निराशा

अभिषेक पाण्डेय (अंक: 180, मई प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

लेकर आया हूँ जीवन रण से,
करूँ कहाँ ये हार विसर्जित?
टूट चुका अब अंतर्मन है,
किसे कहूँ ये व्यथा अपरिचित?
 
इस निर्मम जीवन यात्रा में,
पग चलते चलते शिथिल पड़े।
सुप्त वेदना जाग उठी,
अब  डबडब चक्षु बिफर पड़े॥
 
पहले भी टूटा था बार अनेकों,
पर नहीं टूटकर बिखरा था।
गिर गिरकर उठता जाता था,
हर संकट से लड़कर निखरा था॥
 
पर ये हार ज़रा अलबेली है,
दुर्जय है, कठिन पहेली है।
सपनों के नाज़ुक तारों से,
निर्दय होकर ये खेली है॥
 
झोंके संग लिए ये आयी,
आशा के दीप बुझाने को,
हर्षित, पुष्पित अभ्यन्तर को,
अश्रु रजनी में कहीं डुबाने को॥
 
झोंके झेल नहीं पाये,
आशा के झिलमिल दीप बुझे,
प्राणों के करुणा क्रन्दन से,
अभ्यन्तर में उठते गीत बुझे॥
 
क्या यही निराशा लम्बी होकर,
जीवन में छा जाएगी?
सुख-खाद रहित जीवन-लतिका,
कब तक यूँ मुरझाएगी?

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