02 - ओ.के. (o.k) की मार

21-02-2019

02 - ओ.के. (o.k) की मार

सुधा भार्गव

10 अप्रैल 2003

अगले दिन सुबह बड़ी रुपहली लगी। खुशी-खुशी गुनगुनाती धूप में रेडिसन होटल को नमस्कार किया और एयरबस से पुन: एयरपोर्ट जा पहुँचे। उसी दिन दोपहर 12:30 पर विमान कनाडा जाना था। डी ज़ोन में पहुँचकर जब हमने काउंटर पर टिकट दिखाकर बोर्डिंग पास माँगा तो कनेडियन पदाधिकारी ने कहा-आपका टिकट पूर्णतया स्वीकृत नहीं है। नाम प्रतीक्षासूची में है।

हमारे तो देवता कूच कर गए। सूखे पत्ते की तरह विदेशी भूमि पर खड़े खड़खड़ाने लगे। टिकट पर तो ओ.के. लिखा था और हम मान कर चल रहे थे कि आज अपने बेटे के पास पहुँच जाएँगे।

’जब अनुमोदित टिकट न था तो आपने इस पर 0.k. क्यों लिख दिया,’ मैं झल्ला उठी।

"0.k. तो इसलिए लिख दिया ताकि आप एयरपोर्ट से बाहर जाकर होटल में आराम कर सकें। आप साढ़े ग्यारह बजे तक प्रतीक्षा कीजिए। टिकट मिल जाएगा, अगर नहीं मिला तो बताइएगा।"

उन्हें हमारी रोनी सूरत पर शायद तरस आ गया होगा और हम... हम ओ.के. की मार खाकर भी चुप हो गए। लगा दिमाग ठस हो गया है और कानों से कम सुनाई देने लगा है।

अब डेढ़ घंटा तो किसी तरह गुज़ारना ही था।

एयरपोर्ट का नज़ारा

कनाडा ऑफिस के सामने ही सुंदर सोफे पड़े थे। वहीं हम अपनी यात्रा का भविष्य जानने को बैठ गए। मन ही मन मैंने गायत्री मंत्र का जाप शुरू कर दिया! ब्रह्मा,विष्णु महेश का आवाहन करने कगी। संकटमोचन हनुमान भी दिमाग में छाए थे पर शीघ्र ही वहाँ के शोर शराबा, तड़क-भड़क और फ़ैशनपरस्ती में खो गई।

हमारे जैसे बहुत से परेशान यात्री अपना समय किसी तरह बिताने के लिए मजबूर थे। बैठने वाला कभी खड़ा हो जाता, कभी ट्रॉली पर अटैची रखकर कैपच्यानो कॉफी पीने चल देता। अंत में उसकी आँखें घड़ी पर टिक जातीं या उस सूची पर जहाँ विमानों के आने-जाने का समय बिजली की रोशनी में दमकता रहता है।

हाँ, एक बात की मैं प्रशंसा किए बिना न रहूँगी। मैंने एयरपोर्ट पर देखा- विकलांगों, रोगियों और वृद्धों की विशेष देखभाल हो रही है।

कुछ देर में मेरे सामने वाली बैंच पर एक बुजुर्ग आकर बैठे। वे ख़ुद चलने में पूर्ण समर्थ न थे इसलिए पहिये वाली कुर्सी पर बिठा कर लाए गए। एयरलाइंस के कर्मचारी आते-जाते उन्हें हलो कह रहे थे। एक कर्मचारी आया उन्हें पानी पिला गया, सेवाधर्म निभा गया। पर ये वृद्ध बड़े हताश से लग रहे थे। गुमसुम से अपनी छड़ी हिला रहे थे मानो वह ही उनके शेष जीवन की साथिन है। चेहरे की मुसकान अकेलेपन के दर्द की चादर से ढकी नज़र आई। कुछ देर बाद उनकी उड़ान का समय हुआ – एक कर्मचारी भागा आया और उनको ले गया। धीरे–धीरे वे दूर होते गए पर बहुत कुछ छोड़ गए मेरे मानस मंथन के लिए।

व्हील चेयर वाले वुजुर्ग वहाँ काफी थे पर आश्चर्य! किसी के साथ भी उनका कोई रिश्तेदार नहीं। मुझे बुढ़ापे का रंग बड़ा मटमैला और असहाय लगा। वैसे तो बुजुर्ग नागरिक की देखभाल का दायित्व लंदन, अमेरिका, कनाडा आदि देशों में सरकार पर है जिन बच्चों को माँ–बाप ने जन्म दिया है उसके प्रति संतान का भी तो कुछ कर्तव्य बनता है। बच्चों का भी क्या कसूर! व्यक्तिगत भोगवादी–सुविधावादी प्रवृति में लिप्त माता-पिता इतने व्यस्त हैं कि औलाद की ख़ातिर अपने सुख का त्याग करने को ज़्यादा समय के लिए शायद वे तैयार नहीं। ममता के आँचल और पिता की छत्रछाया के अभाव में रेतीली आँधियों का उठना तो स्वभाविक है फिर भावनाएँ भी दरक जाएँ तो आश्चर्य नहीं। इस शुष्कता के जंगल में वर्ष में एक बार मातृदिवस या पितृदिवस मनाने से क्या होगा, हृदयस्थली तो सरस हो नहीं पाएगी। मुझे तो ऐसा लग रहा है कि यहाँ प्यार की बौछारें भी गणित के नियमों से बद्ध हैं।

आशा के विपरीत कुछ ही दूरी पर हँसी का फब्बारा छूटता देख आश्चर्य से भर उठी। भारतीय अधेड़ पति–पत्नी की दंत पंक्तियाँ जगमगा रही थीं। लंदन में पढ़ने वाला जवान बेटा उनसे मिलने आया था। माँ ने अपने पुत्र का हाथ कसकर पकड़ रखा था ताकि एहसास बना रहे कि उसका बच्चा दूर नहीं। बेटा भी बड़ी आत्मीयता से माँ-बाप के साथ अपने अनुभव बाँट रहा था।

कानों में उसका मृदुल स्वर गूँजा -

"माँ..माँ यहाँ कॉफी बहुत अच्छी मिलती है। ले आऊँ?"

"न बेटा बड़ी महँगी है।"

बेटा "अभी आया" कहकर गायब हो गया। पलक ठीक से झपके भी नहीं थे कि दोनों हाथों में दो कॉफी के गिलास लेकर हाज़िर हो गया।

"पापा...कॉफी लो।"

"बेटा तू पी ले।"

"मैं और माँ एक में से ही चुसकियाँ ले लेंगे। मैं तो पीता ही रहता हूँ। हाँ, माँ के हाथ की बनी पूरी-सब्जी नहीं मिलती। जल्दी से दो न माँ!" शिशु की तरह जवान बेटा मचल उठा।

"न जाने कितने समय से तुम्हारे हाथ का ज़ायकेदार खाना नहीं खाया है," - कहकर माँ के पास भोली सूरत बनाकर वह बैठ गया।

शब्दों की गहराई को नाप माँ पुलकित हो उठी।

"मैं पूरी के साथ भरवां करेले भी बनाकर लाई हूँ। बहुत दिनों तक ये खराब नहीं होंगे। फ्रिज में रख देना।"

"ये तो बहुत हैं!"

"बहुत नहीं हैं। जब भी तू इन्हें खाएगा 'माँ' शब्द की मिठास इनमें घुल जाएगी फिर सब कुछ भूल-भाल कर मेरी यादों में खो जाएगा।"

"माँ ऐसा कहोगी तो तुम्हारे पास ही बैठा रहूँगा।"

"सच!" माँ ने दोनों हाथों से पुत्र का चेहरा थाम लिया और बेटा निहाल हो गया।

माँ ने बड़े सधे हाथों से आधी पूरी में आलू की सब्जी रख उसे लपेटा और बेटे के मुँह में डाल दिया। तभी एक एंग्लोइंडियन वहाँ आकर खड़ा हो गया। एक मिनट उनको घूरता रहा फिर मंद हास से उसके ओठ थिरक उठे... हैपी फैमिली (happy family)। रिश्तों की यह मधुरिमा पश्चिमी हवाओं में कहाँ?

 

क्रमशः-

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