पानी का काम जैसे आग से खेलना : ‘कोशिशों की डायरी’

01-02-2020

पानी का काम जैसे आग से खेलना : ‘कोशिशों की डायरी’

गोविन्द सेन  (अंक: 149, फरवरी प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

किताब  : कोशिशों की डायरी
लेखक : सोनल शर्मा
प्रकाशक : नियोलिट पब्लिकेशन, इंदौर (म.प्र.) 
मोब. 7771900028, प्रथम संस्करण: 2019 
मूल्य: 196/-

किताब के पहले ही पैराग्राफ से लगने लगा था कि इसमें कुछ नया, बहुत सच्चा, हृदयग्राही और अनूठा मिलने वाला है, जब डायरी ख़त्म की तो उम्मीद से ज़्यादा मिला। इसमें पानी बोने के काम में तल्लीनता से जुटी समाजसेवी संस्था ‘विभावरी’ की एक ईमानदार और समर्पित टीम की दिलचस्प कहानी है जो कल्पना को एक हक़ीक़त में बदल देती है। जहाँ पानी का ऐसा टोटा था कि पीने का पानी कई किलोमीटर दूर से लाना पड़ता था। ग्रामीण माचे पर बैठकर नहाते थे। नीचे तगारी रख उससे इकट्ठा हुआ पानी बैल को पिलाने के काम में लेते थे। पानी न होने के कारण खेत सूखे पड़े रहते थे। केवल  बरसात के भरोसे ही कुछ कपास और तुअर पैदा कर ली जाती थी। देवास ज़िले की कन्नौद जनपद के जल संकट ग्रस्त पाँच गाँवों क्रमशः पानपाट, बाईजगवाड़ा, झिरनिया, नरानपुरा और टिपरास में वाटरशेड योजना के ज़रिए कुछ ही सालों में ‘विभावरी’ ने कायापलट कर दी। एक सुविचारित योजना के तहत खेतों में खंतियाँ, तलाई, स्टॉप डैम और तालाब बनवाकर पानी को कुछ ऐसे रोका गया कि गाँवों के किसान साल में तीन-तीन फ़सलें लेने लगे। ट्यूबवेल में बम्पर पानी निकलने लगा। खेतों में हरियाली छा गई और ग्रामीणों के जीवन में भी कुछ ही सालों में आर्थिक और सामाजिक बदलाव स्पष्ट दिखाई देने लगा। हाँ, अब पानी को रोके रखना और इस बदलाव को स्थायी बनाने की ज़िम्मेदारी ग्रामीणों पर  है। इस सम्बन्ध में लेखिका ने चिंता भी ज़ाहिर की है। उन्होंने लिखा है- ‘लग रहा है पानी रोकने का काम जितना कर रहे हैं, प्यास  उससे तेज़ी से आगे बढ़ रही है। टिपरास में पचास से ऊपर ट्यूबवेल हो गए हैं। बड़े किसान पानी खींचने के नए से नए तरीक़े निकाल रहे हैं।’

वैसे यह पानी का काम इतना आसान भी नहीं था, यह आग से खेलने जैसा था। आने वाले अवरोधों को कैसे पार किया गया, इसका दिलचस्प चित्रण डायरी में है। यह केवल पानी का ही काम नहीं था, यह ग्रामीणों की ज़िंदगी में सकारात्मक बदलाव लाने और उनमें सामाजिक जागरूकता पैदा करने का काम भी था। ख़ासकर महिलाओं को जागरूक करना और उनमें बदलाव की तड़प को पैदा करना भी इसका हासिल है। निरंतर रचनात्मकता और मौलिक सूझबूझ का सहारा लेकर आगे के रास्ते निकाले गए। 

डायरी की भाषा मौलिकता, चित्रात्मकता और काव्यात्मकता से भरपूर है। इसमें लोक भाषा की ख़ुशबू तो है ही, ग्रामीणों की मानसिकता, उनकी सबलताओं और कमज़ोरियों को सहज ही उकेरने की अद्भुत क्षमता भी है। लोक जीवन के दृश्यों की सजीव झाँकियाँ पूरी डायरी में झिलमिलाती रहती हैं। लेखिका की स्वभावगत संवेदनशीलता, मौलिक मानवीय दृष्टि, धीरज और जुझारू प्रवृति भी किताब में बख़ूबी उभर कर आती है। इस भाषा में ज़मीनी अनुभवों का ताप भी है और कविता की मार्मिकता भी है। बोलियों ने हिंदी को बहुत समृद्ध किया है। आधुनिक हिंदी तो अभी सौ-सवा सौ साल ही पहले अस्तित्व में आयी है जबकि बोलियाँ तो हज़ारों सालों से लोक में रही हैं। इस डायरी में ऐसे अनेक शब्द हैं जो हिंदी में बहुत कुछ नया जोड़ते हैं। 

किताब के हस्तलिखित उपशीर्षक अलग से ध्यान खींचकर रोमांच से भर देते हैं। आज जब निरंतर मोबाइल और कंप्यूटर के ज़रिए सीधे टाइप किए हुए अक्षर देख रहे हैं, तब हस्तलेख देख कर हर्ष होता है। इन हस्तलेखों को देख पत्रों का वह पुराना समय याद आता है जब हाथ से पत्र लिखे जाते थे। हस्तलेख उस व्यक्ति की पहचान होते थे और नाम देखे बग़ैर हस्तलेख देख पता लग जाता था कि यह फलां शख़्स का पत्र है। यह प्रयोग स्वागतेय है।

लेखिका के पास एक कवि-मन और चीज़ों को देखने का एक अलग नज़रिया भी है। किताबों और कविताओं में लेखिका की गहरी ललक है। प्रकृति का चित्रण देखें- ‘सर्दियाँ तो सुन्दर होती हैं। फूले-फूले लाल हरे स्वेटर और फटे हुए गालों वाले छोटे-छोटे दिन झटपट ग़ायब हो जाते हैं। गर्मियाँ मुझे हमेशा से अच्छी लगती रहीं क्योंकि किताबें और कविताएँ लिखने वाले छुट्टियों के दिन लाती हैं।’ सागौन के स्वभाव पर लेखिका की सटीक टिप्पणी देखिए- ‘सागौन स्वभाव से बड़बोला होता है। गर्मियों में ज़रा सी हवा चले तो इतना शोर मचाता है कि लगता है तूफ़ान आ गया।’ आगे कविता में सागौन को ‘टाल हैंडसम’ की उपमा से भी नवाज़ा गया है। 

डायरी केवल देखे और किए गए कार्यों का दिलचस्प अंकन ही नहीं है, यह लोक व्यवहार से पुष्ट वैचारिकता से भी सम्पन्न है। शीर्षक ‘जीजी हमेरा कमीसन नहीं देती’ में लेखिका ने भ्रष्टाचार और ईमानदारी पर अपनी सटीक राय रखी है- ‘क्या ईमानदारी एक अवसरवाद है? क्या जो ईमानदार हैं वे इसलिए ईमानदार हैं कि उन्हें अवसर नहीं मिला? कहते हैं पावर करप्ट्स-सत्ता भ्रष्ट करती है। यह सत्ता का अनिवार्य गुण है। लेकिन मुझे लगता है कि यह बीमारी तो आदमी के भीतर मौजूद होती ही है, सत्ता तो उसे केवल बाहर आने का अनुकूल मौसम देती है।’

लेखिका मनुष्य के भीतरी बदलाव को महत्वपूर्ण मानती हैं। उन्हें संदेह है कि किसी भी तरह के बाहरी बदलाव से मनुष्य का जीवन सुखमय हो सकता है। संवेदनशीलता को लेखिका ने सर्वोपरि माना है।  आदमी अगर संवेदनशील होगा तो उससे न हिंसा होगी, ना बेईमानी, न वह चोरी कर सकेगा ना भ्रष्टाचार। वह मनुष्य ही नहीं, हर प्राणी के हित की चिंता करेगा। उससे एक चींटी भी ना मारी जाएगी, एक पेड़ भी ना कटा जाएगा। 

डायरी के उपशीर्षक बरबस आकर्षित करते हैं- ‘जैसे पाँच गाँव पच्चीस रंग’, ‘रात भर का डेरा बन गया गाँव’, ‘टूल बना शूल’, ‘हातापायी वाली हतई’, ‘पूरी सब्जी खुट गई’, ‘हक़ है हिरण को’, ‘देवता शराब पीते हैं’, ‘रूक्का का घर कहाँ है’, ‘पोरी का क्या नाम धरना’, ‘लाल डॉक्टर और देसी सोनोग्राफी’, ‘पानी हिट्यो रे’, ‘सिस्टर सर!’,  ‘कहाँ गया पानपाट’, ‘बदलाव की कुंजी’, ‘अरे अभी तो मीलों मुझको चलना है’। हर अगला उपशीर्षक अपने भीतर एक कहानी सँजोये है। जैसे पानी आगे बहता हुआ आगे बढ़ता जाता है, वैसे ही हर कहानी अपने साथ कई पात्रों, रंगों, कविताओं, दृश्यों और देशज शब्दों-वाक्यों-मुहावरों को लेकर आगे बढ़ती जाती है और सम्मोहित कर लेती है। सच्चाई भी एक जादू है। ये कहानियाँ सच्चाई के जादू से भरी हैं।

मानवीय स्वभाव की पहचान, कठिनाइयों के बीच रास्ता बनाना, लोगों की निगेटिविटी को नज़रंदाज़ करना, उनकी अच्छाइयों को जगाना और सबको को साथ लेकर चलने की लेखिका की क्षमता की कुंजी किताब के एक वाक्य से बरबस मिल जाती है। ‘टूल बना शूल’ का पहला वाक्य देखें- ‘पापा की सरकारी नौकरी के चलते मेरी बारहवीं तक की पढ़ाई चौदह स्कूल में हुई है।’ इतनी अलग-अलग जगहों पर रहने से लेखिका को तरह-तरह के लोगों से मिलने और उनको समझने का मौक़ा मिला होगा। पानी के इस काम में उन अनुभवों का लेखिका को निश्चित ही लाभ हुआ है।  

ऐसी किताबों पर अक्सर नीरस और आत्मप्रशंसा से भरे होने का ख़तरा मँडराता रहता है, लेकिन यह डायरी इन ख़तरों से एकदम मुक्त है। डायरी यह भी रेखांकित करती है कि समर्पित भाव से अपने काम में जुटे समाज सेवी संस्थाओं का काम कितना कठिन और बहुमूल्य है। अनुभवों के ताप से तपी यह डायरी कथेतर साहित्य की अनुपम निधि है। यह किताब सामाजिक कार्यकर्ताओं और ख़ासकर लड़कियों के बहुमूल्य अवदान और उनकी ज़द्दोजेहद को रेखांकित करती है। गाँवों के किसानों और निस्वार्थ भाव से जुटे सामाजिक कार्यकर्ताओं तक भी यह किताब पहुँचनी चाहिए। ज़मीनी अनुभवों से उपजी यह प्रेरक डायरी जनजीवन के जीवंत चित्रों का सुन्दर कोलाज है। यह किताब एक ऐसी लड़की की कोशिशों की डायरी है जो अपने रास्ते में आने वाली हर बाधा को पार करते हुए अपने गंतव्य तक पहुँचती है। 

समीक्षक: 
गोविन्द सेन
राधारमण कॉलोनी, मनावर-454446, जिला-धार, (म.प्र.) मो.9893010439

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