पंकज सुबीर जी से साक्षात्कार

01-09-2020

पंकज सुबीर जी से साक्षात्कार

दिनेश कुमार पाल (अंक: 163, सितम्बर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

दिनेश कुमार पाल:

आप, कथा साहित्य की सम्वेदना और काव्य साहित्य की सम्वेदना को किस प्रकार से भिन्न पाते हैं? 

पंकज सुबीर:

मुझे नहीं लगता कि कथा साहित्य की संवेदना और काव्य साहित्य की संवेदना में किसी प्रकार का बहुत बड़ा अंतर है। मेरे विचार में एक रचनाकार अंदर से संवेदनशील ही होता है और उसकी संवेदनशीलता ही उसे रचनाकार बनाती है। इसको हम यदि और व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें, तो कलाकार चाहे वह कला की किसी भी विधा का हो, वह अंदर से बहुत संवेदनशील होगा तभी कला के प्रति न्याय कर पाएगा। कविता और कहानी में जो शिल्पगत अंतर होता है, उसके कारण हम यह नहीं कह सकते कि कवि, कहानीकार की तुलना में कहीं अधिक संवेदनशील होता है या दोनों में संवेदना के स्तर में कहीं भिन्नता होती है। बस शिल्प का जो परिवर्तन होता है, उसके कारण कविता अधिक संवेदनशील दिखाई देती है और कहानी उसकी तुलना में कुछ कम दिखती है, हालाँकि होती नहीं है।

दिनेश कुमार पाल:

समकालीन परिवेश में उपन्यास की सार्थकता और कहानी की सार्थकता को पठनीयता की दृष्टि से किस रूप में देखते हैं? 

पंकज सुबीर:

सार्थकता और पठनीयता को हमें एक साथ नहीं देखना चाहिए; क्योंकि साहित्य में दोनों गुणों का अपना-अपना महत्त्व होता है। सार्थकता तथा पठनीयता के संतुलन से ही कोई कृति बड़ी या महान बनती है। केवल पठनीयता ही बनी रहे, तो भी साहित्य का कोई मतलब नहीं है, वह केवल लोकप्रिय साहित्य होकर रह जाएगा। केवल सार्थकता ही बनी रहे, पठनीयता नहीं होगी, तो उस साहित्य की पहुँच पाठकों तक नहीं हो पाएगी। इसलिए चाहे वह उपन्यास हो, चाहे वह कहानी हो, उनमें हमें इन दोनों ही गुणों का संतुलन साध कर चलना होगा। हम एक हाथ में सरोकारों को लेकर चलें और दूसरे हाथ में पठनीयता को लेकर चलें, तभी हम पाठक को वह संप्रेषित करने में सफल होंगे, जो हम पहुँचाना चाहते हैं।

दिनेश कुमार पाल:

आपके हिसाब से किस क्षेत्र में शोध होना बाक़ी है अथवा शोध होना चाहिए? 

पंकज सुबीर:

बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ शोध अभी तक शुरू नहीं हुआ है। एक पूरा का पूरा नया लेखन अभी भी शोधार्थियों की दृष्टि से ओझल है। इसके पीछे दोष शोधार्थियों का कम है और शोध निर्देशकों का ज़्यादा है। शोध निर्देशक घूम-फिर कर साठ से अस्सी के दशक के साहित्य पर ही पहुँचते हैं। इधर नई सदी में जो लिखा गया है और इधर का युवा लेखन जो कुछ लिख रहा है, अब आवश्यकता है कि उसका मूल्यांकन हो और उस पर अलग-अलग दृष्टि से शोध हो।

दिनेश कुमार पाल:

आप स्वयं लेखक के बतौर दूसरे समकालीन लेखक को किस रूप में देखते हैं और उसके रचना प्रक्रिया से प्रभावित किस हद तक होते हैं? 

पंकज सुबीर: 

अपने समकालीन लेखकों को पढ़ना मैं सबसे आवश्यक मानता हूँ अपने लिये। जब तक आप अपने समकालीनों को नहीं पढ़ेंगे, तब तक आप समय के उस ताप को, उस ऊष्मा को नहीं महसूस कर पाएँगे, जिस समय में आप रह रहे हैं। प्रभावित होने जैसी कोई बात नहीं होती, हम अपने समकालीन को जब पढ़ते हैं, तो हम असल में अपने ही समय को पढ़ रहे होते हैं। मैं अपने समकालीन बहुत से लेखकों के लेखन का प्रशंसक हूँ तथा उनके लेखन के प्रति अपने भावों को सार्वजनिक रूप से व्यक्त भी करता हूँ, लेकिन इन सब से प्रभावित होना जैसी कोई बात नहीं होती है। हर लेखक का लिखने का अपना एक तरीक़ा होता है, अपनी एक शैली होती है और वह अपने ही तरीक़े से लेखन करता है।

दिनेश कुमार पाल:

आप,भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया के दौर में किसान, मज़दूर  वर्ग को हिंदी साहित्य के अन्दर और बाहर किस रूप में देखते हैं? 

पंकज सुबीर: 

इस नई सदी में, या हम यह भी कह सकते हैं कि पिछली सदी के भी बीतते हुए समय में किसान और मज़दूर हिंदी साहित्य में बहुत प्रभावशाली तरीक़े से दिखाई दिये हैं। उनकी आवाज़ हिंदी साहित्य में सुनाई दी है और अभी भी सुनाई दे रही है। इसलिए मुझे नहीं लगता कि भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में किसान और मज़दूर का हिंदी साहित्य से रिश्ता टूट गया है। जिस प्रकार फ़िल्म, समाचार पत्र, धारावाहिकों तथा न्यूज़ चैनल आदि में हुआ है उस तरह साहित्य में नहीं हुआ है।

दिनेश कुमार पाल:

कथेतर लेखन से आपका क्या अभिप्राय है?

पंकज सुबीर: 

मुझे लगता है कि कथेतर लेखन को एक बार फिर से परिभाषित करने की आवश्यकता है। मेरे विचार में जहाँ कथा नहीं है, वह कथेतर गद्य है। अगर हम इस हिसाब से देखें, तो यात्रा संस्मरण में भी कथा होती है, संस्मरण में भी कथा होती है और भी बहुत सारी विधाएँ हैं, जिनमें कथा होती है। निबंधों में कथा कम होती है, विचार अधिक होता है इसीलिए वह कथेतर का उदाहरण है।

दिनेश कुमार पाल:

आप, आज विमर्शों के दौर में स्त्री विमर्श, दलित विमर्श एवं अन्य विमर्श किस रूप में देखते हैं और विमर्श हिंदी साहित्य को किस प्रकार से प्रभावित कर रहे हैं? 

पंकज सुबीर: 

मुझे लगता है कि विमर्शों ने साहित्य को बहुत फ़ायदा नहीं पहुँचाया है बल्कि यह भी हुआ है कि विमर्श के कोष्ठकों में बंद होकर बहुत अच्छा साहित्य एक विमर्श विशेष का साहित्य होकर रह गया। यह नुक़्सान तो तात्कालिक रूप से सामने दिखता ही है। मुझे लगता है कि साहित्य को स्त्री या पुरुष, दलित या सवर्ण, इन खाँचों में नहीं रखना चाहिए, साहित्य साहित्य होता है और उसे साहित्य ही कहा जाना चाहिए। मैं बहुत सा ऐसा दलित विमर्श साहित्य पढ़ चुका हूँ, जो बहुत प्रभावशाली साहित्य है लेकिन उसे भी दलित विमर्श के कोष्ठक में बंद रखा गया है। यह विमर्श जब तक नए रचनाकारों को आगे लाने का काम कर रहा है, तब तक बहुत अच्छा है, लेकिन जब यह एक समूह विशेष को बनाने का काम करने लगेगा, तो यह साहित्य में खाँचे बना देगा, जो अंततः नुक़्सान ही पहुँचाएँगे।

दिनेश कुमार पाल:

इस समय कथा साहित्य के सामने सबसे बड़ी चुनौती आपके अनुसार क्या हो सकती है? 

पंकज सुबीर: 

मेरे विचार में तो सबसे बड़ी चुनौती कथा साहित्य के सामने यह है कि वह अपने आप को पढ़ा ले जाए अपने पाठक से; क्योंकि इन दिनों पठनीयता का संकट जो सामने आया है, उसके चलते पाठक कम हो रहा है। मुझे लगता है कि इन चीज़ों पर ज़्यादा काम करने की आवश्यकता है।

दिनेश कुमार पाल:

आप, पहले के कहानीकारों में और वर्तमान के कहानीकारों में क्या बदलाव महसूस करते हैं? 

पंकज सुबीर: 

मुझे कोई बहुत बड़ा बदलाव तो दिखाई नहीं देता है, बस यह है कि सूचनाएँ नए कहानीकारों के पास अधिक तेज़ी से आ रही हैं और अधिक मात्रा में आ रही हैं। उसके लिए उन्हें बहुत ज़्यादा प्रयास नहीं करना पड़ता। लेकिन इसके अगर एक तरफ़ फ़ायदे हैं तो दूसरी तरफ नुक़्सान भी होते हैं। तेज़ी से आ रही सूचनाएँ अक्सर ग़लत भी होती हैं। हाँ अगर हम भाषा, शिल्प और कथ्य के स्तर पर जाकर देखें, तो पहले के कहानीकारों और आज के कहानीकारों में तीनों स्तरों पर बदलाव आया है। आना भी चाहिए क्योंकि हर समय अपने साथ अपनी भाषा लेकर आता है, अपने विषय लेकर आता है और उन्हीं के हिसाब से शिल्प में भी परिवर्तन होता है। अभी जो भाषा कहानियों में दिखाई दे रही है, वह आम बोलचाल की भाषा है और शिल्प भी इसी प्रकार का सामने आ रहा है, जो बहुत आम और समझ में आ जाने वाला है, अब दुरूह गद्य लिखने का समय शायद बीत चुका है।

दिनेश कुमार पाल:

वृद्धा विमर्श से आपका क्या अभिप्राय है? क्या वृद्धा विमर्श को हिंदी साहित्य में स्थान दिया जाना चाहिए? 

पंकज सुबीर: 

नहीं, मुझे नहीं लगता कि इस तरह का कुछ अलग से किए जाने की आवश्यकता है। यह बहुत पहले से हिंदी साहित्य का एक प्रमुख विषय है और इस पर बहुत अच्छी कहानियाँ, बहुत अच्छे उपन्यास बहुत अच्छी कविताएँ लिखे गए हैं, लिखे जा रहे हैं और लिखे जाते रहेंगे। इसलिए इस एक विषय को अलग से किसी विमर्श के कोष्ठक में बंद करना हिंदी साहित्य का नुक़्सान करना ही होगा।

दिनेश कुमार पाल:

क्या,  आपके परिवार से कोई साहित्यकार थे?  थे, तो उनसे आपका व्यवहार कैसा था? 

पंकज सुबीर: 

नहीं, मेरे परिवार से कोई भी साहित्यकार नहीं हुए हैं मैं अपने परिवार का पहला लेखक हूँ।

दिनेश कुमार पाल:

क्या, आप किसी वाद या विचार धारा से प्रतिबद्ध हैं? 

पंकज सुबीर:

नहीं, मैं किसी भी वाद या विचारधारा से न तो जुड़ा हुआ हूँ, न उसके प्रति प्रतिबद्ध हूँ और मेरा ऐसा दृढ़तापूर्वक मानना है कि किसी भी लेखक व साहित्यकार को विचार के साथ खड़ा होना चाहिए, विचारधारा के साथ नहीं। वह मानवता और इंसानियत के प्रति ही जवाबदार होता है, इसके अतिरिक्त उसे और किसी के प्रति जवाबदार नहीं होना चाहिए। जब आप किसी एक विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध होते हैं तब आप कहीं न कहीं पूर्वाग्रह से ग्रसित होते हैं। उस एक विचारधारा को आपको मजबूरी में क्षमा करते हुए चलना होता है। जब आप ऐसा करते हैं, तो आप अपनी मूल प्रतिबद्धता से विचलित हो जाते हैं, वह प्रतिबद्धता जो हर साहित्यकार की मूल प्रतिबद्धता होती है। इसीलिए मेरा ऐसा मानना है कि हर साहित्यकार को सभी विचारधाराओं से बराबर की दूरी रखते हुए बीच के मार्ग पर चलना चाहिए, ताकि सब पर नज़र भी रखी जा सके और उनके गुण-दोष भी दिखाई दे सकें।

दिनेश कुमार पाल:

आप, अभी तक की अपनी रचनाओं में किसको सर्वश्रेष्ठ मानते हैं, मानते हैं तो क्यों? 

पंकज सुबीर: 

किसी भी साहित्यकार से यदि यह प्रश्न पूछा जाए तो उसके लिए इसका उत्तर देना बहुत कठिन होता है, क्योंकि सारी रचनाएँ उसे अच्छी लगती हैं और उनमें से सर्वश्रेष्ठ को छाँटना थोड़ा सा मुश्किल काम होता है। फिर भी मुझे ऐसा लगता है कि उपन्यास "अकाल में उत्सव" लिखकर मैंने अपने समय के एक बड़े दायित्व को पूरा किया। देश के उन सारे किसानों की आवाज़ को लोगों तक पहुँचाने की कोशिश की जिनकी आवाज़ दबाई जा रही थी। मैं इस उपन्यास को इसलिए भी पसंद करता हूँ क्योंकि इस उपन्यास ने हिंदी साहित्य में एक बार फिर किसानों की कहानी और उपन्यास लिखे जाने की परंपरा को शुरू कर दिया।

दिनेश कुमार पाल:

भूमण्डलीकरण के दौर में स्त्रियों की दिशा एवं दशा से आपका क्या आशय है?

पंकज सुबीर: 

मुझे नहीं लगता कि स्त्रियों की दशा और दिशा आज बहुत कमज़ोर या ख़राब है। मुझे ऐसा लगता है कि भूमंडलीकरण का दौर शुरू होने से पहले विश्व भर में स्त्रियों की स्थिति बहुत ख़राब थी न उनके पास अधिकार थे न उनके पास जीवन जीने के बहुत अच्छे साधन थे। आज वह सब कुछ बदल चुका है और आज स्त्रियों को वह सब कुछ उपलब्ध है, जो पुरुषों को उपलब्ध है। 

दिनेश कुमार पाल:

क्या हिन्दी साहित्य के विकास में प्रवासी लेखन अपनी अहम भूमिका अदा कर रहा है, कर रहा है, तो किस हद तक?

पंकज सुबीर: 

निश्चित रूप से कर रहा है, प्रवासी लेखन जिसको एक अलग कोष्ठक में बंद किया गया और उसे हिंदी साहित्य की मुख्यधारा में प्रवेश नहीं करने दिया, वह अब अपनी ताक़त दिखा चुका है। वह हिंदी साहित्य के विकास में अपनी बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। दुनिया भर के देशों में फैले हुए हिंदी के साहित्यकार अपनी रचनाओं से हिंदी साहित्य को समृद्ध कर रहे हैं। वह कहीं न कहीं दूसरी भाषाओं, दूसरे देशों और हिंदी तथा हिंदुस्तान के बीच एक प्रकार का पुल बनाने का काम कर रहे हैं। यह लोग हिंदी साहित्य को विदेशों में स्थापित करने का काम भी कर रहे हैं। यह काम बहुत महत्त्वपूर्ण है। एक समय ऐसा था जब प्रवासी साहित्य को बहुत महत्व नहीं दिया जाता था लेकिन आज प्रवासी साहित्य ने अपने हिस्से का महत्त्व लड़कर प्राप्त कर लिया है, अपनी रचनाओं की ताक़त दिखाकर। प्रवासी साहित्यकारों ने अपने लिए हिंदी साहित्य की मुख्यधारा में स्थान बना लिया है, और अब हिंदी साहित्य की चर्चा उनके बिना नहीं की जा सकती। 

दिनेश कुमार पाल:

वर्तमान समय में विश्व पर्यावरण एवं आदिवासी विमर्श का सम्बन्ध?

पंकज सुबीर: 

पर्यावरण का कहीं न कहीं सीधा संबंध मानव द्वारा लगातार किए जा रहे प्रकृति के दोहन से है। इस दोहन के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा बनकर जो खड़े होते हैं, वह वनवासी होते हैं, आदिवासी होते हैं, जिनको ज़मीन, जंगल, जल और जन से प्रेम होता है। इसलिए यह कहना भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि पर्यावरण और आदिवासी विमर्श असल में एक दूसरे के पूरक हैं। आदिवासी जंगल से, ज़मीन से जल से उतना ही लेते हैं, जितने की आवश्यकता होती है तथा जिससे प्रकृति को कोई नुकसान नहीं पहुँचे। इसलिए आदिवासी पर्यावरण की रक्षा को लेकर हमेशा सबसे आगे दिखाई देते हैं; भले ही वह तथाकथित उन पर्यावरण प्रेमियों से बहुत अलग हैं जो पाँच सितारा होटलों में डिनर करते हुए पर्यावरण की चिंता करते हैं। असल में आदिवासी विमर्श का सीधा संबंध पर्यावरण की रक्षा से है, जिसके साथ बचेगा जल, जंगल, ज़मीन और जन।

दिनेश कुमार पाल ( शोध-छात्र )   
हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग 
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज 
मो.- 9559547136
ई- मेल- dineshkumarpal6126@gmail.com
पता- बैरमपुर, कौशांबी 
पिन- 212214

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