नी का नाम अर्पिता था यानि सदा दूसरों के लिए समर्पित। मैंने कभी उसके नाम के अर्थ को समझने का प्रयास ही नहीं किया था। मैं स्वभाव से जितना ही ज़िद्दी और क्रोधी मिज़ाज का था, वह स्वभाव से उतनी ही धैर्यवान, विनम्र और मृदुभाषी थी। वह एक शिक्षित परिवार से थी, पिताजी इंजीनियर थे और स्वयं एम.एससी. कर रखी थी। मेरे पिताजी शिक्षा की अहमियत को समझते थे शायद यही वजह थी कि मेरी शादी शिक्षित परिवार में हुई थी।

यूँ तो कहने को यह परिवार मेरा अपना था, ख़ून का रिश्ता आपस में था किंतु अर्पिता दूसरे परिवार से होने के बावजूद भी ससुराल के लोगों के साथ अपना रिश्ता यूँ बना लिया था जैसे सारा परिवार उसका अपना हो। कई बार तो मैं अपने ऑफ़िस के कामों में यूँ उलझा रहता था कि परिवार की कुछ छोटी-बड़ी परेशानियों के लिए समय नहीं निकाल पाता था। वहीं अर्पिता पूरी ज़िम्मेदारी के साथ अपने दायित्वों को निभाया करती थी। आज समय से चाय-पानी देने वाला भी कोई नहीं था। घर में मेरे अलावा मेरा ही साया था। घर में पसरा सन्नाटा जैसे मुझे रह-रहकर कचोट रहा था, मुझे मेरे अहम् का एहसास करा रहा था। कामवाली बाई भी मुझे कमज़ोर जानकार अपनी मन मर्ज़ी चला रही थी। मैं जहाँ अर्पिता की ज़रा सी भूल नहीं बर्दाश्त कर पाता था, वहीं आज बाई के सारे नख़रे बर्दाश्त करने को तैयार हो गया था। मैं स्वयं चाय बनाकर लड़खड़ाता हुआ बिस्तर पर आकर बैठ गया और फिर से अपनी उस दुनिया में लौटने लगा।

मैं माँ, पत्नी और दोनों बच्चों के साथ दूसरी जगह लखनऊ शहर में रोज़ी-रोटी के लिए आ गया था। पाँच वर्ष के बाद ऑफ़िस में तरक़्क़ी तो होती गई, पर साथ ही मेरा काम का बोझ भी बढ़ता गया। जिस कारण घर के कामों में हाथ बँटाना मेरे लिए ज़रा मुश्किल सा होता गया। अर्पिता अंदर-बाहर के कार्यों को निभाने में सक्षम थी। बैंक जाना हो या माँ को डॉक्टर के पास या शॉपिंग कराने के लिए ले जाना हो, अर्पिता बख़ूबी ही ज़िम्मेदारी को निभाया करती थी। माँ के साथ उसका रिश्ता और भी पक्का होता जा रहा था। हाँ, अगर कभी सब्ज़ी में नमक या मसाले ज़्यादा हो जाया करते थे तो मैं बहुत ही बुरी तरह से पेश आया करता था, वहीं पर माँ बातों को घुमा कर टाल जाया करती थी। दिसंबर माह में एक दिन रात के वक़्त खाना खाते-खाते प्यास लगी, गिलास का पानी गुनगुना नहीं था तो मैंने ज़रा ज़ोर से क्रोधित स्वर में कहा, "क्या पानी गर्म करने के लिए वक़्त नहीं मिला, मुझसे भी ज़्यादा व्यस्त रहने लगी हो क्या?" मैं न जाने उसे क्या एहसास कराना चाहता था। वो चुप अपने काम को सही करने में जुट जाती थी। उसकी ख़ामोशी भी जैसे जवाब हुआ करती थी। उसके दर्द को कभी समझना चाहा ही नहीं बस अपनी मर्ज़ी थोप दिया करता था।

लोग कहते हैं कि एक शिक्षित लड़की से शिक्षित परिवार का निर्माण होता है। अर्पिता को स्वयं भी पढ़ने-लिखने का बेहद शौक़ था, हमारे दोनों बेटों की स्कूली पढ़ाई को पूरी तन्मयता के साथ अर्पिता देखा करती थी। हाँ, आज मुझे अर्पिता की उन अच्छाइयों का एहसास हो रहा था। स्कूल के पी टी एम के समय ही मैं बच्चों के स्कूल, अर्पिता के साथ जाया करता था। ये भी सच है कि दोनों बेटों के स्कूल से कभी कोई शिकायत नहीं आई। ये श्रेय, अगर देखा जाए तो बच्चों की माँ को ही जाता है पर मैं अभिमानी– हमारा ख़ून, परिवार की दुहाई देता रहता था। बच्चों की परवरिश में जैसे अर्पिता का कोई योगदान ही ना रहा हो। वक़्त गुज़रता जा रहा था, दोनों बच्चे भी बड़े हो गए। दोनों अलग-अलग शहरों में इंजीनियरिंग व एमबीए करने के लिए निकल गए थे। बस हम तीन लोग ही घर पर रह गए थे। अर्पिता ने अपने आप को व्यस्त रखने और मन लगाने के लिए पास के ही एक स्कूल में विज्ञान के टीचर का कार्य आरंभ कर दिया था। अब उसे स्कूल के कार्य के साथ-साथ ही घर और बूढ़ी सास की ज़िम्मेदारी भी निभानी थी। चेहरे पर मुस्कान सजाए हर कार्य को मन से ज़िम्मेदारी के साथ निभाती थी। मुझे ऑफ़िस के काम के सिलसिले में कई बार तीन-चार दिनों के लिए बाहर भी जाना पड़ता था। ऐसे में पीछे से परिवार को देखने का दायित्व अर्पिता का बढ़ जाता था।

कुछ वर्ष पश्चात दोनों ही बेटे एक अमेरिका और दूसरा आस्ट्रेलिया चला गया, मैं तो जैसे फूला ही नहीं समाया। ख़ानदान में आज तक कोई विदेश नहीं गया था इसलिए ये तो गर्व महसूस करने वाली बात तो थी। पर शायद मुझ में अहम् समा रहा था मैं अर्पिता से कहता, "देखो ये मेरे बच्चे, मेरा ख़ून, मेरा ग़ुरूर हैं। मैं इतनी तकलीफ़ से ज़िंदगी को यहाँ तक लाया हूँ।अर्पिता चुप ख़ामोशी से सुनती कोई प्रतिक्रिया नहीं देती। बच्चों का बहुत दूर चले जाना उसे कुछ सही नहीं लग रहा था। शायद इसीलिए मेरी मर्ज़ी व ख़ुशी में अपनी ’हाँ’ भी शामिल नहीं किया करती थी। दरअसल देखा जाए तो दोनों बच्चे अपनी माँ के ज़्यादा क़रीब थे बजाए मेरे। दोनों ही बच्चे मेरे साथ औपचारिक रूप से व्यवहार किया करते थे। जबकि वहीं माँ के साथ हँसते, बोलते, खेलते और अपने मन की बातों को कहा करते थे। हो भी क्यों न, मैं बाहर घुमा-फिरा दिया करता था या फिर पढ़ाई से संबंधित ही बातें किया करता था। मैं कभी बच्चा या दोस्त बनकर उनके साथ खेलने का प्रयास नहीं करता था। ईश्वर की कृपा से सब ठीक ही चल रहा था कि अर्पिता की तबीयत अचानक ख़राब होनी शुरू हुई। डॉक्टर के पास आने-जाने का सिलसिला प्रारंभ हो गया, कुछ महीनों पश्चात पता चला कि उसे कैंसर है। माँ तो इस सदमे से उबर ही नहीं पाई, उसने तो जो बिस्तर पकड़ा फिर बिस्तर से कभी ना उठ पाई। माँ के नहीं रहने से अर्पिता स्वयं को अकेली महसूस करने लगी। अर्पिता का यह कहना था कि दोनों बच्चों को उसकी बीमारी की बात न बताई जाए। मैंने उसकी इस बात से असहमति जताई थी किंतु क़सम दिलाकर जीवन में पहली बार उसने अपनी ज़िद मनवा ली। पूरी ज़िंदगी ना ही बच्चों ने और ना ही अर्पिता ने कभी किसी प्रकार की ज़िद की थी। वक़्त का पहिया घूम रहा था। मैं कभी जीवन के जिन पलों को दुख का कारण समझा करता था शायद वह दुःख था ही नहीं। दुखों का पहाड़ तो अब टूटने वाला था। डॉक्टर ने भी हिदायत दे रखी थी कि अर्पिता के खाने-पीने का विशेष ध्यान रखा जाए, बाक़ी सब ईश्वर की कृपा है उसकी मर्ज़ी है।  

मैं अंदर से अस्वस्थ महसूस कर रहा था परन्तु कोई रास्ता नहीं था। बेमन से उठ कर रसोई में जाकर अपने लिए दूध और कॉर्न फ़्लेक्स लेना चाहा, तभी मुझे चक्कर सा महसूस हुआ और मैं वहीं पास की कुर्सी पर बैठ गया। फिर जैसे-तैसे मैं कमरे की ओर आया और बिस्तर पर लेट गया। कुछ देर बाद अचानक दरवाज़े की घंटी बजी। मैंने वॉकर के सहारे जाकर दरवाज़ा खोला, पैर में दिक़्क़त होने की वजह से मैं कभी-कभार वॉकर की मदद ले लेता था। देखा तो बाई खड़ी थी, मैंने ग़ुस्से में कहा, "दो दिन बाद अब आई हो तुम्हें मेरा ज़रा भी ख़्याल नहीं। मैं कितना परेशान . . ." उसने बीच में ही टोकते हुए कहा, "क्या करूँ साहब मेरे पति की तबीयत सही नहीं थी, डॉक्टर के पास दिखाने ले जाना पड़ा। मेरे सिवा उसका है ही कौन?" आज अर्पिता की कमी मेरे मन को कचोट रही थी। काश! मैं अर्पिता को बचा पाता।

अर्पिता के स्वास्थ्य को देखते हुए मैंने बड़े बेटे के विवाह का निर्णय ले लिया। वैसे तो बेटे ने अपने लिए लड़की स्वयं ही पसंद कर रखी थी। बहु पसंद करने का अवसर भी हम दोनों की हाथों से जाता रहा। ख़ैर, जिस बात में बच्चों की ख़ुशी उसी में हमारी ख़ुशी। दोनों ही बच्चों ने घर आने के लिए टिकट करवा रखा था। विवाह की तैयारी ज़ोर-शोर से चल रही थी। तभी एक दिन अर्पिता की तबीयत अचानक बहुत बिगड़ गई, उसी शाम दोनों बच्चे लखनऊ पहुँचने वाले थे। डॉक्टर ने अर्पिता को आईसीयू में भर्ती कर लिया। अगली सुबह दोनों बच्चे माँ से मिलने अस्पताल पहुँचे। माँ की बीमारी के विषय में पूर्ण जानकारी मिलते ही दोनों बेटे रो पड़े और बोले, "माँ तुम ने हमें बताया क्यों नहीं? क्या हमें जानने का हक़ भी नहीं?" माँ बेसुध हो बेजान लाश सी पड़ी थी, आँखों से चुपचाप आँसू बह रहे थे। बेटे ने माँ का हाथ थाम लिया और आँसू पोंछे। दो दिन बाद तबीयत कुछ सँभलती सी लगी तो तीसरे दिन अर्पिता के लिए एक नर्स रखा गया और डॉक्टर की इजाज़त लेते हुए अर्पिता को घर लाया गया ताकि शादी में शामिल हो सके। शादी के घर में लोगों का आना शुरू हो गया था। अर्पिता के साथ नर्स व उसकी बहन हमेशा साथ में रहते थे। ईश्वर की कृपा ही रही थी कि अर्पिता की मौजूदगी में बेटे की शादी हो गई। अर्पिता पूरी शादी व्हीलचेयर पर बैठकर ही निकाल दी और बहू का गृह प्रवेश भी बैठे-बैठे ही करवा दिया। बीमारी की अवस्था में भी अर्पिता जैसे बैठे-बैठे अपनी ज़िम्मेदारियों को निभा रही थी।  

बेटे की शादी को डेढ़ माह बीत चुके थे। नर्स की देखरेख में ज़िंदगी की गाड़ी चल रही थी। अर्पिता की तबीयत को देखते हुए, मैंने वॉलेंटरी रिटायरमेंट भी ले लिया। वैसे भी एक वर्ष ही नौकरी का रह गया था। मैंने सोचा, सारी ज़िंदगी और वक़्त मैंने दोनों ही पैसे कमाने में ही गँवा दिए थे, क्यों ना अब अर्पिता को कुछ समय ही दे दूँ, जिसकी शिकायत अर्पिता और बच्चों को सदा ही रही। पर एक वक़्त ही है जिसे हम पैसे से नहीं बाँध सकते हैं वरना हम बुद्धिजीवियों में इस बात की भी होड़ लगी होती। लाख छुपाने के बावजूद भी अर्पिता की आँखों में मायूसी के आँसू नज़र आ ही जाते थे। वैसे तो दोनों बेटों से रोज़ बात हो ही जाया करती थी। बहू का भी फोन आ जाया करता था। तभी एक सुबह अर्पिता दर्द से कराहते हुए उठी और और उसकी साँसें जैसे हवा में विलीन हो गईं। अर्पिता हमसे बिना कुछ शिकायत किए ही हमें छोड़कर चली गई। हमारे पास अफ़सोस मनाने के अलावा और कुछ नहीं रह गया था। अंतिम काम क्रिया के लिए बच्चे बहू भी आए और कुछ दिन बाद वे भी चले गए। बच्चों ने मुझसे भी चलने के लिए कहा किंतु मैं घर नहीं, मकान छोड़कर जाने को तैयार ही नहीं था। बच्चों की ज़िंदगी चढ़ते सूरज की तरह होती है और हम ढलता सूरज होते हैं।

उन्हें तो जाना ही था अकेला तो मैं रह गया। बच्चों को विदेश की चमक-दमक और पैसे अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे। शायद ये मेरे ही दिखाए रास्ते थे जिन पर आज दोनों बेटे चल पड़े थे। आज तो मैं ये भी नहीं कह सकता था कि ’अर्पिता देखो ये बच्चे कितने बदल गए हैं। यहाँ से इन्हें लगाव ही नहीं रहा, जहाँ उनका  बचपन बीता।’ वैसे यह शिकायत उचित तो नहीं है क्योंकि विदेश भेजने का फ़ैसला भी तो मेरा ही था। तुम तो मोहपाश से मुक्त हो गई पर मैं तो सांसारिक जीवन के पशोपेश में उलझा हुआ हूँ। समय के साथ बच्चों को जीना आ गया था परन्तु मेरी तो दुनिया ही बदल गई थी। काश! जो समय रहते ही तुम्हारी अहमियत समझ लिया होता यूँ सोचते हुए मेरी आँखें नम हो गईं।

आज पश्चाताप के अलावा और कुछ नहीं था। अब समय तो जैसे लंबे सफ़र की तरह लग रहा था। दीवारों पर टँगी तस्वीरें धुँधली सी दिख रही थी क्योंकि आँखों में आँसुओं ने और दिल में दर्द भरी यादों ने जगह ले ली थी। वर्षों पश्चात मैं अर्पिता में पिताजी की परछाई देख पा रहा था। काश! यह बात मैं समय रहते ही समझ गया होता तो शायद आज यूँ तन्हा ज़िंदगी के सफ़र में ना होता। धन-दौलत संपूर्ण सुख नहीं है जीवन साथी का साथ रहना ही संपूर्ण सुख है – यह बात आज समझ आई। शायद मुझसे कहीं अच्छे तरह अर्पिता रिश्तों की अहमियत को समझती थी।  

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