ओ बसंत रुक जा
रेखा सिंहसरसों के फूल खिले पीले-पीले
मोजरायी गंध लिए पुरबा चले
पपीहा पुकार करे अमवां तले
बिरहन के आज क्यों जियरा जले
तपन और तुदन तू दे सुलझा
ओ बसंत रुक जा. . .
दुल्हन ने ओढ़ ली पीली चुनर
हाथों में मेहंदी पैरों में झाँझर
नैना हैं लाज भरे बाली उमर
गौने का दिन आया, गाओ झूमर
आँखों में नीर भरे पीहर से दूर जा
ओ बसंत रुक जा. . .
वीणावादिनी आई घर आज
शिवजी बारात चले ढोलक और साज
फागुन की गूँज उठी दिनों का ताज
सबसे निराले हो तुम ऋतु राज
ख़ुशियाँ मनाओ सारे ग़म भूल जा
ओ बसंत रुक जा. . .
बरसों बाद आया मेरे पास
मन कलियाँ खिलें छाया उल्लास
रंग-बिरंगे फूल खिले आया मधुमास
प्रीतम न आये मैं बैठी उदास
कोयल की कूक सून मन है उलझा
ओ बसंत रुक जा. . .