ओम शान्ति

01-10-2020

ओम शान्ति

भगवान अटलानी (अंक: 166, अक्टूबर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

ऐसा कुछ नहीं होता है जो मुझे उद्वेलित या विचलित करे। घर के सदस्यों का व्यवहार, उनका बोलने का ढंग, स्वभाव की अच्छाइयाँ-बुराइयाँ, अच्छी या ख़राब लगने वाली आदतें, खाने-पीने को लेकर नख़रे, व्यवस्थित या अव्यवस्थित जीवन शैली की ठंडी-गरम बयारें, नरमी से कही गई बात के जवाब में भी मिलने वाली अप्रिय प्रतिक्रियाएँ हमेशा की तरह अपने खट्टे-मीठे स्वाद से दो-चार कराती हैं। पसन्द आये या नापसन्द, किसी बात को सामान्यतः तूल नहीं देती हूँ। चुप रहकर, दरगुज़र करके या ‘ओम शान्ति’ कहकर पटाक्षेप कर देती हूँ।

इसके बावजूद क्या हो जाता है कभी-कभी मुझे? क्यों मेरी सकारात्मकता अचानक घोर नकारात्मकता में बदल जाती है? अस्थिरता! क्यों मुझे बदल देती है कभी-कभी? 

हरीश बहुत कम बोलते हैं। शादी हुए पच्चीस साल हो गये। शुरू से देख रही हूँ, उतना ही बोलते हैं जितना बेहद ज़रूरी हो। कई बार बोलते हैं तो मैं मज़ाक में कहती हूँ, “रुकिये, रुकिये, ज़्यादा मोती बिखर गये हैं! समेट लूँ, फिर बोलियेगा।” 

वे सचमुच चुप हो जाते हैं। क्षीण मुस्कान उनके होंठों पर उभरती है, बस। मैं भले ही बोलने के बाद ठहाके लगाऊँ मगर वे प्यार से मुझे देखते रहते हैं। ऐसे अवसर भी आते हैं जब मैं व्यस्त रहने वाले पति से नहीं की जाने वाली माँग भी उनके सामने रख देती हूँ, “दूध, सब्ज़ी, घर का सामान तो आप हमेशा लाते ही हैं। आज छुट्टी का दिन है। पीज़ा खाने का मन है, आप बना दीजिये न?”

वे शान्त भाव से मेरी तरफ़ देखते हैं। चुपचाप उठते हैं और ख़ामोशी से रसोईघर में चले जाते हैं। मैं जाकर ज़रूरत का सामान निकालकर दूँ तो ठीक है मगर वे नहीं पूछेंगे कि अमुक चीज़ कहाँ रखी है? ढूँढ़ने में चाहे कितनी भी दिक़्क़त हो, एक बार भी ज़ुबान नहीं खोलेंगे। जीवन के कई वर्ष हॉस्टल में रहे हैं। सब कुछ पका-बना लेते हैं। कैसे बनायेंगे? कैसा बनायेंगे? नमक, मिर्च, मसाले कम-ज़्यादा तो नहीं हो जायेंगे? व्यंजन स्वादिष्ट बनेगा या नहीं? ये प्रश्न तो यों भी दिमाग़ में उठते ही नहीं हैं। रसोईघर में कौन-सी चीज़ कहाँ रखी है? स्वाभाविक है कि यह जानकारी हरीश को नहीं हो सकती। एक तो कभी-कभार ही ऐसी फ़रमाइश करती हूँ। दूसरे किचन में डिब्बे, बरतन, कुकिंग रेंज, माइक्रोवेव, ओवन, मिक्सी, हॉट केस, कुकर, यहाँ तक कि फ़्रिज रखने की जगह बदलने की मेरी आदत है। एक बार देख लेंगे तब भी दूसरी बार वह चीज़ नई जगह पर ही मिलेगी। फिर भी मज़ाल है कि पूछ लें। चाहेे कितना भी समय क्यों न बरबाद हो, मुझे नहीं बुलायेंगे। 

कम बोलते हैं इसलिये न मुझे कभी कुछ कहते हैं न बच्चों को टोकते हैं। नाराज़ होना है, चिल्लाना है, परेशान होकर ज़ोर-ज़ोर से बोलना है, मैं करूँगी। ये या तो किसी से कुछ कहेंगे नहीं और अगर कहेंगे तो इस तरह कम शब्दों में, धीरे-धीरे, धीमी आवाज़ में कहेंगे कि मैं और बच्चे सभी अधिकार मानकर उसे स्वेच्छा से स्वीकार या अस्वीकार करने में थोड़ा भी नहीं हिचकिचाएँगे। पत्नियों पर हुकुम चलाने वाले पतियों को देखती हूँ तो लगता है कम बोलने का गुण ही मेरे पति का एक मात्र अवगुण है। उनके व्यक्तित्व को कम प्रभावशाली बनाती है शान्त रहने और ज़ोर देकर अपनी बात न रखने या मनवाने की प्रवृत्ति। 

वैसे यह भी सच है हरीश के इस स्वभाव के कारण ही पच्चीस वर्षों तक निभ गया है हमारा वैवाहिक जीवन। मैं प्रकृति से आक्रामक हूँ। जो चीज़ अच्छी लगती है उसे करना भी चाहती हूँ और कराना भी चाहती हूँ। हरीश इसके बिल्कुल विपरीत हैं। वे भी अगर आक्रामक स्वभाव के होते तो दो-दो बच्चे तो दूर रहे, एक दिन नहीं निभती हमारे बीच।

इतना होते हुए भी मैं कभी-कभी बरस पड़ती हूँ। आज की बात है। मैं चीख़ रही थी, “दिया क्या है मुझे इस घर ने? एक गूँगा पति, चुपचाप सुनता रहेगा। बच्चे मनमानी करेंगे, माँ की बात नहीं मानेंगे फिर भी ज़ुबान पर लगा ताला नहीं खुलेगा। मैं तो नौकरानी हूँ इस घर की!”

छोटा बेटा सोनू बहुत वाचाल और शैतान है। हरीश मेरी बात सुनकर चुप बने रहते हैं मगर वह नहीं चूकता, “आप चाहती क्या हैं, ममी?”

“तू बीच में मत बोल।,” मैं ज़ोर से डपटती हूँ। 

“क्यों नहीं बोलूँ? क्या नहीं करते हैं पापा आपके लिये? आप कैसे कहती हैं कि क्या दिया है मुझे इस घर ने?”

“तू मुझसे ज़ुबान लड़ाता है?”

“हाँ, लड़ाता हूँ। मैं पापा नहीं हूँ कि आपकी हर बात चुप रहकर सुन लूँगा।”

मैं बिफर जाती हूँ, “देखो, कैसा पति है मेरा? बच्चे इस तरह बेइज़्ज़ती करें माँ की और बाप चुप रहे। धिक्कार है!”

ऐसे मौक़ों पर हरीश बस इतना ही करते हैं कि उठेंगे, बेटे को बाँह से पकड़ेंगे और साथ लेकर कमरे से बाहर निकल जायेंगे। मैं झींकती, झुँझलाती, बक-झक करती रहूँगी। धीरे-धीरे ठंडी हो जाऊँगी। पहले अड़ जाती थी कि सोनू माफ़ी माँगे। हरीश के बहुत समझाने और कई-कई दिनों तक मेरे न बोलने के बाद भी जब सोनू टस से मस नहीं होता था तो धीरे-धीरे मैं ही ढीली पड़ जाती थी। बिल्कुल मेरे ऊपर गया है। उसके लिये बीवी ऐसी देखनी पडे़गी जो सोनू के पापा जैसी हो। शान्त रहकर उसके हठी स्वभाव को ठंडे जल के छींटे मारकर पटरी पर ले आये। ठीक उसी तरह जैसे ज़रूरत पड़ने पर हरीश मुझे ले आते हैं। 

कहते हैं, पीढ़ी अन्तराल पिता और बच्चों के बीच हमेशा दूरियों और विवादों का कारण रहता हैं। बच्चे जो करना चाहते हैं पिता उसका विरोध करते हैं। विरोध कई बार इतना अधिक होता है कि आर्थिक ज़रूरतें पूरी कराने के लिये भी, बड़े हो गये बच्चे पिता से सीधी बात नहीं करते। माँ बीच में होती है। बच्चों के विचार, बच्चों के काम उसको पसन्द नहीं होते तब भी इस तरह समझाती है कि वे बिदकें नहीं। कोशिश करती है कि बच्चे पिता से बात करें, पिता से सीधा जुड़ें। 

मेरे घर में गंगा बिल्कुल उल्टी बहती है। भले ही नकारात्मकता और आक्रामकता का दौरा कभी-कभी पड़ता है लेकिन कुछ बिना लाग-लपेट के सीधी बात कहने के कारण, कुछ हर व्यवस्था को चाक-चौबस्त रखने की कोशिश के कारण, कुछ अपनी इच्छा मनवाने की चाहत के कारण बच्चे खुलकर बात नहीं करते हैं मुझसे। सोनू नहीं चूकता है तो मैं ध्यान रखती हूँ कि उसके साथ विवाद न हो। हालाँकि यही कोशिश उसकी तरफ़ से भी होती है। भले ही बेबाक बोलता हो मगर मुझे नाराज़ करने पर तुला रहे, ऐसा सोनू के लिये कहना भी उचित नहीं होगा। अगर कभी ऐसी नौबत आती है तो मैं ‘ओम शान्ति’ वाला फ़ार्मूला काम में लेती हूँ। फिर भी सच यह है कि बात बिगड़ने से बचाने का काम हरीश करते हैं। इसीलिये मैं उल्टी गंगा कहती हूँ। जब मैं नकारात्मक होकर हरीश या बच्चों से जो मन में आता है बोलती हूँ, तब भी और सकारात्मक होती हूँ तब भी।

सोनू से बड़ा मोनू बहुत समझदार है। हालाँकि मोनू है केवल दो साल बड़ा सोनू से। है भी कुल तेईस साल का। मगर इतना परिपक्व व्यवहार करता है कि कई बार आश्चर्य होता है। सोनू एंग्री यंग मैन है तो मोनू पू्रडैन्ट यंग मैन। घर में बाक़ी तीनों सदस्यों की नब्ज़ पर उसकी अँगुली रहती है। कौन किस तरह ख़ुश रहेगा, किससे कैसा व्यवहार किया जाये कि वह नाराज़ न हो, मोनू अच्छी तरह जानता है। सोनू भी उसे आदर देता है। उसकी बात को ध्यान से सुनता है और आम तौर पर उसके परामर्श को मानता है। मैं जब ख़राब व्यवहार करती हूँ, मूड बिगड़ा हुआ होता है, चाहा-अनचाहा जो मन में आता है बोल देती हूँ तब भी सोनू की तरह कभी आक्रोशित नहीं होता है। बस, कोई बहाना बनाकर घर से निकल जाता है। टकराना तो दूर रहा, न कभी जवाब देता है ऐसे मौक़ों पर और न कभी उसके चहरे पर तनाव या शिकन के संकेत मिलते हैं। अन्दर ज़रूर हलचल होती होगी वरना घर से बाहर जाने की बात क्यों सोचता? 

मेरी मनःस्थिति भले ही दो-चार दिन प्रतिकूल रहे मगर विस्फोट के बाद सामान्य जीवन की ओर लौटने का सिलसिला शुरू हो जाता है। हरीश ऐसे अवसरों पर पूरी तरह प्रभावित होते हैं। कुछ दृश्य से हट जाने के कारण, कुछ वापस घर लौटने तक मेरे तेवर ढीले पड़ जाने के कारण और कुछ मन में नरमी के भाव के कारण मोनू शायद ही कभी चपेट में आता है। सोनू को तो ख़ुद मैं भी हाशिये पर रखना चाहती हूँ।

प्रश्न है, क्या हो जाता है कभी-कभी मुझे? क्यों मेरी सकारात्मकता अचानक नकारात्मकता में बदल जाती है? क्या चन्द्रमा बहुत प्रबल है मेरा? वही करता-कराता है यह सब? भले ही कभी-कभी नाराज़ होना, चिल्लाना, मीन-मेख निकालना, वांछित-अवांछित बोलना मेरे किये-कराये पर पानी फेरता है मगर रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में सोनू सहित घर के सदस्य और बाहर के सब लोग, रिश्तेदार मेरी तारीफ़ करते हैं। स्वभाव की अस्थिरता को घर के प्राणी झेलते हैं इसलिये मेरे व्यक्तित्व के इस पहलू को बख़ूबी समझते हैं। दूसरे लोगों के सामने मेरा यह स्वरूप सर्वथा अपरिचित है। हरीश या सोनू अगर कह भी दें तो कोई विश्वास ही नहीं करेगा। अस्थिर स्वभाव मुझे बेक़ाबू क्यों कर देता है, इस प्रश्न का उत्तर मुझेे आज तक नहीं मिल पाया है। 

सामान्यतः हम चारों रात का भोजन साथ करते हैं। नियोजित बातें तो एक-दूसरे से कर ही लेते हैं, अनियोजित चर्चाएँ, हँसी-मज़ाक, घटनाओं और व्यक्तियों का विश्लेषण, सीखने-समझाने के सूत्र, सामूहिक निर्णय, सब कुछ आता है भोजन के साथ हमारे सामने। कई बार नमक, मिर्च, भोजन का स्वाद गौण हो जाते हैं। हम चारों डूब से जाते हैं उन विषयों में। भोजन जीभ का नहीं, पेट का उपकरण बन जाता है। हम चारों हर बिन्दु को छूते हैं मगर एक घोषित समझौते के अनुसार एक-दूसरे पर भोजन के समय आरोप-प्रत्यारोप नहीं लगाते हैं। सोनू का मुँहफटपन और मेरा मूड भी इसका अपवाद नहीं बनते हैं। सोनू के ऊपर तो कोई असर नहीं पड़ता है। बोल-बालकर हाथों-हाथ हिसाब कर देता है मगर मेरा मूड ख़राब होता है तो दो-चार दिनों तक खिंच जाता है। समझौते के कारण ऐसी मनः स्थिति के चलते मैं भोजन के दौरान चुप रहती हूँ। ज़रूरी हुआ तो हाँ-हूँ में जवाब देती हूँ। दूरगामी प्रभाव डालने वाला यह फ़ैसला हमने न लिया होता तो हो सकता है, भोजन अधूरा छोड़कर मेज़ छोड़ने की स्थिति आ जाती एक-आध बार। हरीश और मोनू के कारण भले ही यह नौबत न आती किन्तु सोनू और मैं क्या कम हैं? कभी-कभी ही सही लेकिन खाने की मेज़ महाभारत का मैदान बन जाती।

मैंने दिन के समय घर के वातावरण को पूरी तरह तनावग्रस्त बनाया था। भोजन करते समय मुझे गुमसुम और ख़ामोश रहना है, तीनों जानते हैं। मेरा मूड ख़राब है जानते हुए भी सोनू ने हँसते-हँसते मुझे छेड़ा है, “आप बहुत अच्छी हैं ममी। हमेशा अच्छी बनी रहिए न?" 

“क्या मतलब?” मेरी भृकुटी तन गई है। 
“मैं कह रहा था, मोनू की शादी होगी तो भाभी ज़रूर पूछेगी कि जिस घर ने मेरी सास को पच्चीस-तीस सालों में कुछ नहीं दिया, वह मुझे क्या देगा?” 

मैं उबलूँ इससे पहले मोनू ने आँखें तरेरते हुए उसे चुप करा दिया है, "मेरी चिन्ता तू मत कर, सोनू।" सोनू ठहाका लगाकर हँसा है। इसके साथ मोनू खुलकर मुस्कराया है, हरीश के चेहरे पर हल्की मुस्कान उभरी है और मैं सिकुड़ गई हूँ। 

मोनू ने दिशा भले ही बदल दी हो मगर सोनू का प्रश्न मुझे लगातार मथ रहा है। बहू नहीं, कोई दूसरा भी सोनू की तरह पूछ ले कि क्या नहीं दिया है मुझे इस घर ने या और क्या पाना चाहती हूँ मैं इस घर से या क्या एक-दो-तीन-चार गिना सकती हूँ कि मेरी परेशानी का सबब कौनसी शिकायतें हैं या कौन है जिसे मैं कठघरे में खड़ा करना चाहती हूँ, तो क्या जवाब है मेरे पास? 

होगा ग्रहदोष मगर कौन-सी ग़लती है घर के किसी सदस्य की कि जिसकी सज़ा देती हूँ मैं उसे? कोशिश नहीं करती हूँ स्वयं को नकारात्मकता से बचाने की इसलिये बहुत जल्दी हावी हो जाती है ऐसी मानसिकता। अस्थिरता का दौरा रोक न सकूँ चाहे मगर ऊल-जलूल बोलने, चीख़ने चिल्लाने, चुभने वाले शब्दों को इस्तेमाल करने, अवांछित आरोप लगाने के लिये एकाएक उठे ज्वार की तीव्रता को कम तो कर सकती हूँ न? घर का वातावरण प्रदूषित होता है तो केवल मेरी वज़ह से। जब तक मूड ख़राब रहता है पूरा परिवार जैसे सहमा-सहमा रहता है। 

सबसे बड़ी बात कि मन ही मन मैं बेहद दुखी हो जाती हूँ। कारण रहित असंतोष मुझे निरन्तर उद्वेलित करता है। क्या अधिकार है सबको कर्फ़्यूग्रस्त करने का मुझे? शादी के पच्चीस सालों के बाद जब बच्चों की, पति की, घर-गृहस्थी की चिन्ता सर्वोपरि होनी चाहिये, अस्थिरता का बगूला सब कुछ मटियामेट कर जाता है। चक्रवात मन चाहे ढंग से घुमाता है और मैं स्वयं को पूरी तरह ढीला छोड़ देती हूँ। प्रतिरोध कर पाऊँगी? नकारात्मकता के कभी-कभी पड़ने वाले दौरे की भड़ास किसी दूसरे पर न निकालकर ख़ुद पर क्यों नहीं निकालती हूँ मैं? विपत्ति में घबड़ाती नहीं हूँ, डटकर मुक़ाबला करती हूँ। इसका अर्थ है कि मन से कमज़ोर नहीं हूँ। मेरी इच्छा शक्ति मज़बूत है। फिर क्यों अस्थिर मनःस्थिति के दौरान तूफ़ान में फँसी नाव की तरह छोड़ देती हूँ मैं अपने आपको?

दोपहर के समय कुछ देर सोने की आदत है। ऊहापोह, असमंजस, सोच-विचार ने रात को ठीक प्रकार से सोने नहीं दिया था। लेटते ही नींद ने घेर लिया है। अचानक लगता है, किसी ने बुलाया है, "ममी।" आलस्य भरी तन्द्रा ने आँख खोलने नहीं दी है। बिना हिले-डुले लेटी रहती हूँ। फिर आवाज़ आती है, "ममी।" 

सोनू है। मैं आँखें खोल देती हूँ। उसकी तरफ़ निहारती हूँ। "प्लीज़ ममी, मैगी बना दीजिये न?"

झुँझलाहट ने मुझे झिंझोड़ दिया है। शब्दों का तूफ़ान सा उठा है और मेरी आवाज़ को छीनकर ले गया है, “कैसा लड़का है? सो रही माँ को जगाकर मैगी बनाने के लिये कह रहा है!” 

मेरे चेहरे पर आक्रोश और मन में क्रोध की दुंदुभियाँ बजने लगी हैं। 

"ज़रा भी तमीज़ नहीं है तुझमें?" शब्द आग बनकर ज़ुबान तक आये ही हैं कि मुझे अपना संकल्प याद आ जाता है। हो सकता है, सामान्य मनोदशा में भी मेरी यही प्रतिक्रिया होती और अनायास मैंने यही वाक्य बोला होता मगर बिगड़े मूड के चलते तो आपे से बाहर हो जाती। अब मुझे सँभालना है ख़ुद को। अपने संकल्प को पूरा करना है मुझे। स्थितियाँ-परिस्थितियाँ कितना भी क्यों न उकसायें, कमज़ोर नहीं पड़ना है। नहीं बनूँगी कमज़ोर मैं। ख़ामोशी से उठती हूँ। किचन में जाकर सोनू के लिये मैगी बनाती हूँ। कमरे में उसे देने जाती हूँ तो मुस्कराकर वह मेरी बाँह पकड़ लेता है, “अभी तो दूसरा ही दिन है न, ममी?” 

मेरी आवाज़ में नरमी है, "ओम शान्ति!"
 

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