पार्क की वह बेंच

14-10-2016

पार्क की वह बेंच

सन्तोष कुमार प्रसाद

धीरे-धीरे सब छोड़ चले
एक-एक करके, सच कहूँ तो
बारी-बारी से
उस अनन्त आकाश की ओर
जहाँ तक नज़र जाये
क्षितिज के उस ओर
जैसे पक्षी आते हैं
प्रवास के दौरान
फिर झुंड में वापस चले जाते हैं।
पार्क की वो बेंच
धीरे-धीरे खाली हो रही है।
जैसे फूल उगते हैं,
अपनी ताज़गी से जहान महकाते हैं
और शाम होते-होते विदा,
जैसे पार्क में सुबह की चहल-पहल
और सूर्य की एक किरण के साथ सबकी वापसी,
सुबह की ताज़ी-ताज़ी हवा के लिये,
हम बूढ़ों की फौज आती है पार्क में।
कोई लकड़ी ठकठकाता,
कोई धीरे-धीरे चश्मे पर त्यौंरियाँ चढ़ाता हुआ।
यह बेंच हमारी दोस्ती की निशानी बन गयी है।
घर की समस्याओं को छोड़ कर
निर्लिप्त होकर ठहाके लगाने के लिये
आजकल ये मुझे हमारी विश्राम-स्थली लगती है।
धीरे-धीरे हमारी संख्या कम हो रही है।
सब छोड़ कर जा रहे है बारी-बारी से
हमारी ठहाकों की गूँज, अब कम होने लगी है।
ऐसा लगता है क्षितिज के उस पार
उस अनन्त आकाश में जाने की बारी-
अब मेरी है, सब तो छोड़ते जा रहे हैं।
पर जीने की जिजीविषा कैसे छोड़ दूँ?
कैसे छोड़ दूँ, इस मायाजाल को
मेरे अपनों को, अपने दोस्तों को,
पर जैसे जीवन सत्य है, वैसी ही मृत्यु भी सत्य है।
फिर ठहाकों की आवाज़ आती है।
बेंच से उठता हूँ,
कुछ दूर बचे हुये मित्रों के साथ चलता हूँ।
सोचता हूँ -
क्या पता कल ये पार्क मुझे देखे या न देखे...!

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