धीरे-धीरे बना ज़हर,
मानव को डसता जाता है।
यह नशा बना अभिशाप,
जीवन को निगलता जाता है।
जब ले लेता आग़ोश में ये,
कुछ होश रहता न जीवन का।
भूली सारी ज़िम्मेदारी,
करता विनाश यह तन मन का।
घर को करता है कलह पूर्ण,
यह नशा क्षीण करता जीवन।
दीमक के जैसे लकड़ी को,
करता जाता पल-पल छिन छिन।
घुन के जैसे लग जाए तो,
कर दे जीवन को नष्ट भ्रष्ट।
चहुँ ओर कराए बदनामी,
कर देता है यह पथभ्रष्ट।
जिसको लग गई है लत गंदी,
उसको समाज का भय ना रहा।
नाली में गिरे या सड़कों पर,
मरने जीने का डर ना रहा।
लेकर आग़ोश में युवा वर्ग को,
पतन की राहें दिखा रहा।
जो करते घर को कलहपूर्ण,
मदिरालय को जो सजा रहा।
"रीत" कहे सुन युवा वर्ग,
सद्बुद्धि लाओ जीवन में।
ना नशा को हावी होने दो,
करो तिरस्कार इसे जीवन में।
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