सुधि सरोवर में खिला
फिर एक पीर पद्म
तजेगा निज प्राण
मन भंवर
चख प्रेम छद्म
विष भरा है इसके भावों में
शांत मन सरोवर सा है
नहीं अब है हृत्ताप,
व्यथा और भ्रम
उठेंगे ज्वार -
इसमें सागर सम
विरह के भावों के
संशय से होता
जब प्लावित हृदय
पदचिन्ह मिट जाते
जल में न मिलते राह
न होते ठौर
प्रीत के गाँवों के
बहे जब प्रतिकूल
प्रचण्ड पवन
ले वेग प्रबल
टूटें पतवार सभी
आस की नावों के
छाए जब विरह घन
कर उठता रुदन
नील गगन
बरसे अगन
इसकी छाँवों से
ओ भंवर
न देख इस दिश
न चख यह विष मकरन्द
रिसेगा लहू फिर
प्रेम के घावों से
ओ भंवर
जा चूम कोई नव-मुकुल
मेरा तो क्लांत हुआ पुष्प-मन
मत ठहर यहाँ
अभी बचा है
चक्र तेरे पाँवों में॥