नाट्य पठन और लेखन के तौर तरीके

24-03-2017

नाट्य पठन और लेखन के तौर तरीके

अखतर अली

27 मार्च अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच दिवस

कविता कहानी पढ़ना और नाटक पढ़ना एकदम विपरीत कार्य है। कविता, कहानी या उपन्यास पढ़ते समय हम उसके बाहर रहते हैं, हमारा और रचना के बीच सिर्फ़ रचना और पाठक का ही संबंध होता है। लेकिन जब हम एक नाटक पढ़ते हैं उस समय पढ़ने की प्रक्रिया से गुज़रते हुए भी हम सिर्फ़ पाठक नहीं रहते हैं हम अभिनेता हो जाते हैं। अभिनेता हो जाना ही नाटक पढ़ने का सही तरीका है। शायद नाटक पढ़ने के लिये होते ही नहीं हैं। सुनने में यह थोड़ा अजीब सा लग सकता है लेकिन अगर नाटक वास्तव में पढ़ने की चीज़ होती तो उसे उपन्यास ही कहा जाता। उपन्यास और नाटक पढ़ने में सबसे बड़ा अंतर यह होता है या यह होना चाहिये कि उपन्यास हम उपन्यास के बाहर रह कर भी पढ़ सकते हैं, लेकिन नाटक को पढ़ते समय नाटक में दाखिल होना आवश्यक होता है। हमारे दाखिल होने पर ही वह नाटक होता है अगर पढ़ने वाला उसमें दाखिल न हो तो वह नाटक नहीं सिर्फ़ एक आलेख मात्र रह जाता है। अक्सर यह सुनने में आता है कि जो आनंद कविता या उपन्यास पढ़ने में आता है वह नाटक पढ़ने में नहीं आता, नाटक बोझिल होते हैं। इसका एक मात्र कारण सिर्फ़ यह है कि आम पढ़ने वालों को नाटक पढ़ने की विधा का ज्ञान नहीं है।

सबसे पहली बात तो यह है कि नाटक एक से मूड में नहीं पढ़ा जाना चाहिये, एक सी स्पीड में नहीं पढ़ा जाना चाहिये, उसका पात्र बने बिना नहीं पढ़ा जाना चाहिये। उपन्यास पढ़ते समय एक आदर्श पाठक की ज़रूरत होती है लेकिन नाटक पढ़ते समय हमें एक सशक्त अभिनेता हो जाना चाहिये। नाटक आपको कविता और उपन्यास से अधिक आनंद देगा बशर्ते आप उसमे लिखे संवाद को पढ़िये नहीं बल्कि बोलिये। उपन्यास मन ही मन पढ़ा जाता है और नाटक मन ही मन बोला जाता है। नाटक का पढ़ा जाना भी उसके खेले जाने का ही हिस्सा होता है। इसके लिये पढ़ने वाले का रंगकर्मी होना आवश्यक नहीं है। रंगकर्मी हुए बिना भी हर व्यक्ति अभिनेता हो सकता है क्योंकि उसे यह मन ही मन होना है। जब एक गैर रंगकर्मी पाठक अपने अंदर के अभिनेता से नाट्य पठन करवायेगा तब निश्चित ही उसे नाटक का पढ़ना आनंददायक लगेगा। एक नाटक का पढ़ा जाना किसी उपन्यास के पढ़े जाने की तरह आसान काम नहीं है। उपन्यास आप एक जैसे मूड में पढ़ सकते हैं लेकिन नाटक को पढ़ते समय हर लाईन पर आपका मूड और स्पीड बदलनी चाहिये क्योंकि उस समय आप आप नहीं होते हैं आप वह पात्र हो जाते हैं। पल में आप राजा हो जाते हैं पल में सैनिक, एक क्षण बेहद गंभीर रहते हैं तो दूसरे क्षण मजाहिया। उपन्यास समय काटने के लिये पढ़ा जा सकता है लेकिन नाटक पढ़ने के लिये विशेष रूप से समय निकालना चाहिये। नाटक को पढ़ने और समझने का सबसे सही नियम यह है कि पढ़ते समय वह दिखना चाहिये। नाटक खेलने के लिये होते हैं, नाटक देखने के लिये होते हैं, नाटक सुनने के लिये होते हैं, और इन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये ही इन्हें पढ़ा जाता है। नाटक लिखने का मुख्य उद्देश्य यह कभी नहीं होता कि इसे पढ़ा जायेगा। चूँकि नाटक सिर्फ़ पढ़ने के लिये नहीं लिखे जाते इसलिये इनका पढ़ा जाना इनके लिखे जाने की तरह सामान्य प्रक्रिया नहीं होती। जब आपके हाथ में किसी नाटक की स्क्रिप्ट आती है और आप उसे पढ़ने का इरादा करते हैं तब आपको चाहिये कि आप अपने अंदर का सारा सब्र जमा कर लें, कला और साहित्य की तमाम सोई हुई जानकारी को जगा लें क्योंकि नाटक में सिर्फ़ कथानक नहीं होता बल्कि उस कथानक को व्यक्त करने के लिये गीत, संगीत, नृत्य, मंच सज्जा, वेशभूषा, प्रकाश व्यवस्था इन सब विधाओं और तकनीक का इस्तेमाल होता है। ये सब चीज़ें रंगमंच का सौन्दर्य कहलाती हैं और इन्हीं की उपस्थति नाटक को देखने की विधा बनाती है। क्योंकि नाटक के लिखे जाने में उसके खेले जाने की तकनीक मौजूद होती है इसलिये यह ज़रूरी है कि उसे पढ़े जाने के समय ही यह मान लिया जाये कि यह खेला जा रहा है। 
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी नाटक को सिर्फ़ एक बार पढ़ कर उसे पढ़ लिया न माने जाये। उसे दूसरी, तीसरी और चौथी बार पढ़ना होता है। नाटक की यह ख़ासियत होती है कि उसे जितनी बार पढ़ा जाये उतनी बार वह परत दर परत खुलता जाता है, कथ्य के साथ-साथ उसका शिल्प स्पष्ट होता जाता है। यही वह क्षण होता है जब नाटक में रस आने लगता है। उपन्यास में हम वही पढ़ते हैं जो लिखा होता है लेकिन जब नाटक को तीसरी और चौथी बार पढ़ा जाता है तो हम वह भी उसमे पढ़ने की कोशिश करते हैं जो लिखा हुआ नहीं है लेकिन लाईनों के बीच में मौजूद है। नाटक हमें अपने अनुसार नहीं बल्कि लेखक के अनुसार पढ़ना होता है। वृद्ध का संवाद हमें वृद्ध बनकर पढ़ना होगा, मसखरे की बातें मसखरा बनकर पढ़नी होंगी। राजमहल का दृश्य पढ़ते समय हमें पूरी तरह बादशाह हो जाना होता है। अब यहाँ एक बात ज़रूर सामने आती है कि एक आम आदमी इतना परिश्रम क्यों करे? वह रंगकर्मी तो है नहीं, न उसे अपनी नाट्य मंडली चलानी है। तो उसका जवाब यह है कि यह सारी बातें एक आम आदमी के लिये है ही नहीं। यह उन के लिये हैं जो अच्छा साहित्य पढ़ने का शौक रखते हैं। नाटक पढ़ते समय आपका अघोषित समर्थन लेखक के साथ होना चाहिये। नाट्य लेखन को बहुत आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता। साहित्य की सभी विधाओं में सबसे सशक्त और कठिन विधा नाटक है क्योंकि इसमें लेखक को अपनी बात कहने के साथ-साथ इसमें निर्देशक, अभिनेता, मंच सज्जा, प्रकाश व्यवस्था के लिये संभावनायें निकालनी होती हैं और इसके साथ ही दर्शकों की रुची का भी ध्यान रखना होता है क्योंकि आखिरकार इसे दिखाना तो उन्हें ही है। आज आम पाठक के पास इतना समय नहीं होता कि मेरे बताये अनुसार पढ़े और फिर वह पढ़े ही क्यों? जो नाट्य जगत से जुड़े हैं वे पढ़ें और उसे मंच पर खेलें, आम आदमी उसे देख कर अपना सहयोग देगा। नहीं आपको ऐसा नहीं सोचना चाहिये। ऐसा सोचना अन्याय है। अगर आप उपन्यास पढ़ सकते हैं, कहानी पढ़ सकते हैं, कविता पढ़ सकते हैं, तो नाटक पढ़ने से एलर्जी क्यों? आप नाटक को उसके अनुशासन के अनुसार पढ़ कर तो देखिये आपकी सोच बदल जायेगी। मैं यहाँ बिलकुल भी उपन्यास कहानी और कविता को कम महत्वपूर्ण घोषित करने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ लेकिन हाँ नाट्य लेखन को उसका वाजिब दर्जा दिलाने का प्रयास ज़रूर कर रहा हूँ।

नाटक के लेखक का व्यक्तिगत कुछ नहीं होता जो भी होता है सार्वजनिक होता है। कविता या कहानी लेखक स्वयं अपने लिये लिख सकता है लेकिन नाटक वह बहुत बड़े दर्शक वर्ग के लिये लिखता है। एक स्थान पर एक साथ जब तक कम से कम ढाई तीन सौ दर्शक जमा न हो जायें नाटक मंचित नहीं हो सकता, इस बात को ध्यान में रख कर नाटक पढ़ना चाहिये। यह कोई आसान काम नहीं है कि एक लेखक अपनी बात आपके अंदाज़ में कहे, और वह भी उन हालात में जब समीक्षक उसके सामने हंटर लेकर खड़ा हो। आज चारों तरफ नाटकों के दर्शक बढ़ाने की कोशिशें हो रही हैं लेकिन नाटकों के पाठक बढ़ाये जायें इस ओर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। मेरा सोचना है कि जब तक नाटक के पाठक नहीं बढ़ेंगे तब तक इसके दर्शक भी नहीं बढ़ सकते हैं। जब ज़्यादा से ज़्यादा लोग इसे पढ़ेंगे तभी इसे ज़्यादा से ज़्यादा छापा जायेगा, जब ज़्यादा से ज़्यादा छापा जायेगा तभी ये ज़्यादा से ज़्यादा रचा जायेगा और फिर इसके ज़्यादा से ज़्यादा खेले और देखे जाने का सिलसिला चल पड़ेगा।

नाटक में सिर्फ़ शब्द नहीं होते उसमे दृश्य भी होते हैं। इन दृश्यों को सार्वजनिक रूप से दिखाया भी जाता है जिसे मंचित करना कहा जाता है। यही वह बड़ा कारण है जहाँ उपन्यासकार की तुलना में नाटककार की ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है क्योंकि उसके सामने सभ्य समाज भी मौजूद रहता है। इसलिये नाटक की पहली रीडिंग के बाद सबसे पहले पढ़ने वाले को इस बात का विचार करना चाहिये कि इसमें ऐसी कौन सी बात है जिसे कहने के लिये इस विधा का सहारा लेना पड़ा। नाटक का उद्देश्य समझ में आ जाये तो फिर इस बात की पड़ताल की जाने चाहिये कि लेखक अपने उद्देश्य में कितना सफल हुआ है। उद्देश्य से तात्पर्य यह कदापि भी नहीं होना चाहिये कि उसका कोई सामाजिक सारोकार हो ही, वह कोई क्रांतिकारी नाटक ही हो। वह शुद्ध मनोरंजक नाटक भी हो सकता है जिसमें लेखक का उद्देश्य दर्शकों का भरपूर मनोरंजन करना हो, ऐसा नाटकों का उद्देश्य मनोरंजन होगा। तो नाटक पढ़ कर यह विचार करना होगा कि लेखक अपने उद्देश्य में सफल हुआ या नहीं। अपनी बात कहने के लिये लेखक ने किस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया है। क्योंकि पढ़ी जाने वाली भाषा अलग होती है और बोले जाने वाली भाषा अलग होती है और यही वह कारण है कि एक सफल कवि और कथाकार ने जब भी नाटक लिखा है उसे अस्वीकार कर दिया गया। पढ़ने में वे नाटक अवश्य रोचक लगे लेकिन उन्हें मंच नहीं मिला क्योंकि उसमें आदतन पढ़ी जाने वाली भाषा थी बोले जाने वाली नहीं।

इस शृंखला में नरेन्द्र कोहली का नाटक शम्बूक की हत्या को रखा जा सकता है, इसे नाट्य शैली में तो लिखा गया था लेकिन भाषा बोले जाने वाली बल्कि पढ़ी जाने वाली थी इसलिये एक बेहतरीन व्यंग्य होने के बावजूद भी उसे मंच नहीं मिला। पढ़ने वालो को चाहिये के ऐसे सफल लेखन को भी असफल कोशिश माने।

अगर हम नाट्य पठन के तरीके की बात करते हैं तो ज़रूरी है कि नाट्य लेखन की भी बात की जाये। नाटककार को चाहिये कि वह अपने कथ्य को व्यक्त करने के लिये ऐसे शिल्प का उपयोग करे जिसे मंच पर आकार दिया जा सके, क्योंकि यहाँ बात शब्दों के द्धारा नहीं बल्कि दृश्यों के माध्यम से की जाती है। दृश्यों की बुनावट और सजावट ही रंगमंच का सौन्दर्य है। यही वह महत्वपूर्ण वज़ह है कि एक नाटक को मंच पर प्रस्तुत करने के लिये योग्य निर्देशक की ज़रूरत पड़ती है। एक लिखा गया नाटक सबसे पहले निर्देशक के पास पहुँचता है। अगर उसमें निर्देशक को अपने लिये संभावनायें दिखती हैं तभी वह उसे खेलने का निर्णय लेता है और तब वह नाटक अभिनेताओं के हाथ में पहुँचता है। ऐसा कभी नहीं होता कि अभिनेता तय करे कि कौन सा नाटक खेलना और कौन सा नहीं। यानी लेखक और अभिनेता के बीच, अभिनेता और दर्शक के बीच एक महत्वपूर्ण शख़्स निर्देशक होता है। जब तक निर्देशक नहीं चाहेगा नाटक को मंच नहीं मिलेगा। कहने का तात्यर्प यह कि नाटक लिखते समय हमेशा निर्देशक को ध्यान में रखना होगा। प्रश्न यह हो सकता है कि निर्देशक कैसे नाटक पसंद करता है? नाटक का कथ्य तो ख़ैर महत्वपूर्ण होता ही है लेकिन निर्देशक के लिये उतना ही महत्वपूर्ण उसको व्यक्त करने का ढंग होता है। निर्देशक के लिये दृश्य संयोजन भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है, उसमें किस तरह की वेशभूषा इस्तेमाल की जायेगी, लाईट के डिज़ाईन के लिये क्या संभावनायें हैं, इस पर भी बराबर निर्देशक की नज़र रहती है। फिर पूरा नाटक डायलॉग बाज़ी से ही नहीं पूरा किया जा सकता उसमे बीच-बीच में संगीत के लिये भी जगह होनी चाहिये। गीत और नृत्य भी नाटकों का एक हिस्सा होते हैं। यह सब एक अच्छे कथानक के साथ निर्देशक को परोसने की ज़िम्मेदारी लेखक की होती है। शायद इसलिये ही लेखक और निर्देशक के बीच सीधा संबंध होता है, लेखक और अभिनेता की बीच सीधा सम्पर्क नहीं होता। रंगमंच के विभिन्न कोणों की जितनी जानकारी निर्देशक को होती है उतना ही मंच का टेक्नीकल ज्ञान लेखक को भी होना चाहिये तभी उसको नाटक लिखने का अधिकार दिया जा सकता है। नाटक लिखते समय लेखक के दिमाग में लिखा हुआ नाटक नहीं बल्कि खेला जा रहा नाटक होना चाहिये। मेरे कहने का मतलब यह है कि उसकी आँखों में पुस्तक नहीं मंच होना चाहिये। अगर उसके ज़हन में मंच है तो फिर मंच की मौजूदा स्थिति भी होनी ही चाहिये। मंच की मौजूदा स्थिति से तात्पर्य क्या लगाया जाये? इसमें कई बातें शामिल हो सकती हैं, मसलन मंच के खर्चे, दर्शकों की उपस्थति, पब्लिक डिमांड, कस्बाई रंगमंच की दिक्कतें, सामाजिक सरोकार, मनोरंजन आदि आदि। इन सारी बातों के बीच में एक और महत्वपूर्ण बात मौजूद है और वह है नाटक की अवधि। इन तमाम बातों को कहने में लेखक को कितना समय लगता है? मंच के खर्चे, टिकट की कीमत, दर्शकों का समय...... इन बातों को ध्यान में रख हर नाट्य संस्था पूर्णकालिक नाटक ही खेलना चाहेगी। अगर नाटक की मंचन अवधि मात्र तीस पैंतीस मिनट होती है तो ऐसा नाटक कितना भी अच्छा क्यों न हो उसे खेलने का निर्णय कोई संस्था नहीं करेगी। इस लम्बाई के नाटक नाट्य स्पर्धा, के लिये उपयुक्त हो सकते हैं लेकिन नियिमित रंगमंच के लिये ये इतने महत्वपूर्ण नहीं है। नाटक की अवधि इतनी अधिक नहीं होनी चाहिये कि खेलने और देखने दोनो में दिक्कत हो, यानी नाटक चार पांच घंटे के भी न हो। इनके बीच की अवधि होती है डेढ से दो घंटे का नाटक। यही नाटक की एक आदर्श अवधि होती है। नाट्य लेखन में इस अवधि का भी महत्व होता है।

आज जब चारों ओर रंगमंच के लिये दर्शक जुटाने की बात हो रही है तो आम आदमी के अंदर नाटक देखने की रुचि कैसे पैदा की जाये? मेरा सोचना है कि इसके लिये तमाम प्रयासों में एक तरीका यह भी होना चाहिये कि हम साहित्य के नियमित अथवा अनियमित पाठको के अंदर नाटक पढ़ने का शौक पैदा करें। लेकिन यह शौक पैदा करने का बीड़ा रंगमंच के बाहर का कोई आदमी नहीं उठायेगा। यह काम तो रंगमंच से जुड़े लोगों को ही करना होगा और इसका एक अंदाज़ यह भी हो सकता है कि हम अपने मुलाकातियों को नाट्य पुस्तके भेंट करें।

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