मज़हबी इमारतें
रात के सन्नाटे में मशग़ूल!
अजीब बहस...
इंसानियत बग़ैर इंसान
हैरान रह गया सुनकर
इंसानियत की टोकरी
जो मेरे सिर पर थी - देखा तो
इंसानों के जगह हैवान दिखे
पहली दफ़ा…
इंसानियत से दूर अलग दहलीज़॥
इमारतों के फटकार से
रूह की दुत्कार से
शर्मिंदा लेकिन ज़िंदा
दबे पाँव भागना चाहा पर
ख़ुदा को कहाँ पसंद
इमारत की ईंट से टकराया
हँसी के ठहाके का अहसास
देखा तो रूह
पहली दफ़ा…
मेरी तौहीन रूह के हँसने का सबब॥
बेशर्मी का आलम देखिये
झूठी तस्सली देकर
मय्यत निकाली ज़मीर की
फ़ख़्र के साथ...
रूह से ऐसे अलग हुआ
मानो तलाक़ की अर्ज़ी क़बूल हुई
ऐसा ख़ुशमिज़ाज था मानो
परवरदिगार ने सारी
ख़ता बख़्श दी हो
पहली दफ़ा…
अपनी मय्यत का जनाज़ा पढ़ रहा था॥
अतिसुन्दर रचना मुझे ऐसे मित्र पर गर्व है। धन्यवाद
Aapke Alphas sadaiv isprakar dahityaprachar kare yehi eshar se kamana karate hai
बहुत सुंदर लिखावट है आपकी
Niceee
Superb
Waah bhai waah!!
Very nice
Adbhut, sarahneey kary
Nice kavi ji
Hairaan reh gaya sunkar
Marmik rachna
Good!!!
Ohh woww wt a growth man..
Very nice
Very elegantly written. Loved it.. !!!!
Kabile tareef
Nice one sir
Wonderful bhai..... Continue writing we need more poems like this.