पड़ोसी धर्म

06-08-2014

पड़ोसी धर्म

रमेश ‘आचार्य’

 किसी गाँव में सदानंद नाम का एक गरीब किसान रहता था। वह बहुत मेहनती और ईमानदार था। अपनी थोड़ी ज़मीन पर खेती करके भी वह पूरे परिवार का भरण-पोषण कर लेता था। वह, उसकी पत्नी और उसके दो बच्चे अपनी छोटी-सी दुनिया में ख़ुश थे। गाँव में देवी-पूजन मेले की तैयारी ज़ोरों पर थीं। सभी लोग अपने-अपने कामों में बहुत लगन से जुटे हुए थे ताकि अपने परिवार के साथ मेले का भरपूर आनंद उठा सकें।

एक शाम जब सदानंद खेत से वापस आया तो उसने देखा कि उसका पड़ोसी सुखराम बहुत ज़ोर-ज़ोर से खाँस रहा था। उसने पास जाकर पूछा- "भैया सुखराम, तुम्हें क्या हुआ़? बहुत दिनों से तुम खेत पर भी न दिखे। मैंने सोचा कि कहीं दूसरे गाँव गए हो।"

 "क्या बताऊँ सदानंद भाई, न जाने कैसी खाँसी लगी है कि पीछा छोड़ने का नाम ही नहीं ले रही है।"

"तो फिर डॉक्टर से दवा न लाए,"- सदानंद ने पूछा।

सुखराम खाँसते हुए बोला- "दो बार दवा लाया फिर भी कुछ न हुआ। महीने से खटिया पर लेटा हूँ और घर की हालत भी बिगड़ी हुई है। अब तो सब भगवान भरोसे है।"

सदानंद ने कहा- "चिन्ता न करो, ईश्वर ने चाहा तो जल्दी ठीक हो जाओगे।"

रात में जब सदानंद खाना खा रहा था तो उसने अपनी पत्नी को सुखराम के बारे में बताया। उसकी पत्नी ने कहा- "अब तुम सोच क्या रहे हो? हमने मेले के लिए जो थोड़े रुपये बचाए हैं, उसमें से देवी-पूजन के लिए रख लो और बाकी सुखराम भैया को अभी दे आओ। इस संकट की घड़ी में अगर पड़ोसी ही साथ न देंगे, तो और कौन देगा?"

पत्नी की बात सुनकर सदानंद की आँखे छलछला आईं। उसे इस बात की हैरानी भी हुई कि आखिर कैसे उसकी पत्नी ने उसके मुँह की बात जान ली।

"लो भैया सुखराम, ये थोड़े रुपए हैं, इनसे अपनी दवा लाओ और फटाफट ठीक हो जाओ।" सुखराम बोला- "नहीं भाई सदानंद, मैं ये पैसे न लूँगा। तुमने और भाभी ने कितनी मेहनत से मेले के लिए जोड़े हैं। तुम्हारे बच्चों की खुशियों से मैं अपनी दवा लाऊँ? यह मुझसे कभी न होगा।"

सदानंद बोला- "भैया सुखराम, तुम्हारी भाभी ने ही मुझे यहाँ भेजा है और अगर तुम न लोगे तो वह मुझ पर बहुत नाराज़ होगी।"

सुखराम की आँखों से आँसू बह निकले और वह बोला- "तुम धन्य हो सदानंद भाई। आज के कलयुगी समय में जब भाई, भाई को फूटी आँख नहीं सुहा रहा है और बेटा, माँ-बाप को गरिया रहा है। गाँव भी महानगर की तरह करवट ले रहा हो। ऐसे में तुम्हें देखकर मुझे लग रहा है कि गाँव की जड़ें आज भी मज़बूत हैं।"

"भैया सुखराम, मैं तुम पर कोई अहसान नहीं कर रहा हूँ। बस अपना फर्ज़ निभा रहा हूँ। ऐसा कहकर सदानंद सुखराम के हाथों में पैसे देकर चल दिया।

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