परायों के घर
विजय कुमार सप्पत्तिकल रात दिल के दरवाजे पर दस्तक़ हुई;
नींद की आँखों से देखा तो,
तुम थी,
मुझसे मेरी नज़्में माँग रही थी,
उन नज़्मों को, जिन्हें सँभाल रखा था, मैंने तुम्हारे लिए,
एक उम्र भर के लिए ...
आज कहीं खो गई थी, वक़्त के धूल भरे रास्तों में ......
शायद उन्हीं रास्तों में ..
जिन पर चल कर तुम यहाँ आई हो....
क्या किसी ने तुम्हें बताया नहीं कि,
परायों के घर भीगी आँखों से नहीं जाते.....