परछाइयों का जंगल : मानवीय संवेदनाओं और रिश्तों का सुंदर गुलदस्ता

15-06-2021

परछाइयों का जंगल : मानवीय संवेदनाओं और रिश्तों का सुंदर गुलदस्ता

राजेश रघुवंशी (अंक: 183, जून द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

समीक्षित पुस्तकः परछाइयों का जंगल
लेखिका: देवी नागरानी
वर्ष: 2019
मूल्यः 350 रु.
पन्नेः160
प्रकाशकः भारत श्री प्रकाशन, 
10/119, सूरजमल पार्क साईड, पटेल गली
शहादरा, दिल्ली, 110032.
shilalekhbooks@rediffmail.com


'परछाइयों का जंगल'कहानी-संग्रह लेखिका आदरणीया देवी नागरानी जी का सिंधी में लिखित कहानियों का हिंदी अनुवाद है। स्वयं लेखिका ने इसे "बीस सिंधी कहानियों का गुलदान"कहा है। प्रस्तुत कहानी-संग्रह में मानवीय संवेदनाओं और आपसी बनते-बिगड़ते रिश्तों का महाजाल सर्वत्र फैला हुआ दिखलायी देता है। साथ ही स्त्री-समस्याओं, एकाकी और अर्थ केंद्रित मानवीय जीवन, मानसिक यंत्रणा इत्यादि का सजीव चित्रण इस कहानी-संग्रह की अन्यतम विशेषता बन गयी है। 

इस संग्रह की प्रथम शीर्षक कहानी "परछाइयों का जंगल" में पारिवारिक और व्यक्तिगत वेदना की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है। घर का मुखिया एक मानसिक रोगी है, जिसे किसी बात का होश नहीं रहता। पत्नी उन्हें पाने की आस में ख़ुद कहीं खोने लगती है। ऐसे हाल में घर के बच्चे कम उम्र में ही बड़े और समझदार बन जाते हैं। मुन्नी स्वयं अपने पिता की मानसिक रुग्णता, माँ को सदैव उनके आगे-पीछे रहकर उनकी हर छोटी-बड़ी ज़िम्मेदारियों को उठाते और बड़े भाई आफताब की चार साल की अवस्था में मृत्यु आदि घटनाओं की प्रत्यक्ष साक्षी रही थी। मुन्नी का यह सोचना पाठकों के मन में गहरी वेदना भर देता है, "यह कैसी विडम्बना है कि आदमी ज़िंदा हो पर जीता न हो, मरने वाले की याद में ख़ुद को बेख़बरी के आलम तक ले आए। ऐसी ज़िंदगी पिता के बाद मैंने माँ को जीते हुए देखी और साथ रहते-रहते ख़ुद जी और भोगी। "(पृ.20)। मुन्नी भी उन परिस्थितियों को झेलने के लिए विवश हो जाती हैं। चाहकर भी मुक्त नहीं हो पाती। 

"भेद-भाव की राजनीति" नामक कहानी में देश की सबसे बड़ी समस्या 'जातिभेद' तथा निम्नजाति की तकलीफ़ों को आधार बनाकर उन समस्याओं का आदर्श समाधान प्रस्तुत करने का भी महनीय प्रयास किया गया है। कहानी के नायक कमतर जाति के होनहार आदित्य की जिजीविषा, माँ द्वारा अपनी अस्मिता को बचाते हुए असमय मृत्यु को प्राप्त होना और पिता द्वारा आदित्य को ऊँचा व्यक्ति बनने के लिए प्रोत्साहित करना आदि कहानी के प्राणतत्व बन गए हैं। स्कूल के प्रधानाचार्य एवं उच्चवर्गीय सुखीराम माधवन की बेटी सुजाता से आदित्य का विवाह दिखाकर लेखिका ने अंतरजातीय विवाह द्वारा ही जातिगत भेदभावों को दूर करने की वकालत भी की गयी है। जाति-भेद को तोड़ती नव भारत का संदेश देती हुई इस कहानी के संबंध में आदरणीय मृदुल कीर्ति जी ने अपने विचार प्रस्तुत करते हुए इसे "परिष्कृत और सुधारात्मक मानसिकता की स्थापना" करने वाली बतलाया है। 

स्वयं देश-विभाजन का दंश सहन करने वाली लेखिका की तीसरी कहानी "गुलशन कौर" देश के बँटवारे पर ही आधारित है। विभाजन के अवसर पर ह्रास होती मानवीय संवेदनाओं के मध्य सुरजीत कौर और ज़रीना बानो के आपसी निस्वार्थ संबंध, प्रगाढ़ भावनाओं और विश्वास का प्रतीक बनकर हमारे सामने आती हैं। विभाजन के समय सुरजीत कौर भारत लौटने का फ़ैसला करती है। ऐसे समय ज़रीना बानो अपनी पोती गुलशन को उसके हाथों में सौंपती है। लाहौर आकर सुरजीत उसे अपनी ही पोती मान उसकी परवरिश करती है। जब कई वर्षों बाद ज़रीना बानो उनसे मिलने आती है तब सुरजीत यह सोचकर कि कहीं ज़रीना, गुलशन को अपने साथ ले जाने तो नहीं आयी है, मन-ही-मन घबराती है। ज़रीना बानो इस अहसास को समझती है और गुलशन से मिलकर फिर अपने वतन लौट जाती है। सुरजीत कौर का यह कहना लेखिका की मानवीय संवेदना की ही गहन अभिव्यक्ति करता है, "मैं बहुत ख़ुश हूँ कि विभाजन देशों का हुआ है, दिलों की लकीरें अब भी जुड़ी हुई हैं...!"(पृ.39)

इस संबंध में आदरणीय मृदुल कीर्ति जी ने भी लिखा है, "मज़हबी जुनून से परे इंसानियत के रिश्तों और सच की पनाह में लिखी 'गुलशन कौर' पढ़कर उनकी संवेदित और स्नेहिल मानसिकता उभर कर आती है। "

"दीवार हिल गयी" कहानी में दीवारें पारिवारिक संबंधों का प्रतीक बनकर हमारे सामने आती हैं। जब मानवीय संबंध अविश्वास और संदेह के कारण टूटने या डगमगाने लगते हैं तो घर की दीवारें भी हिलने लगती हैं। उसमें भी दरारें पड़ने लगती हैं। कहानी का पात्र राम अपनी बड़ी बहन की मृत्यु के बाद उसके बेटे अभिनव को अपने पास ही रखता है। एक दिन जब राम अपनी पत्नी को अभिनव का सिर दबाते देख लेता है तो उसके मन में संदेह का बीज अंकुरित होता है। इस संदेह के कारण पूरा परिवार नष्ट हो जाता है। पत्नी के घर छोड़ चले जाने के बाद पति राम की मृत्यु, तत्पश्चात अभिनव की ब्रेन ट्यूमर से मृत्यु आदि घटनाएँ संदेह के कारण बिखरते पारिवारिक संबंधों की ओर ही संकेत करती हैं। 

"रखैल की बेटी" कहानी एक माँ के त्यागपूर्ण जीवन-संघर्ष को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती है। तंगम्मा के पहले अपाहिज पति नागेश्वर अय्यर का बीमारी से देहांत हो जाता है। ऐसे समय आर्थिक तंगी से गुज़रने वाली तंगम्मा की सहायता गाँव का रंगीनमिज़ाज ज़मींदार राघवन नागर करता है और उसके बेटे नारायण की पढ़ाई और उसके हॉस्टल के ख़र्चे उठाता है। बदले में तंगम्मा, राघवन की दासता स्वीकार कर रखैल का जीवन व्यतीत करती है। जहाँ वह एक पुत्री को जन्म देती है। वह उसे भी अपने बेटे की तरह अपने से दूर भेज देती है। साथ ही हॉस्टल में पढ़ने वाले अपने बेटे से कहती है कि, "एक बड़ा भाई बनकर छोटी बहन की रक्षा करो और उसके जीवन पथ के मार्गदर्शक बनो! जहाँ मैं रहती हूँ, उस बदनाम बस्ती की ओर भूलकर भी रुख़ न करना। भूल जाना कि तुम्हारी कोई माँ है, बस दोनों मेरे संस्कारों की लाज निभाना और ख़ुश रहना।"(पृ.53) तंगम्मा के इस त्याग को पढ़ मन व्यथा और श्रद्धा दोनों ही भावों से भर जाता है। 

"कमली" कहानी (सिंध) बँटवारे के बाद की परिस्थितियों और लोगों की बदलती मानसिकता को उजागर करती है। कहानी की पात्रा नानी भारत-विभाजन के बाद अपने पति, अपनी पोती देवकी और देवकी की हमउम्र और घर की सेविका कमली अर्थात कमसिन के साथ भारत आ जाती है। जहाँ देवकी को सारी सुख-सुविधाओं से नवाज़ा जाता है, वहीं कमली को घर की दासी की तरह ही जीवन-यापन करने को मजबूर किया जाता है। अंत में बड़े नाटकीय ढंग से नानी का हृदय परिवर्तन होता है और वह उस सेविका कमली को सही अर्थों में अपनी पोती मान लेती है। 

"पैबन्द" कहानी में आर्थिक विषमताओं को झेलते हुए एक परिवार की त्रासदी का जीवंत वर्णन किया गया है। दीनदयाल मोची का काम करते हुए ग़रीबी का जीवन गुज़रता है। बेटी और पत्नी रामकली की असमय मृत्यु पूरे परिवार को तोड़ देती है। 

"सुहाना" कहानी का आरंभ नाटकीय शैली में और अंत भी नाटकीय पद्धति से ही होता है। कहानी की प्रमुख पात्रा और गरवारे हॉस्पिटल में कार्यरत अविवाहित डॉक्टर सुहाना की कार का एक्सीडेंट दूसरी कार से होता है। इस दुर्घटना में कार सवार गंभीर रूप से ज़ख़्मी हो जाता है और उस कार-सवार की नन्हीं बेटी की तत्काल मृत्यु हो जाती है। डॉक्टर सुहाना उसे एक अन्य गाड़ी वाले की सहायता से अपने अस्पताल में इलाज के लिए ले जाती है। उस गाड़ी वाले के पूछने पर वह उस बेहोश व्यक्ति को अपना पति बताती है। अगले दिन जब उस कार सवार को होश आता है, तब सुहाना को पता चलता है कि वह व्यक्ति अपनी याददाश्त खो चुका है। इस परिस्थिति में सुहाना इसे अपना भाग्य मान उस व्यक्ति के साथ उसकी पत्नी बन जीवनयापन करने का निश्चय करती है। 

"एक मैं एक वो" कहानी में शराबी पति द्वारा निरंतर मारपीट करते रहने और इस मारपीट से गर्भस्थ शिशु को खोने के बाद अक्का नामक महिला अपना सबकुछ छोड़ एक अनाथाश्रम में अनाथ बच्चों के पालन-पोषण का काम शुरू कर देती है। यहीं आकर उसके जीवन को विराम मिल पाता है। 

"अपना घर" कहानी अर्थ आधारित संबंधों के कटु सत्य को उजागर करती हमारे सम्मुख आती है। निम्न मध्यमवर्गीय परिवार से जुड़ी इस कहानी का हर पात्र अपनी परिस्थितियों के आगे विवश-सा खड़ा दिखायी देता है। कहानी की नायिका मुन्नी विवाह के तीन वर्षों बाद अपने मायके आती है। लेकिन आर्थिक बदहाली का शिकार परिवार और मुन्नी के पिता उसके ससुराल वापस लौटने की प्रतीक्षा करते हैं। यह स्थिति देख मुन्नी दुख से भर उठती है। 

"खोई हुई पहचान" कहानी पारिवारिक संबंधों में स्वार्थ-भाव का उद्घाटन करती है। कहानी की सलमा को माता-पिता की मृत्यु के बाद चाची ने ही सँभाला था और पूरे ज़मीन-जायदाद की अकेले मालकिन बन बैठी थी। सलमा को नियंत्रण में रखने के लिए चाची उसका विवाह अपने फूफा के इकलौते बददिमाग़ और बिगड़े बेटे सुलेमान से तय करती है। लेकिन सलमा इस विवाह के लिए रज़ामंद न होकर अपनी आज़ादी और अपनी पहचान पाने के लिए घर से भाग जाती है, यहीं उसकी मुलाक़ात शकूर अहमद से होती है और सलमा उससे प्रेम करने लगती है। 

"प्रायश्चित"कहानी में पति द्वारा अपनी पत्नी को केवल उपभोग की वस्तु से अधिक कुछ न मानने की विक्षिप्त मानसिकता को प्रकट करती है। एक असहाय लड़की को आश्रय देने वाला पीरसन दिखावे के लिए उस लड़की से मंदिर में विवाह कर अपनी वासना-पूर्ति और मारपीट किया करता। बच्चों के जन्म के बाद भी उसके जीवन में कोई परिवर्तन नहीं आता है। अंत में बड़ी बेटी मोना द्वारा पिता के अत्याचारों का विरोध करने पर पीरसन को अपनी ग़लतियों का एहसास होता है और उसके व्यवहार में अप्रत्याशित बदलाव आता है। 

"स्पंदन"कहानी आश्रमों में चल रही अनैतिकता को उजागर करती हुई हमारे सामने आती है। ख़ानदानी रईस कुंदनदास कृपलानी के बेटे मंगलदास कृपलानी का विवाह पारो से होता है। मंगलदास को तीन बेटियाँ होती है। पर अपनी पारिवारिक ज़िम्मेदारियों से विमुख मंगलदास अपने ही सुख-चैन में खोया रहता है। बड़ी बेटी कुंती जो माँ की दयनीय स्थिति की साक्षी थी, एक दिन पिता को उनके कर्तव्यों का ज्ञान करवाने का प्रयास करती है, किंतु पिता यह बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं और अगले दिन किसी को बताए बिना ही घर छोड़ चले जाते हैं। कुंती उनके इस तरह चले जाने को कायरता मान अपने हृदय से उनके प्रति सारी भावनाओं को समाप्त कर देती है। किंतु पारो अपने पति को भूल नहीं पाती। 

स्त्री-पुरुष संबंधों की शाश्वत व्याख्या और परिवार में पुरुष की भूमिका को रेखांकित करती नागरानी जी की एक अन्य कहानी "बूँद बूँद ज़हर पीया, पिया के नाम" पाठकों के सामने आती है। रूपा और स्वरूप दोनों एक-दूसरे को पसंद कर वैवाहिक जीवन में बँध जाते हैं। किंतु आगे चलकर स्वरूप की बुरी आदतों का पता चलते ही रूपा समझ जाती है कि स्वरूप के लिए स्त्री केवल भोग्या से अधिक कुछ नहीं। ऐसे समय वह स्वरूप का घर छोड़ अन्यत्र जाकर अपना जीवन-निर्वाह करती है। अंत में स्वरूप माफ़ी माँगने रूपा के पास आता है पर रूपा उसे माफ़ तो कर देती है किंतु उसके साथ पुनः जीवन-निर्वहन के लिए तैयार नहीं होती। 

"मौसमों का सफ़र"कहानी में काका के चरित्र के माध्यम से पत्नी की महत्ता को रेखांकित किया गया है। काका बुढ़ापे की दहलीज़ पर अपनी गुज़री हुई पत्नी की कमी को शिद्दत से महसूस करते हैं और अकेलेपन का शिकार होते हैं। 

"श्रद्धा के फूल" कहानी बड़ी बहन प्रार्थना के त्याग और कर्तव्यपरायणता को प्रदर्शित करती है। आकाश अपनी प्रेमिका पल्लवी से विवाह करने से केवल इस कारण इनकार कर देता है कि कहीं आकाश की बड़ी बहन प्रार्थना अकेली न रह जाए। अंत में छोटे भाई की ख़ुशी के लिए बड़ी बहन भी स्वयं विवाह कर लेती है। 

"स्वाभिमान"कहानी की शुरुआत एक अप्रत्याशित घटना से होती है। रचना (अर्चना, मायके का नाम) को बग़ीचे में एक नन्हा बालक रोते हुए मिलता है। उसे इस अवस्था में पाकर बरबस रचना को अपने अतीत की घटनाओं की याद आ जाती है। फिर कहानी फ़्लैशबैक शैली में आगे बढ़ने लगती है। जहाँ वह भी उपेक्षा का शिकार होती है। अंत में उस बच्चे को प्रशांत नाम देकर उसका पालन-पोषण करती है। 

"पेइंग गेस्ट"डायरी शैली से शुरू होती कहानी की नायिका अलका भार्गव दिल्ली शहर में कुछ महीनों के लिए सपना जैसवानी के घर पेइंग गेस्ट बनकर आती है। जहाँ वह सपना के चरित्र का विश्लेषण करती है। शुरुआत में सपना का चरित्र स्वार्थी व्यक्तियों के समान दिखलायी देता है, पर जब उसके पीछे छुपी वास्तविकताएँ पाठकों के सामने आती हैं तो उनके मन में सपना के लिए सहानुभूति जागृत हो जाती हैं। 

"सूर्यास्त के बाद" कहानी में लेखिका ने विवाहिता रमिया के माध्यम से पतिव्रता नारी का आदर्श रूप प्रस्तुत किया है। रमिया का पति शगुफ़्ता नामक नर्तकी के जाल में फँस जाता है। अंत में पति को पाने के लिए वह भी शगुफ़्ता बनने का निश्चय करती है। 

"मैं माँ बनना चाहती हूँ" कहानी में स्त्री द्वारा मातृत्व पद को प्राप्त न कर पाने की वेदना और परिवार का उसके प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार का चित्रण हुआ है। छोटी उम्र में ही वैवाहिक जीवन में बँधने वाली रेशमा जब माँ नहीं बन पाती तो मातृत्व-सुख की अपेक्षा से वह अपनी छोटी बहन नगीना का विवाह अपने पति राजदान से करवा देती है। किंतु कालांतर में वह जो घर की बड़ी बहू थी, घर की नौकरानी बन जीवन गुज़ारती है। अंत में वह स्वयं माँ बनने का सुख प्राप्त करती है। 

यदि भाषा-शैली की दृष्टि से इस कहानी-संग्रह की विवेचना करें तो इस संग्रह की भाषा सहज-सरल और भावों की सहचर बन हमारे सामने आती है। शैली भी विविधता से परिपूर्ण है। कहीं वर्णनात्मक शैली का प्रयोग हुआ है, कहीं विवरणात्मक शैली का। जहाँ मानसिक द्वंद्व की अभिव्यक्ति हुई है, वहाँ शैली में गाम्भीर्य-भाव है तो "सुहाना" कहानी में नाटकीय शैली का बख़ूबी प्रयोग हुआ है। 

समग्रतः कहा जा सकता है कि उपर्युक्त कहानी-संग्रह यद्यपि अनूदित साहित्य है लेकिन पढ़ते और समझते समय कहीं भी भाव और भाषा में अवरोध उत्पन्न नहीं होता। सभी कहानियाँ उतनी ही सक्षमता से पाठकों को प्रभावित करती हैं, जितनी की मूल रचनाएँ। यह लेखिका की प्रतिभा संपन्नता का ही प्रमाण है। अतः आदरणीय अनुराग शर्मा जी के शब्दों में यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि "देवी जी निसंदेह वर्तमान सिंधी और हिंदी साहित्य की एक सक्षम लेखिका हैं।"
 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें