नज़र अपनी अपनी

30-08-2007

नज़र अपनी अपनी

पाराशर गौड़

एक बच्चे की
आँख की रोशनी 
पल पल जाती रही
कम होती गई
माँ-बाप को हुई चिंता
इसका क्या होगा?
गर... इसकी रोशनी चली गई।

 

बाप बोला....
एक काम करें
इसकी आँखों की 
रोशनी कम होने पहले
क्यों ना, अख़बारों में
इश्तहार दें ...


"एक बच्चे को आँखें चाहिए
उसे अन्धा होने से बचाएँ ... "


कुछ दिनों के बाद
टेलीफोन खड़के, 
आवाज़ आई
मुबारक हो..
आपके बच्चे को 
आँखें मिल गईं।


माँ-बाप ने दी दुआ ..
आपरेशन हुआ
पट्टी खुली, माँ बोली .. ..


"बेटा, कुछ दिखाई दे रहा है
वो, बोला. ..  "हाँ"
ये सुनकर सब की बाँछे खिलीं
आवाज़ आई...
"शुक्र है ख़ुदा का और उसका भी,
जिसकी आँखें इसे मिलीं।"


वो उठा. . .,
सब को वहीं छोड़
सामने कुर्सी की ओर दौड़ा
धम्म से जा धस्सा..
बैठा उसमें होकर चौड़ा
सब एक दूसरे को देखते रहे
इशारों से पूछते रहे -
ये ऐसा क्यों कर रहा है
ये क्या हो रहा है।


तभी किसने कहा. . .
इसमें इसका कोई दोष नहीं
ये बात, आपकी 
समझ में नहीं आयेगी
दरसल, इसको 
जो आँखें मिली हैं,
वो, किसी नेता की हैं
वो आप लोगों को थोड़ी देखेंगी
वो- तो.. कुर्सी को देखेंगी।

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