परम्परा और आधुनिकता

15-04-2021

परम्परा और आधुनिकता

गोवर्धन यादव (अंक: 179, अप्रैल द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

परम्परा पर चर्चा करने से पहले हमें यह जानना आवश्यक है कि परम्परा क्या होती है? इसकी स्थापना की ज़रूरत आख़िर क्यों समझी गई? क्या इसका कोई वैज्ञानिक आधार है? क्या इसके करने और न करने पर कोई अनिष्ट होने की संभावना है? क्या परम्पराएँ कोई दक़ियानुसी विचारधारा है, या फिर इनका कोई ठोस आधार भी है? क्या राष्ट्रीयता को लेकर भी कोई परम्परा विकसित हुई है? क्या परम्परा का प्रभाव गायन/नृत्य/चित्रकला/ साहित्य /नाटक/संगीत पर भी देखा जा सकता है? आदि-आदि। एक नहीं, बल्कि अनेक प्रश्न इस दिशा में उठ खड़े होते हैं।

यदि हम इन प्रश्नों पर गंभीरता से विचार करें तो पाते हैं कि परम्पराएँ जीवन जीने की एक शैली का नाम है। अब यह आदमी के विवेक पर निर्भर करता है कि वह पशुवत जीवन जिए, जिसमें कोई सामाजिक बंधन नहीं है। न ही कोई आदर्श हैं, और न ही कोई नियम क़ायदे हैं। चूँकि आदमी एक सामाजिक प्राणी है, अतः समाज की एक इकाई होने के नाते, उसके कुछ कर्तव्य बनते हैं कि समाज में किस तरह शांति का वातावरण बना रहे। बड़े-बुजुर्गों के प्रति उसका कैसा व्यवहार हो। घरों की स्त्रियों के प्रति उसका क्या नज़रिया हो। बच्चों के प्रति उसके क्या कर्तव्य होने चाहिएँ। फिर समाज में एक ही जाति के, एक ही संप्रदाय के लोग नहीं रहते। उसमें अलग-अलग धर्मों के लोग भी रहते हैं, उनके प्रति उसका क्या दायित्व बनता है? प्रकृति और पर्यावरण से उसके कैसे संबंध होने चाहिए? यह भी उसे ध्यान में रखना होता है। इन सब बातों की शिक्षा वेदों-पुराणों में अथवा धार्मिक ग्रंथों में पढ़ने को मिलती है। इन वेदों और पुराणों के रचियता और कोई नहीं बल्कि हमारे ऋषिगण थे, जिन्होंने सूक्तियों के रूप में ऋचाएँ लिखीं– श्लोक लिखे, ताकि आदमी इन नियमों का पालन करे और अपने जीवन में उतारे। यहाँ यह बात ध्यान में रखना अति आवश्यक होगा कि वे कथाकथित ऋषि और कोई नहीं, बल्कि समाजशास्त्री ही थे, जिन्होंने एक मर्यादा-रेखा खीचीं, उस पर धर्म का हल्का सा मुल्लमा चढ़ाया और उसे अमल में लाने की सीख दी। उन्होंने जो भी नियम-क़ायदे बनाए, उन सभी का अपना ठोस आधार है साथ ही वैज्ञानिक आधार भी।

प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त अर्थात सूर्योदय से प्रायः डेढ़ घंटा पूर्व उठकर जाग जाने की बात कही गई है। यह भी कहा गया है कि ऐसा करने से उत्तम स्वास्थ्य, धन, विद्या, बल और तेज बढ़ता है। जो सूर्य उगने के समय तक सोया रहता है उसकी आयु घटती है। उन्होंने उसे एक सूत्र में व्याख्यायित करते हुए लिखा–

“कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती
करमूले स्थितो ब्रह्मा प्रभाते करदर्शनम।”

अर्थात– हथेलियों के अग्र भाग में लक्ष्मी निवास करती है, मध्यभाग में सरस्वती और मूल में ब्रह्माजी निवास करते हैं। अतः प्रातः हथेलियों के दर्शन करना आवश्यक है। भगवान देवव्यास ने करोपल्ब्धि को मानव का परम लाभ माना है। इस विधान का आशय यह है कि प्रातःकाल उठाते ही सर्वप्रथम दृष्टि और कहीं न जाकर अपने करतल में ही देवदर्शन करे, जिससे वृत्तियाँ भगतचिन्तन की ओर प्रवृत्त हों। भगवान का स्मरण और ध्यान करने से सुबुद्धि बनी रहे। शरीर तथा मन से शुद्ध सात्विक कार्य किया जा सके। जब आदमी सुबह से ही इस बात को अपने जेहन में उतार लेता है तो निश्चित जानिए कि वह फिर कोई बुरे काम की ओर प्रवृत्त नहीं होगा। यदि बुरे काम नहीं करेगा तो उसका फ़ायदा तो उसे मिलेगा ही, साथ में वह समाज के लिए भी अप्रत्यक्षरूप से लाभदायी होगा।

इसी तरह बिस्तर छोड़ने से पहले और शय्या से नीचे उतरने से पूर्व उसे धरती माता का अभिवादन करना चाहिए और उन पर पैर रखने की विवशता के लिए क्षमा माँगते हुए निम्नलिखित शलोक का पाठ करना चाहिए–

“ समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं क्षमस्व में”

आप ऐसा करें अथवा न करें, इससे धरती को कोई फ़र्क नहीं पड़ता। आप चाहें खाट पर रहें अथवा नीचे उतर आएँ, धरती पर उतना वज़न निश्चित तौर पर रहना ही रहना है, लेकिन इसके पीछे वैज्ञानिक दृष्टिकोण काम कर रहा होता है। धरती के स्पर्श करने मात्र से आपके भीतर एक चुंबकीय शक्ति उत्पन्न होती है, जिसका अनुभव आप दिन भर महसूस कर सकते हैं। मात्र इस छोटे से टोटके से क्या आप दिन भर ऊर्जावान बने रहना नहीं चाहेंगे? फिर वैज्ञानिक भी मानते है कि धरती एक विशाल चुंबक है। इस बात से भला आप इनकार कैसे कर पाएँगे?

इसी प्रकार घर में स्नान करने से पूर्व निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुए लोगों देखा-सुना जा सकता है–

“गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वती
नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेSस्मिन संनिधिं कुरु”

इस देश में नदियों को माँ का दर्जा दिया गया है। गंगा-यमुना-सरस्वती, नर्मदा ताप्ति आदि नदियों को देवी का दर्जा दिया गया है और उनकी अनेकानेक महिमा गायी गई है। नहाने से पूर्व आदमी इस भाव से भर उठता है कि वह नदी में उतरकर स्नान कर रहा है। यह भाव-पक्ष है। कहा गया है कि जैसा भाव आप मन में लाएँगे,वैसी ही अनुभूति आपको होने लगेगी। ऐसा किए जाने से मन प्रसन्नता से भर उठता है और वह पूरे दिन अपने आपको तरोताज़ा पाता है।

एक ही तरह की लोकाभिव्यक्ति या लोक तत्व लंबे समय तक अभिव्यक्त होता रहे तो कालान्तर में परम्परा बन जाता है। और उसकी अभिव्यक्ति लोक परम्परा के अन्तरगत होने लगती है। और जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अभिव्यक्ति भी पाती हैं। यथा गीतों में, नृत्यों में, वाध्यों में, कथाओं में, कहावतों में, और लोकोक्तियों में रूप पाकर संचारित होती हैं। साथ ही लोक-व्यवहार, उठने-बैठने, पहनने-ओढ़ने, हँसने-रोने, तथा बातें करने में भी परिलक्षित होती हैं।

इस प्रकार स्पष्ट है कि इन परम्पराओं में भिन्न-भिन्न चीज़ों पर ज़ोर है, किन्तु उनमें परस्पर मेल-मिलाप भी होता है। शास्त्रीय संगीत और नृत्य शास्त्रीय परम्परा के ज्वलन्त उदाहरण है, जो लोक संस्कृति के स्वरूपों लोक-गीत– जैसे बिरहा, चैता, कहरवा, पंडवानी; लोकनाट्य में नौटंकी– विदेशिया, तथा माचा; लोकनृत्य में– छउ बीहू, गर्भा; लोक चित्रकला में– मधुबनी, जादोपटिया आदि भिन्न हैं क्योंकि शास्त्रीय संगीत और नृत्य प्रायः कुछ घरानों और राजदरबारों तक सीमित रहे (दरभंगा, बनारस घराना, जयपुर घराना, लखनऊ घराना, आगरा घराना, ग्वालियर घराना, गया घराना, कर्नाटक संगीत, हिन्दुस्थानी संगीत)। वहीं दूसरी ओर लोकगीत, लोकचित्रकला, लोकनृत्य आदि समूची जनता के लिए खुले हैं और वह गुरु-शिष्य परम्परा तक सीमित और संकुचित नहीं है। लेकिन यह भी सच है कि दोनों पम्पराओं के मिलने से अर्धशास्त्रीय संस्कृति का विकास हुआ।

जो भी है, यह तो मानना पड़ेगा कि भारत में सांस्कृतिक बहुलता का वजूद है। न केवल धर्मों में और पंथों में अलग-अलग उप-सांस्कृतिक परम्पराएँ हैं, और यह परम्परा इतिहास से भी प्रभावित है। जिसके कारण अद्भुत “सामाजिक संस्कृति” विकसित हुई, जिसमें "भिन्नता में एकता" के साथ-साथ “एकता में भिन्नता” भी है और यही इसकी ख़ूबसूरती एवं निरंतरता की वजह है।

लोक परम्पराएँ अपने बुनियादी चरित्र के समानधर्मी होते हुए किसी अंचल विशेष में अपनी विशिष्टता की पहचान अलग लिए भी हो सकती हैं। उसको समझने के लिए उस अंचल के उद्भव, विकास, और निरंतरता, भौगौलिक परिस्थिति तथा सामाजिक दबाव आदि को ध्यान में रखकर समझा जा सकता है। जन्म संस्कार, छटी, नामकरण संस्कार, सगाई, विवाह आदि में अपनायी जाने वाली परम्पराएँ, मृत्यु के अवसर पर किए जाने वाले संस्कारों में, पर्याप्त भिन्नता देखने को मिलती है। यही नहीं, एक ही जाति के लोगों में भी उनकी लोक-परम्पराओं में भिन्नता मिलती है। यद्यपि बुनियादी तौर पर एकरूप होते हुए भी विभिन्न अंचलों की परम्पराएँ भी लगभग एक ही तरह की होती हैं और उनके गतिशीलता का पैमाना भी एक सा ही हुआ करता है।

गतिवान और विकासशील परम्पराएँ कब संस्कृति का एक अहम हिस्सा बन जाती हैं, पता ही नहीं चल पाता। शाब्दिक अर्थों में “संस्कृति” शब्द “संस्कार” का ही रुपान्तरण है। और कालान्तर में संस्कारों का परिमार्जन ही संस्कृति का आकार ग्रहण करता हुआ जीवन भर साथ चलता है, जिसे हम बाद में इन्हीं संस्कृति और संस्कारों को भावी पीढ़ी को सौंप जाते हैं।

लोक व्यवहार के कुशल चितेरे, मानस मर्मज्ञ तुलसीदासजी ने रामचरित मानस में परम्पराओं और संस्कारों की विशद व्याख्या ही नहीं की है, बल्कि उसे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उतारकर उसे जन-जन तक पहुँचाया भी है–

  • प्रातकाल उठि के रघुनाथा मातु पिता गुरु नावहिं माथा

  • करि दंडवत मुनिहिं सनमानी निज आसन बैठारेहि आनी

  • जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस

  • लागे पखारन पाय पंकज प्रेम तन पुलकावली

  • कंबल,बसन विचित्र पटॊरे भांति-भांति बहु मोल न थोरे

  • गज रथ तुरग दास अरुदासी धेनु अलंकृत कामदुहा सी

  • सनमानि सकल बरात आदर, दान बिनय बडाइ कै

  • प्रमुदित महा मुनि बृंद बंदे,पूजि प्रेम लडाइ कै

  • बृंदारका गन सुमन बरिसहिं,राउ जनवासेहि चले

  • दुंदुभी जय धुनि बेद धुनि नभ, नगर कौतूहल भले

  • तब सखी मंगल गान करत, मुनीस आयसु पाइ कै

  • दूलह दुलहिनिन्ह सहित सुंदरि, चली कोहबर ल्याइ कै

  • पुनि जेवनार भई बहु भाँती, पठए जनक बोलाइ बराती

  • आसन उचित सबहिं नृप दीन्हे, बोलि सूपकरी सब लीन्हे

  • सादर लगे परन पनवारे। कनक कील मनि पान सँवारे

  • जेवँत देहि मधुर धुनि गारी, लै लै नाम पुरुष अरु नारी

सुबह उठकर माता-पिता को प्रणाम करना, अपने से बड़े-बूढ़े, माता-पिता तथा गुरु को उचित सम्मान देना, शादी-विवाह के समय वधु को दहेज़ में अनेकानेक चीज़ों का दिया जाना। बरात का आदरपूर्वक सम्मान करना, स्त्रियों का मंगल गान गाना, दुल्हे के लिए लहकोर लेकर आना, और खिलाना, सारे बारातियों को भोजन करने के लिए बुला भेजना, उचित सम्मान देते हुए आसन देना, भोजन करने का आग्रह करना, भोजन करते समय स्त्रियाँ, मधुर ध्वनि से पुरुषों व स्त्रियों के नाम ले लेकर गालियाँ देने का रिवाज़ आदि का वर्णन गोस्वामीजी ने मानस में किया है।

परम्पराओं का साँचा-ढाँचा कुछ इस तरह विकसित किया गया था कि वह सकल समाज को भी साथ लेकर चलती है। इस उदाहरण से काफ़ी हद तक उसे समझा जा सकता है। मसलन किसी परिवार में शादी-विवाह होना है। मंढा बनने और तोरण सजाने के लिए उसे बाँस-बल्लियों की आवश्यकता होती थी तो वह बसोड से संपर्क साधता था। खाम्ब बनाने के, लिए बढ़ई, मिट्टी के पात्र जैसे कलश-और दीप प्रज्जवलित करने के लिए दीया चाहिए तो वह कुंभकार से संपर्क साधता था। शादी की रस्में करवाने के लिए किसी योग्य ब्राहमण की तलाश करना, हर घर तक मांगलिक कार्यों की सूचना अथवा बुलावा भेजने के लिए लिए नाई को इस काम में लगाना, वाद्य-यंत्र बजाने के लिए बसोड, मंगल गीत गाने और भी व्यवहारिक रीत निभाने के लिए मोहल्ले-पड़ोस की महिलाओं की आवश्यकता होती थी। रिश्ते-नाते के लोगों के अलावा पूरा समाज इस आयोजन में अपनी भागीदारी का निर्वहन करता नज़र आता था।

यह परम्परा आज भी चली आ रही है, लेकिन इस बदले माहौल में काफ़ी कुछ बदल गया है। इस आधुनिकता के दौर के चलते अब लोग देर तक बिस्तर में घुसे रहते हैं। गुरुजनों एवं वयोवृद्ध कितना सम्मान पा रहे हैं, यह किसी से छुपा नहीं है। संबंध तय होने से पहले माँग-लिस्ट थमा दी जाती है। मंगल गान गाने और सुनने की कल्पना अब नहीं की जा सकती। “चिकनी चमेली” जैसे बोल वाले गानों पर युवा-युवतियाँ थिरकते नज़र आते हैं। अब कोई आपको मनुहार करते हुए खाना परस कर नहीं खिलाता। उसकी जगह अब “बफ़े” ने ले ली है। बफ़े लेने के अपने अपने नियम क़ायदे हैं लेकिन लोग भोजन पाने के लिए गिद्ध की तरह टूट पड़ते हैं।, बच्चों का जन्मदिन भी अब पाश्चात्य तरीक़े से मनाया जाता है। उसकी उम्र के अनुसार, उतनी मोमबत्तियाँ जलाई जाती हैं और फिर “ हेप्पी बर्थ डे टू यू” कहकर तालियाँ बजती हैं और फिर बच्चा उस मोमबत्ती को फूँककर बुझा देता है, जबकि भारतीय पद्धति में दीप जलाने की शिक्षा दी जाती है।

“दीपोज्योतिः परब्रह्म दीपोज्योतिर्जनार्दनः
दीपो हरतु मे पापं सांध्यदीप नमोSतु ते
शुभं करोतु कल्याण आरोग्यं सुखसम्पदम
शत्रु बुद्धि विनाशाय च दीपज्योर्नामोsतु ते“

हमारी भारतीय परम्परा में दीप प्रज्जवलित करने के महत्व को प्रतिपादित किया गया है, न कि दीप बुझाने को। यह पाश्चात्य संस्कृति की देन को हम अंगिकार करके गौरवान्वित होने तथा आधुनिक होने का भ्रम पालकर, प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हैं, यह सीधे-सीधे भारतीयता पर कलंक है। 

बैलगाड़ी का युग काफ़ी पीछे छूट चुका है। अब गति का युग है और गतिवान बने रहने के लिए तेज़ रफ़्तार से भागने वाली मोटर गाड़ियाँ है, रेल है, राकेट हैं और सुपरसोनिक हवाई जहाज़ हैं, उसी तरह एक पत्र के इन्तज़ार में हफ़्तों नहीं बैठा जा सकता। आज हमारे पास उच्च स्तर के साधन मौजूद हैं। मोबाइल /टेलीविजन और नेट ने, दुनिया को और भी छॊटा बना दिया है। पलक झपकते ही सब कुछ पाया और देखा जा सकता है। एक साधारण से साधारण आदमी भी इस नयी टेक्नॉलोजी का भरपूर उपयोग कर रहा है। बावजूद इसके भयंकर गिरावट दर्ज की गई है। आदमी वैसा नहीं रह गया है। इस परिवर्तन की आँधी ने हमारे सांस्कृतिक मूल्यों को तहस-नहस कर डाला है, उसी का परिणाम है कि आदमी की मनुष्योचित सादगी, निश्छलता, शालीनता, विनम्रता आदि गुणों का तेज़ी से क्षरण हुआ है। टुच्चागिरी, कमीनगी उसके आचरण के अभिन्न अंग बनते जा रहे है। व्यक्तिगत लाभ-लोभ ने उसे लगभग अंधा बना दिया है। अब वह वही देखना-सुनना और करना पसंद करता है, जिसमें उसका नीजि स्वार्थ छिपा होता है। दया, ममता, करुणा जैसे अर्थवान शब्द उसके लिए कोई माइने नहीं रखते। अनीति से पैसा कमाने की दौड़ में, “परिवार” नामक इकाई में दरारें पड़ने लगी हैं। सच तो यह है कि अब परिवार बचे ही कहाँ है? जब घर नहीं रहा तो परिवार कहाँ बचा रह सकता है, जिसमें माँ-पिता-दादा-दादी आदि रहा करते थे। परिवार में अब बुज़ुर्गों के लिए जगह शेष नहीं बची है। या तो वे वृद्धाश्रम पहुँचाए जा चुके हैं अथवा भिखारी बन भीख माँगने के लिए मजबूर हो चले हैं। रही सही क़सर बाज़ारवाद ने पूरी कर दी है। जगह-जगाह माल खड़े किए जाने लगे हैं। शराबखाने कुकरमुत्ते की तरह ऊग आए है। बार खुल गए हैं ,जहाँ जवान बेटियाँ थिरकने के लिए मजबूर हैं अथवा मजबूर की जा रही हैं। क्योंकि नाचना उनकी मजबूरी भी हो सकती है और इनकी आड़ में पैसा कमाना बार मलिक की। हिंसा, गैंगरेप के आंकड़ों में निरन्तर बढ़ौतरी हो रही है, इस घिनौनी हरकत में वे लोग हैं जो नज़दीक पास के रिश्तेदार हैं पड़ोसी हैं अथवा रिश्ते में सगे होते हैं। इन घटनाओं ने विश्वास की नींव हिलाकर रख दी है।

अब बच्चॊं को भी घेरा जा रहा है। उनका मासूम बचपन जैसे क़ैद होकर रह गया है। पैदा होने के साथ ही उसे अँग्रेज़ी में तालीम दी जाने लगी है। परिणाम चौंकाने वाले हैं कि वह न तो अच्छी अँग्रेज़ी का ज्ञाता बन पाता है और न ही हिन्दी का। अधकचरे ज्ञान ने उसकी सहजता-सरलता को ग्रहण लगा दिया है। अल्पवय में अब उनके हाथ में रिमोट पकड़ा दिया जाता है, “वे चैनल बदलकर अपनी पसंद का कार्यक्रम देख सकते हैं, भले ही उसमें वर्जित दृश्य दिखाए जा रहे हों। अब वे कंप्यूटर पर भी हाथ आज़माने लगे हैं और पोर्न-साइट का आनन्द उठाने लगे हैं। आधुनिकता के नाम पर माता-पिता उन्हें वे चीज़ें मुहैया करवा रहे हैं, जिसमें बच्चों का समय पास हो सके क्योंकि पैसे कमाने के चक्कर में उनके पास अपने बच्चों के बीच बैठने का वक़्त ही नहीं है। एक समय वह भी था जब भारतीय परम्परा में बच्चों को विद्याभ्यास के लिए गुरुकुलों में भेजकर संस्कारित किया जाता था। अब वे दिन रहे नहीं। आज गली-गली में अँग्रेज़ी सिखाने के स्कुल कुकरमुत्ते की तरह ऊग आए हैं जहाँ बच्चे “अ” अनार का, "म” मछली का, न बोलकर ए.बी.सी.डी. का रट्टा लगाता है। कौवे को “क्रो”, गाय को “काउ”, भैंस को “बफ़लो” के नाम से जानते हैं। इस तरह जानवरों के नाम से वंचित होते जा रहे हैं। इसी तरह “अंकल” शब्द चल निकला है। आप उम्र में छोटे हैं अथवा बुज़ुर्ग सभी “अंकल” की श्रेणी में आते है। इस तरह “आंटी” शब्द भी प्रचलन में आ गया है। चाचा, फ़ूफ़ा, चाची, भाभी जैसे संबंधकारक शब्द बेमानी हो गए हैं। हिन्दी की गिनती तक वे नहीं जानते।

स्वतंत्रता संग्राम में हिन्दी को वरीयता दी गई और उसे आधार बनाकर लंबी लड़ाइयाँ लड़ी गई थी ताकि अँग्रेज़ों की दमनकारी नीतियों से छुटकारा पाया जा सके और देश परतंत्रता की बेड़ी काटकर आज़ाद हो सके। देश पर अपनी जान क़ुर्बान कर देने वाले उन तमाम देशभक्तों ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि देश आज़ाद होकर एक दुष्चक्र में फँस जाएगा। हो वही रहा है, जो नहीं होना चाहिए था। गोरे अँग्रेज़ चले गए और उसकी जगह काले अँग्रेज़ सत्तानशीन हो गए। गोरे तो फिर भी अपनी सरकार के प्रति ईमानदार थे, कर्तव्यनिष्ठ थे, नियम-क़ानून-क़ायदे के पक्के हिमायती थे, तथा अपने देश और देशवासियों के लिए उनके मन में समर्पण का भाव था। यदि वैसा की वैसा ही चलने देना था तो फिर इतना लंबा संघर्ष चलाने की ज़रूरत ही क्या थी? सारा राजकाज आज भी विदेशी भाषा में चल रहा है। अँग्रेज़ से नफ़रत और अँग्रेज़ी से प्यार, यह नीति समझ से परे है। उसी तथाकथित नीतियों पर चलते हुए अब गाँव-क़स्बे तक अँग्रेज़ी की पाठाशालाएँ खोल दी गई है। सत्ताधारियों की शायद यह सोच है कि बच्चे यदि अँग्रेज़ी भाषा के जानकार हो जाएँगे तो उनकी गिनती सभ्य होने की निशानी मानी जाएगी। सभी जानते है कि अँग्रेज़ी भाषा में वे परम्पराएँ नाम मात्र को भी नहीं है जो भारतीय परम्पराओं में मौजूद है। शायद वे भूल कर रहे हैं और यह नहीं जानते कि बच्चे एक ऐसी पीढ़ी है जो हमारा-आपका-सबका वर्तमान तो है ही, साथ ही हमारा-आपका भविष्य भी है। एक कोंपल, जो नाज़ुक है, सुन्दर है-रक्षणीय है तथा शारीरिक रूप से लड़ने में असमर्थ है, इसका बर्बाद होना अथवा टूटना अर्थात पूरे ढाँचे का बर्बाद होना है।

सारे काम अब ठीक उलटे हो रहे है। शहरी संस्कृति ने तो और भी नए रिकार्ड क़ायम किए हैं। पड़ोस में कौन रह रहा है? किस को हमारी ज़रूरत हो सकती है? हम किसी के काम आ सकते हैं? जैसा भाव भी अब दिखलाई नहीं पड़ते। सारी परम्पराओं और मान्यताओं को धता बताकर हम किस ओर बढ़ रहे हैं? यह शोचनीय प्रश्न है। क्या हम अपनी विरासतों को दफ़न करते हुए उस पर आधुनिकता का महल खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं, जिसे आज नहीं तो कल भरभराकार गिर जाना है? क्या हमें उस तरह की आधुनिकता चाहिए अथवा विकास चाहिए जो पेड़ों की बलि लेकर खड़ी की जा रही हो, नदियों के बहाव को मोड़कर अथवा पहाड़ों को खोखला कर बिजली उत्पादन का रिकार्ड स्थापित किए जाने का उपक्रम किया जा रहा हो। आख़िर हम चाहते क्या हैं? शायद ठीक से हमको पता नहीं है। उसके भीषण परिणाम “उत्तराखण्ड की भयावह त्रासदी” के रूप में हमारे सामने खड़ा अट्टहास कर रहा हैं। श्रद्धा-विश्वास और आस्था के केन्द्रों की उपेक्षा का परिणाम हमने, सबने देखा और भी न जाने कितने ही परिणामों को भुगतने के लिए हमें तैयार रहना होगा।

आधुनिकता अथवा उत्तरआधुनिकता की बात हो, इस दौर में खड़े होने के लिए हमारे अपने पास क्या है? क्या है हमारे पास जिस पर हम गर्व सकें? न तो आज देश के पास उसकी अपनी भाषा है, और न ही उसका संविधान। देश भी दो नामों से जाना जाता है – एक भारत और दूसरा इंडिया। भारत में ग़रीब-शोषित-पीड़ित-उपेक्षित जन रहते हैं, जिनकी भाषा हिन्दी अथवा स्थानीय बोली है। जबकि इंडिया में धनाड्य लोग-ईलीट लोग, रहते हैं जिनकी भाषा अँग्रेज़ी है, जिनके पास घर नहीं, आलीशान कोठियाँ होती हैं। वह ए.सी. कार में सफ़र करता है। ए.सी में सोता है और बंद बोतलों का पानी पीता है। संयोग से सत्ता की चाभी इन्हीं इलीट वर्ग के पास है वे ही सत्ता का उपभोग कर पाते हैं अथवा कर रहे हैं जिनके अन्दर देश नाम की कोई चीज़ नहीं है। उनकी एक वक़्त की थाली का मूल्य हज़ारों में होता है,जबकि एक ग़रीब मात्र बीस रुपयों में गुज़ारा करता है। हमारी सारी बड़ी-बड़ी योजनाएँ शहरों से होकर गुज़रती हैं,जबकि गाँव आज भी उपेक्षित हैं। गाँधी का माडल, नेहरुजी के माडल के आगे फ़ेल हो गया। वे जिस तर्ज पर भारत की बुनियाद रखना चाहते थे, नेहरु उनसे बिल्कुल भी सहमत नहीं थे। भाषा के नाम पर क्या हुआ? यह सभी जानते हैं और आज तक हिन्दी इस देश की भाषा होने का गौरव नहीं पा सकी। फिर एक भयानक ‍षडयंत्र रचा गया। भाषा के नाम पर अलग-अलग राज्य खड़े कर दिए गए। हालात किसी से छिपे नहीं है। आपस में मल्लयुद्ध हो रहा है। चाहे वह भाषा के स्तर पर लड़ा जा रहा हो अथवा पानी के बँटवारे को लेकर लड़ा जा रहा हो। सारे कल-कारखाने शहरों में स्थापित किए गए। शहरों को फैलाव के लिए जगह चाहिए थी, सो गाँव की गाँव ख़ाली करवा लिए गए और उनकी जगह आलीशान इमारतों ने ले लीं। गाँव के लोग बेरोज़गार हो गए और वे पलायन कर शहरों की ओर भागने को मजबूर हो गए। गाँव में बच गए लंगड़े-लूले-अपाहिज, बूढ़े लोग। गाँव जैसे गाँव नहीं रह पाए। विकट स्थिति बन पड़ी है कि आज शहर बसने लायक़ नहीं बचे और गाँव रहने लायक़।

यह सब देख कर अपार पीड़ा होती है कि आज़ादी से पूर्व हमारे महापुरुषों ने भारत को लेकर कितने हसीन सपने देखे थे, आज उससे ठीक उलट हो रहा है। अब तो भारतीयता की पहचान भी ख़तरे में पड़ती जा रही है।

इस बदलाव को देखते हुए यह बात कही जा सकती है कि संस्कृति को मनुष्य ही बनाता और बिगाड़ता भी है। और हम शायद यह भूलते जा रहे हैं कि संस्कृति की वजह से ही मनुष्यता पैदा होती है। अब मनुष्य नहीं, आदमियों की भीड़ ज्यादा बढ़ रही है। संकट के इस भयावह दौर में अब इंतज़ार है उस चमत्कार का कि भविष्य में कोई ऐसा महापुरुष पैदा होगा, जो हमारे भारतीय संस्कृति और परम्पराओं की पुनर्स्थापना करेगा। और देश को वह गौरव दिलवाएगा, जिसका की वह हक़दार है।

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