रिश्तों की बेड़ियाँ 
अगर काट सकती
तो शायद हर नाम काट देती
पंख लगा कर अगर 
मैं उड़ सकती
तो शायद सबसे दूर 
मुक्त आकाश में विचरती

 

सपने देखना अगर
 मैं छोड़ पाती
तो शायद यथार्थ के 
कटु सत्यों का सामना कर पाती
अपनी हर अभिलाषा को 
अगर कैद कर पाती
तो शायद एक ही जगह 
स्थिर रह कर जी पाती

 

पर क्या करूँ
यह "अगर" - "शायद" 
तक ही सीमित है

 

मैं चाह कर भी रिश्तों के बाँध,
सपनों की नाव
अभिलाषाओं का 
बहाव नहीं छोड़ पाती
पता नहीं क्यों 
यथार्थ में रह कर भी
मैं अपने पंख 
नहीं काट पाती
हर कटुता को 
पहचान कर भी 
मैं चाहत और आशा के 
दीप नहीं बुझाती
आकाश दूर है पर
फिर भी उसमें विचरने की
राह मैं दिन रात खोजती
सभी दुखों को पहचान कर भी
मैं ज़्यादा देर तक 
उदास नहीं रह पाती
मैं हर निगाह में प्यार और 
अपनापन ही झाँकती
मैं चाह कर भी 
वैसी नहीं हो पाती 
जैसे अकसर हो जाते हैं लोग।

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