पहाड़ के आँसू

15-04-2021

पहाड़ के आँसू

डॉ. महेश परिमल (अंक: 179, अप्रैल द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

इस बार पहाड़ फिर जी भरकर रोया है। पहाड़ को रोना क्यों पड़ा? यह समझने को कोई तैयार ही नहीं है। बस लोग पहाड़ द्वारा की गई तबाही के आँकड़ों में ही उलझे हैं। संसद में प्रधानमंत्री के आँसू सभी को दिखे, पर पहाड़ के आँसू किसी की नज़र में नहीं आए। बरसों से रो रहे हैं पहाड़। पर कोई हाथ उसकी आँखों तक नहीं पहुँचा। पहाड़ के सिर पर प्यार भरा हाथ फेरने वाले लोग अब गुम होने लगे हें। आख़िर रोने की भी एक सीमा होती है। इस रुलाई के पीछे बहुत बड़ा दु:ख है। इस बार यह दु:ख नाराज़गी के रूप में बाहर आया है। पहाड़ों को अब ग़ुस्सा आने लगा है। पहाड़ को  हमने सदैव पूजा है। पहाड़ ने हमें हमेशा कुछ न कुछ अच्छा दिया ही है। अगस्त्य ऋषि के सामने पहाड़ भी झुक जाते थे। इसी ऋषि का एक आश्रम उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग ज़िले में है। हमारे देश में पहाड़ों की विशेष पूजा-अर्चना होती है। पहाड़ को कोई नाराज़ नहीं करना चाहता। पहाड़ सदैव मुस्कराते रहें, इसके लिए मानव कई तरह के जतन करता रहता है। पहाड़ संस्कृति को बचाने में सहायक होते हैं। हमारे पुराणों में पहाड़ सदैव ही पूजनीय रहे हैं। पहाड़ यदि विशाल होना जानते हैं, तो वे झुकना भी जानते हैं। 

पौराणिक मान्यता के अनुसार विंध्याचल पर्वत महर्षि अगस्त्य का शिष्य था, उसका घमण्ड बहुत बढ़ गया था तथा उसने अपनी ऊँचाई बहुत बढ़ा दी, जिससे सूर्य की किरणें पृथ्वी पर पहुँचनी बंद हो गईं, तब प्राणियों में हाहाकार मच गया। सभी देवताओं ने महर्षि अगस्त्य से अपने शिष्य को समझाने की प्रार्थना की। महर्षि ने विंध्याचल पर्वत से कहा कि उन्हें तप करने हेतु दक्षिण में जाना है, अतः उन्हें मार्ग दे। विंध्याचल महर्षि के चरणों में झुक गया, महर्षि ने उसे कहा कि वह उनके वापस आने तक झुका ही रहे तथा पर्वत को लाँघकर दक्षिण को चले गए। उसके पश्चात वहीं आश्रम बनाकर तप किया तथा वहीं रहने लगे। वे फिर लौटकर नहीं आए, इसलिए विंध्याचल पर्वत झुका ही रहा।

पहाड़ पर रहने वाले उसके चरित्र को भली-भाँति समझते हैं। उत्तराखंड में पहाड़ों का लगातार दोहन हो रहा है। यह दोहन हमारे पर्यावरण मंत्रालय की अनुमति से हो रहा है। इस मंत्रालय के अधिकारियों का पहाड़ों से दूर-दूर का नाता नहीं है। इसलिए वे पहाड़ की प्रवृत्ति को नहीं समझते। उन्हें तो शायद पर्यावरण की भी जानकारी नहीं है। उनकी नासमझी के कारण ही आज पहाड़ों में नाराज़गी है। पर्यावरण प्रेमियों ने कई बार पर्यावरण मंत्रालय में शिकायत करते हुए पहाड़ों के दोहन को रोकने की माँग की। पर उनकी एक न सुनी गई। पहाड़ पर बाँध बनाने का काम जारी है। पहाड़ों की सहनशक्ति अपार होती है। पर इस बार इस शक्ति ने जवाब दे दिया। ऐसा भी नहीं है कि पर्यावरण मंत्रालय को चेतावनी नहीं दी गई। यहाँ तक की नासा ने भी उत्तराखंड में बनने वाले बाँधों को लेकर सरकार को चेताया था। पर सरकार ने उसकी चेतावनी को अनसुना कर दिया। 'साइंस द वायर' में पिछले साल अगस्त में छपी एक रिपोर्ट में चेतावनी दी गई थी कि ग्रीन हाउस गैसों के दुष्प्रभाव के कारण अगर पृथ्वी का तापमान यूँ ही बढ़ता रहा तो सन्‌ 2100 तक यानी मात्र 80 साल में हिमालय के दो तिहाई ग्लेशियर पिघल जाएँगे। इतने ग्लेशियर यदि पिघलेंगे तो कैसी तबाही लाएँगे, यह सोचकर भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ग्लेशियरों का इस तरह पिघलना या टूटना न केवल जानमाल का विनाश लाएगा, बल्कि दक्षिण एशिया के देशों के बीच नए राजनीतिक तनाव और सामाजिक आक्रोश का कारण भी बनेगा।

ग्लेशियरों के तेज़ी से टूटने पिघलने का अर्थ है हमारी बारहमासी नदियों में जल प्रवाह का धीरे-धीरे सूख जाना। हिमालय के ग्लेशियरों से एशिया के आठ देशों की आर्थिकी और सामाजिक व्यवस्था का भविष्य भी जुड़ा है। ग्लेशियर दो तरह के होते हैं और ध्रुवीय और महाद्वीपीय। हिमालय के ग्लेशियर महाद्वीपीय हैं। दोनो में अंतर यह है कि ध्रुवीय ग्लेशियर बहुत धीमी गति से पिघलते हैं, जब महाद्वीपीय ग्लेशियर अंधाधुंध मानवीय गतिविधियों और औद्योगीकरण के कारण होने वाला कार्बन उत्सर्जन की वजह तेज़ी से पिघल कर नदी और मलबे में तब्दील हो रहे हैं।

अब जब तबाही का मंजर हम सबके सामने हैं, तो कई तरह के तर्क दिए जा रहे हैं। पर्यावरण मंत्रालय ने अपने बचाव में जो तर्क दिए हैं, वे बचकाने लगते हैं। सवाल यह उठता है कि क्या पर्यावरण मंत्रालय के अधिकारियों के कान नहीं हैं? क्या वे किसी की सुनना ही नहीं चाहते? कान की छोड़ो, क्या उन्हें कुछ दिखाई भी नहीं देता? पहाड़ों का विनाश हो रहा है। जून 2013 में केदारनाथ में जो तबाही दिखी, क्या उससे कोई सबक़ नहीं लिया गया। आख़िर क्या कारण है कि अंधाधुंध तरीक़े से पहाड़ों का विनाश होता रहा, लोगों की चीख-पुकार तक बेअसर रही। फिर भी बाँधों के बनने का काम जारी रहा। पहाड़ पर बाँध बनाने की अनुमति देने वालों को कठघरे में खड़ा नहीं किया जाना चाहिए?

पहाड़ के आँसू किसने देखे हैं? पहाड़ रो रहे हैं। उनका आर्तनाद बरसों से जारी है। आख़िर क्यों नहीं सुन पाते लोग पहाड़ों की सिसकी? सही कहा गया है कि विकास सदैव विध्वंस के रास्ते आता है। पर ऐसा विकास किसे चाहिए, यह भी तो सोच लेना चाहिए? परंपराओं को समाप्त कर, लोगों को उनकी ज़मीन से बेदख़ल कर, संस्कृति को जड़ से समाप्त करने का जो षड्यंत्र बरसों से चल रहा है, क्या उसका पर्दाफ़ाश नहीं होना चाहिए? सभी पहाड़ों को नोंचने में लगे हैं, कोई उसके आँसू नहीं पोंछ रहा है। ऐसे में पहाड़ नाराज़ होंगे ही, वे बौखलाएँगे भी। तो हमें तैयार हो जाना चाहिए कि अब पहाड़ बौखलाएँगे, हम पर क़हर ढाएँगे। उनकी ज़िंदगी  को बचाने के लिए अब हमारी मौत ज़रूरी है। जी हां, अब मौत ज़रूरी है...।
डॉ. महेश परिमल

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