नया रिश्ता

01-09-2020

नया रिश्ता

स्व. अखिल भंडारी (अंक: 163, सितम्बर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

मैंने किचन की खिड़की का पर्दा हटा रखा था ताकि एक नज़र ड्राइव’वे पे बनी रहे। खाना लगभग तैयार था। छह बजने में अभी कुछ मिनट बाक़ी थे। जैसे ही ग्रेसी की कार आती दिखाई दी, मैं बच्चों के स्वागत में घर के मुख्य द्वार पर आ कर खड़ा हो गया। लेकिन आज ग्रेसी दरवाज़े तक नहीं आई और न ही उस ने कार का इंजन बंद किया। दोनों बच्चे अपना-अपना बैग उठाए जैसे ही दरवाज़े तक पहुँचे, उस ने हाथ हिला कर अलविदा कहा और एक ही पल में नज़र से ओझल हो गई।

मीरा ने बैग नीचे रखा और मुस्कुराते हुए दोनों हाथ मेरी ओर बढ़ा दिए। नील किसी सोच में गुम था, मैंने ख़ुद ही उसे खींच कर गले लगा लिया। मीरा ने हर बार की तरह ग्रेसी की लिखी हुई एक लिस्ट मुझे पकड़ा दी। इस में इन दोनों की वीकेन्ड की गतिविधियों और होम वर्क इत्यादि का विवरण था। मैंने दोनों से हाथ मुँह धो कर दस मिनट में खाने की टेबल पर आने को कहा और ख़ुद किचन में जा कर बाक़ी काम निबटाने में लग गया।

“डिनर में क्या है?” नील ने डाइनिंग टेबल पर बैठते ही पूछा।

“मैंने तुम्हारे लिए पास्ता और सैलड बनाया है।”  

“आई हेट पास्ता! मुझे पास्ता बिल्कुल पसंद नहीं। तुम्हारे पास और क्या है?” वह काफ़ी चिढ़ा हुआ लग रहा था। 

“मेरे पास चिकन करी और राइस भी है।”

“तुम से किस ने कहा कि मुझे इंडियन फ़ूड पसंद है?” उस का ग़ुस्सा बढ़ता जा रहा था।  

क्या यह आजकल माँ पर भी ऐसे ही ग़ुस्सा करता है? अपनी इस परिस्थिति के लिए यह किसे ज़्यादा ज़िम्मेदार  मानता है? मुझे या माँ को? क्या मीरा को भी ग़ुस्सा आता है? मैंने शांत बैठी मीरा को देखते हुए सोचा। उस के मन में इस वक़्त क्या चल रहा है?  

“कहीं बाहर खाना पसंद करोगे?” मैंने प्यार से नील के बालों को सहलाते हुए कहा। 

“डैड, कल हमारी वाशिंग मशीन ख़राब हो गई थी। आज हमें मैले कपड़े पहनने पड़े। इसी लिए इस का मूड ख़राब है,” मीरा ने बात बदलते हुए कहा। बारह साल की मीरा इन दिनों अपनी उम्र से अधिक संवेदनशील होती जा रही थी। उसने यह शायद मुझे अच्छा महसूस कराने के लिए कहा था।

“रिपेयर मैन को क्यों नहीं बुलाया?”

“बुलाया था। वह बहुत पैसे माँग रहा था। मॉम ने ग़ुस्से में मना कर दिया। मॉम ने कहा इतने में तो नई मशीन आ सकती है।”

“मॉम ने यह भी कहा कि अगर पिछले साल तुम ने मशीन बदलवा दी होती तो आज यह समस्या नहीं आती,” नील मीरा को टोकते हुए बोल पड़ा।

“नी......ल!” मीरा ने तीन साल छोटे भाई को घूरते हुए कहा, “क्या तुम चुप रह सकते हो?”  

“इस में डैड का क्या दोष है? मॉम भी तो यह काम करवा सकती थी।”

“डैड, डिज़र्ट में क्या है?” मीरा ने फिर बात बदलते हुए कहा।

“मेरे पास दो तरह की आइसक्रीम है – चॉकलेट चिप और स्ट्रॉबेरी।”

“क्या मैं दोनों ट्राई कर सकता हूँ?” नील अब सुलह के मूड में था।

“बिल्कुल!” मैंने दोनों को पास्ता परोसते हुए कहा।

*

शनिवार सुबह दोनों का दस बजे स्विमिंग लैसन था। कम्युनिटी सेंटर उस घर के पास था। कल शाम को बच्चे आधा घंटा लगा कर इधर आए थे और अब वापस उस तरफ़! अचानक विचार आया कि यह दोनों इस व्यर्थ की भाग-दौड़ के बारे में क्या सोचते होंगे? क्या आधे घंटे के इस सानिध्य को और उपयोगी बनाया जा सकता है? 

स्विमिंग पूल ओलिंपिक साइज़ का था और इस में एक साथ कई कक्षाएँ चल रही थीं। बच्चों के माता-पिता और अभिभावकों की ख़ूब चहल-पहल थी। मैंने भीड़ से अलग अपने लिए एक सीट तलाश की, आइपैड निकाला और ‘टोरांटो स्टार’ का शनिवार संस्करण पढ़ने में व्यस्त हो गया। तभी दूर से मिसेज़ गुप्ता आती दिखाई दी। उस की बड़ी बेटी दिव्या मीरा की क्लास में थी और छोटी काव्या नील की। मिसेज़ गुप्ता एक बातूनी और जिज्ञासु महिला थी। कुछ कहने से पहले सोचना उस के स्वभाव में नहीं था और वह बेझिझक कोई भी निजी प्रश्न पूछ सकती थी। मैंने जल्दी से आइपैड बैग में डाला और बिना उस का सामना किए बाहर जाने का रास्ता देखने लगा। किंतु वह मेरी ही तरफ़ आ रही थी और आज उस से बच निकलना कठिन था।  

“आप ने घर बहुत दूर ले लिया है। बच्चों को लाने ले-जाने में कितना वक़्त बर्बाद होता होगा!”  

“नरेश कैसे हैं?” मैंने उस की बात पर ध्यान न देते हुआ कहा।

“नरेश दोस्तों के साथ गॉल्फ़ का आनंद ले रहे हैं! गॉल्फ़ तो आप को भी पसंद है न?”

“मेरे लिए महीने में एक दिन काफ़ी है,” मैंने बात ख़त्म करने के इरादे से कहा। 

“आप कहें तो आज मीरा और नील को लंच पर घर ले जाती हूँ? आप दोपहर में कभी भी लेने आ सकते हैं,” उस के स्वर में एक दिखावटी सहानुभूति थी।   

“फिर कभी....आज मुश्किल हो जाएगा। दो बजे नील का सॉकर मैच है और चार बजे मीरा की बास्केटबॉल प्रैक्टिस।”   

“अच्छा तो मीरा को ही आने दीजिए। चार बजे मुझे भी दिव्या को बास्केटबॉल प्रैक्टिस में लाना है।” 

“मीरा आज नील का मैच देखना चाहती है। अगर आप बुरा न मानें तो मुझे इस वक़्त बैंक जाना है। चार बजे फिर मिलते हैं,” उसे और कुछ कहने का मौक़ा न देते हुए मैं वहाँ से चल दिया।  

आज बहुत दिनों बाद नील ने मैच में गोल किया था। उस की टीम जीत गई थी और वह काफ़ी उत्साहित था। मैं देर तक उस की पीठ थपथपाता रहा।

“लेट अस सेलिब्रेट डैड! आज नील की पसंद के रेस्टोरेंट में खाना खाने चलते हैं,” मीरा भी काफ़ी खुश थी।

*

इतवार सुबह उठने की कोई जल्दी नहीं थी। दोपहर के बाद हम लाइब्रेरी चले गए। यह मीरा के होम वर्क के लिए आवश्यक था और नील को भी कोई आपत्ति नहीं थी। चार बजे हमें म्यूज़िक अकैडमी पहुँचना था। मीरा को अपनी पियानो टीचर मिसेज़ विल्सन से बहुत लगाव था और पियानो सीखना उस के लिए वीकेन्ड का मुख्य आकर्षण था। नील वायलिन सीखने की आवश्यकता पर हमेशा प्रश्न करता लेकिन जैसे जैसे वह सीख रहा था, उस का विरोध भी कम हो रहा था। ठीक साढ़े पाँच बजे हम घर पहुँच चुके थे और ग्रेसी के आने का इंतज़ार कर ही रहे थे कि उस का मैसेज आ गया। 

“मैं छह बजे नहीं आ पाऊँगी। देर हो सकती है।” 

“कितनी देर?”

“कुछ कह नहीं सकती। थोड़ी देर में बताती हूँ।”

सात बजे अनिल के यहाँ एक बड़ी पार्टी थी। उस ने मेरी सुविधा के लिए शनिवार की बजाए इतवार का दिन नियत किया था। डिनर के बाद संगीत का प्रोग्राम भी था। मेरे न आने से उसे कितनी निराशा होगी! सोचा ग्रेसी को बता दूँ, मगर कुछ सोच कर रुक गया। लेकिन खीज भी हो रही थी। कहाँ है? क्या कर रही है? मेरे लिए यह सब पूछना अब उचित नहीं था परन्तु मन में कई तरह के विचार उठ रहे थे। शायद किसी पार्टी में हो और ख़ूब पी रखी हो! या जान-बूझकर मुझे परेशान करने की नीयत से ऐसा कर रही हो। शुक्रवार शाम का उस का रवैया अब कुछ खटक रहा था। तलाक़ का फ़ैसला वैसे तो बिना किसी विवाद के हो गया था लेकिन बच्चों के संरक्षण को ले कर मतभेद अवश्य हुआ था। उसे हर वीकेन्ड बच्चों को मेरे पास छोड़ना बिल्कुल ग़लत लग रहा था। उसे डर था कि इस से बच्चों के बहुमुखी विकास पर असर पड़ेगा। वह सिर्फ़ एक वीकेन्ड के लिए तैयार थी लेकिन अंत में हर महीने के पहले और तीसरे वीकेन्ड के लिए मान गई थी। वास्तव में, हम में से कोई भी वकीलों–कचहरियों के चक्कर में नहीं पड़ना चाहता था।   

“क्या आज रात बच्चे तुम्हारे पास रह सकते हैं?” आधे घंटे बाद उस का एक और मैसेज आया।

“ठीक है,” संपर्क की इस विधि से कम से कम मेरी खीज तो प्रकट नहीं हो रही थी। 

“क्या कल सुबह उन्हें स्कूल छोड़ आओगे?”

“उनके कपड़े, स्कूल बैगस?”

“ओह! मैं भी क्या सोच रही थी! चलो इस की चिंता बाद में करते हैं।”

मैंने पहले तो अनिल को फोन किया, फिर बच्चों को बताया की मॉम किसी ज़रूरी काम में व्यस्त है, आज नहीं आ पाएगी – साथ ही उन से शाम का प्रोग्राम बनाने के लिए भी कह दिया। मीरा ने अपना फोन निकाला और दोनों गूगल पर इस काम में जुट गए। 

“डैड, मूवी देखने जा सकते हैं क्या? पास के थिएटर में साढ़े सात का शो है। साढ़े नौ तक वापस आ जाएँगे। वहीँ कुछ खा लेंगे,” मीरा ने थोड़ा झिझकते हुए कहा।

“बहुत बढ़िया विचार है मीरा!” मेरे कहते ही दोनों के चेहरे पर प्रसन्नता की लहर दौड़ गई।

दस बजे दोनों को सुला कर मैंने स्कॉच का एक पेग बनाया और रेकलाइनिंग चेयर पर आराम से पैर फैलाते हुए धीमी आवाज़ में टीवी चला दिया। मन अनिल के यहाँ चल रही पार्टी की कल्पना कर रहा था। कई दिनों बाद कहीं जाने का अवसर आया था। वैसे ग्रेसी के प्रति आया ग़ुस्सा अब जा चुका था। बच्चे ख़ुश थे – विशेषकर नील! लेकिन ध्यान टीवी देखने में नहीं था। कहाँ होगी? बच्चे कल स्कूल कैसे जाएँगे? सोचा पूछूँ – तभी उस का मैसेज आ गया।  

“बच्चे सो गए?”

“हाँ।”

“आज जो हुआ उस के लिए मुझे बहुत खेद है! और करती भी क्या?” 

“तुम ठीक तो हो?”

“जनरल हॉस्पिटल के इमरजेंसी रूम में हूँ!”

अरे नहीं! उस ने मुझे एक दम चौंका दिया। सोचा फोन मिलाऊँ, पर तुरंत ही अगला मैसेज आ गया।

“साइकिल फिसल गई थी। ट्रैक कीचड़ से सना था। नियंत्रण खो दिया।” 

“हे भगवान!” अब मैं सचमुच उस के लिए चिंतित था!

“कुछ खरोंचें लगीं हैं। बाईं कलाई में बारीक़ सा फ़्रैक्चर है। प्लास्टर लग गया है। कुछ ही देर में यहाँ से छुट्टी मिलने वाली है।”

“बच्चे सो रहे हैं, नहीं तो मैं घर छोड़ आता,” मैं अब कई तरह की भावनाओं में डूब रहा था – उस के प्रति सहानुभूति, अपनी ग़लतफ़हमी पर आत्म ग्लानी, कुछ न कर पाने की लाचारी पर खिन्नता...। 

“थैंक्स! घर जाने का इंतज़ाम हो गया है।”

मुझे क्या करना चाहिए, मन इस दुविधा में उलझता जा रहा था। क्या ड्राइव कर पाएगी? काम पर कैसे जाएगी? ग्रोसरीज़ कौन लाएगा? अचानक वाशिंग मशीन की बात याद आ गई। क्या बच्चे फिर मैले कपड़े पहन के जाएँगे? सोचा कम से कम वाशिंग मशीन बदलवाने का प्रबंध तो कर ही सकता हूँ। बात करूँ? क्या उसे अच्छा लगेगा? क्या यह एक प्रकार से उसके सामर्थ्य पर संदेह करना तो नहीं होगा?  

पिछले चार महीनों में मुख्यत: ‘टेक्स्ट मैसेजिंग’ ही उससे संपर्क का माध्यम था – आवश्यकतानुसार और अति संक्षिप्त। न तो उसने ही कभी फोन से बात की थी और न ही मैंने। जब वह बच्चों को छोड़ने या लेने आती तब भी हमारी बातचीत कुशल क्षेम के दो तीन वाक्यों तक ही सीमित रहती। कई बार सोचा इसे अंदर आने के लिए कहूँ, कम से कम बच्चों के कमरे तो दिखा दूँ, लेकिन कभी कह नहीं पाया।  

“बच्चों को सुबह आठ बजे घर छोड़ सकते हो?”   

“इतनी जल्दी?”

“स्कूल बस साढ़े आठ बजे आती है। भूल गए?”

“ठीक है, पूरे आठ बजे पहुँच जाऊँगा। ब्रेकफ़ास्ट का तुम देख लेना।”

“गुड नाईट! अपना ख़याल रखना!” कैसे कहता कि यह औपचारिकता नहीं, सच्ची भावना थी!

हमारे बीच एक रिश्ता ख़त्म हो चुका था और दूसरा शुरू हो रहा था। इस नए रिश्ते की सीमाएँ न तो उसे पता थीं और न ही मुझे। 
 

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