पर्वत से नदिया
अविनाश ब्यौहारपर्वत से नदिया
उतर रही है
मैदानों में।
कल-कल करता
झरना-
संगीत सुनो।
ख़्वाबों को
नीड़ के जैसा
तो बुनो॥
बया की चहक
घोल रही-
मिसरी सी कानों में।
उतर रही
धरती पर
धूप की परी।
छाँव मगर
लगती है
कुछ डरी-डरी॥
क्या अनोखा
स्वाद होता
नागपुरी पानों में।
भरती अगर
पेट में
कुलाँचे भूख।
है सामने
आ खड़ा
होता रसूख़॥
मिलती है
क्षुधा अक़्सर
बाजरे के दानों में।
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