नन्दू जिज्जी

01-10-2020

नन्दू जिज्जी

हरी चरण प्रकाश (अंक: 166, अक्टूबर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

जिस मुक़ाम और मौक़े पर मुझे नन्दू जिज्जी के मरने की ख़बर मिली उससे मेरे मुँह पर ग्लानि की परत सी छा गई। लानत है, इतनी ग़फ़लत! ज़िन्दगी धीमे-धीमे चलती हुई भी कितनी तेज़ी से गुज़रती है। 

मैं अपने एक परिचित, पाँच सौ मीटर दूर के पड़ोसी और कुछ-कुछ मित्र जैसे अशोक अग्रवाल के ज़िद्दी बेटे की शादी में गया था। इसी बेटे की वज़ह से मेरा और उनका परिचय प्रगाढ़ हुआ था। बेटा बाप की सारी नसीहतें दरकिनार कर फ़ुटबाल का खिलाड़ी बनना चाहता था। बाप बिना किसी असमंजस के मेरे सामने कहते थे कि अगर इस नालायक़ को खिलाड़ी ही बनना है तो क्रिकेट का बने, ऐं और वह क्या कहते हैं, क्या कहते हैं— उसका बने, फ़ुटबाल में क्या रखा है। मैं अपने समय का फ़ुटबाल का जाना-माना खिलाड़ी था। डुरन्ड कप और सन्तोश ट्राफी खेल चुका था, बस राष्ट्रीय टीम में नहीं खेल पाया था, फिर भी इन्हीं उपलब्धियों के बूते सरकार के खेल विभाग में ठीक-ठाक नौकरी पा गया था। नालायक़ बेटा अच्छा फ़ुटबाल खिलाड़ी बनने के लिए र्स्पोटस् कॉलेज में दाख़िला चाहता था और इसलिए बाप की नाक जगह-जगह रगड़वा रहा था। जब अग्रवाल को पता लगा कि इस सिलसिले में मैं उनके किसी काम आ सकता हूँ तो वह मेरे पास आए। ख़ैर, मेरी सिफ़ारिश और लड़के की योग्यता दोनों काम आए। यह लड़का राष्ट्रीय टीम में खेल चुका था और एक सरकारी कारपोरेशन में नौकरी पा चुका था। मिलने पर वह मेरा शिष्यवत सम्मान करता था जोकि मुझे अच्छा लगता था। उसकी शादी की ख़बर मेरे लिए एक अच्छी ख़बर थी। निमंत्रण-पत्र देने अग्रवाल और उनकी पत्नी हमारे घर आए थे लेकिन इसके पहले कि मैं ख़ुशी का इज़हार करूँ वह बोले, "यह अर्न्तजातीय विवाह है।"

"लड़की कहाँ की है?"

"कहीं की नहीं है, चार सौ मीटर रेस की नेशनल सिल्वर मेडलिस्ट रही है।"

"कहाँ भिड़ गई?"

इसे भी उसी कारपोरेशन में नौकरी मिली जहाँ भय्या को मिली थी," अग्रवाल की पत्नी बोलीं।

मेरी पत्नी ने बात का सिरा अपने हाथ में लिया और बोली, "अरे तो क्या हुआ? आजकल का चलन यही है।"

इसके बाद वह हाल में हमारी जान-पहचान में हुए अन्तर्जातीय विवाहों की सूची बनाने लगी। मैं उसे बहाने-बहाने घूर रहा था ताकि वह यह हरकत बन्द करे लेकिन वह बोले चली जा रही थी मुँह से, हाथ से, आँखों से और अपने बड़े-बडे़ उजले दाँतों से। आख़िरकार झपट कर मुझे कहना पड़ा "कुछ रूहअफ्ज़ा पिया जाए, बड़ी गर्मी है।"

पत्नी अनिच्छापूर्वक उठी और उसी के साथ श्रीमती अग्रवाल भी किचन में चली गईं। 

मौक़ा पाकर अग्रवाल ने मुझसे कहा, "बन्धु, मेरी इस औलाद ने मुझे फिर हरा दिया।" 

"छोड़िये भी, अगर बच्चे ख़ुश हैं तो आप को भी ख़ुश होना चाहिए।"

"वही कर रहा हूँ। वैसे भी, अपनी-अपनी क़िस्मत।" 

उनके जाने के बाद हम लोगों ने निमंत्रण-पत्र खोला। बड़ी सफ़ाई से विपक्ष की जाति का उल्लेख नहीं था। ख़ैर, इससे क्या, पत्नी ने यह जानकारी प्राप्त कर ली थी कि लड़की हम लोगों की जाति की है, फिर भी उसके यहाँ कोई अण्डा तक नहीं खाता। लड़की दूध-दही के दम पर इतना आगे बढ़ी है। इसके बाद पत्नी ने छत की ओर हाथ जोड़ा और मैंने सीने पर हाथ रख कर माथा झुकाया। हमारे दोनों ही बच्चों ने अपनी ही जाति में हमारे द्वारा तय की हुई शादी की थी। इसके लिए हम अपने बच्चों के कृतज्ञ थे और मन ही मन उस समय ख़ुश होते थे कि जब अग्रवाल जैसे अपेक्षाकृत अच्छे पैसे और रुसूख़ वालों की नाक उनके बच्चे जहाँ-तहाँ शादी करके काटते थे। इतनी सन्तोषप्रद और कमीनी ख़ुशी मनाने के बाद हम दोनों ने एक दूसरे की ओर देखा और लगभग एक साथ बोले, "यह अग्रवाल लोग इतने दुखी क्यों हैं, क्या हमारी जाति कोई ख़राब जाति है।"

इसी शादी में ही मुझे नन्दू का देवर मिला था। वह लड़की वालों की ओर से था। कुछ देर की अनिश्चितता के बाद हम लोगों ने एक दूसरे को पहचान लिया। हल्की-फुल्की रस्मी बातचीत के बाद मैंने पूछा, "नन्दू जिज्जी कैसी हैं।"

वह मेरी ओर देखता रह गया ,"आपको नहीं पता कि भाभी का स्वर्गवास हुए पाँच साल हो गया।" 

मैं क्या बोलता। चेहरे पर पसीना भी नहीं था कि उसे मैं ग्लानि की उस परत के साथ पोंछ डालता। मैं हाथ मेें पकड़े माकटेल के गिलास के अन्दर झाँकने लगा। उसी ने मुझे उबारा और हाथ पकड़ कर सीधा खाने के स्टाल पर ले जाने लगा चूँकि उसका मानना था कि केटरर्स स्नैक्स में मेहमानों को फँसा कर बहुत मुनाफ़ा कमाते हैं। चलते-चलते उसने बताया कि बिपिन जीजा ठीक हैं, लेकिन अब पूरे संन्यासी हो गए हैं। 

नन्दू जिज्जी का नाम नन्दिता था। रिश्ते में वह मेरी मौसेरी बहन लगती थीं, उम्र में लगभग चार साल बड़ी और दर्जे में केवल दो साल बड़ी। उनकी समझ में नहीं आता था कि लोग कैसे एक्को साल फ़ेल हुए बिना अपनी पढ़ाई पूरी कर लेते थे, हालाँकि मेरे प्रति उनकी यही शुभाकांक्षा थी कि मैं लगातार पास होता जाऊँ। उनका घर हमारे घर से एक गली दूर था और हमसे अधिक पढ़ा-लिखा और हैसियतदार था, फिर भी रिश्तेदारी की बराबरी के कारण कोई ऊँच-नीच का व्यवहार नहीं था। उनके यहाँ बिजली एक ज़माने से लगी थी और मैं अक़्सर गर्मियों में किसी न किसी बहाने उनके घर चला जाया करता था। 

नन्दू जिज्जी बड़ी आलसी थीं, सोती रहती थीं। वह चौदह मई का दिन था। मैं दर्जा छह पास करने का रिज़ल्ट लेकर घर आया था। कोई बढ़िया रिज़ल्ट नहीं, बस पास, जैसा कि मैं आगे भी करता रहा। नन्दू जिज्जी के घर जाने पर दरवाज़ा खोलते समय मौसी ने एक फीकी मुस्कान से मेरी तरफ़ देखा और एक क्षण के लिए दरवाज़ा पकड़े खड़ी रहीं मानो पूछ रहीं हों "क्या काम है?" दूसरे क्षण उन्होंने दरवाज़ा खोल दिया। मैंने पूछा, "जिज्जी कहाँ हैं।"

मौसी ने सहन से लगे जीने की ओर इशारा किया। मौसी का घर इतना बड़ा था कि एक बन्द कवर्ड जीना मुख्य दरवाज़े के सहन से ऊपर कमरों की ओर जाता था और दूसरा खुला हुआ, आँगन से निकल कर छत की ओर जाता था। जिज्जी जीने पर बैठी हुई थीं। मुझे देखकर उनकी आँखें डबडबाईं। उन्होंने मुझे अपने आगे बैठने का इशारा किया। 

थोड़ी देर मेरा सिर सहलाने के बाद उन्होंने पूछा, "पास हो गये?"

मैंने हाँ में सिर हिलाया। कहाँ तो मैं सुख बाँटने गया और अब मुझे दुख बाँटना पड़ रहा था जिसका मैं अब तक अच्छा अभ्यास नहीं कर पाया हूँ। मुझे उनके सिसकने की आवाज़ सुनाई पड़ी। मैंने सर मोड़ा तो उन्होंने उसे मुड़ने नहीं दिया, बोली, "बस आगे देखो।" 

थोड़ी देर सिसकने के बाद उन्होंने कहा, "अब जाओ।"

दरवाज़े से बाहर मुझे निकालते समय बोलीं, "मुन्नू, किसका विश्वास करें। प्रेमा बहन जी ने भी मुझे फ़ेल कर दिया।" 

मुझे लगता है कि नन्दू जिज्जी कुछ-कुछ सनकी थीं। वह प्रेमा बहन जी के बारे में जिस तरह से बात करती थीं, वह सब मुझे समझ में नहीं आता था। आज भी नहीं आता है जब मैं उन्हें और उनकी यादों को देख रहा हूँ। प्रेमा बहन जी होम साइन्स पढ़ाती थीं। स्कूल से लौटते ही नन्दू जिज्जी, प्रेमा बहन जी के बारे में कुछ न कुछ बात करती थीं और बात करते समय लगता था कि मानो वह आस्मान में उड़ती हुई कबूतरों की उजली पाँत देख रहीं हों। 

"मुन्नू, अगर तुम प्रेमा बहन जी का मुस्कराना देख लो तो दुनिया भूल जाओ।"

"भक..."

"भक नहीं, सच्ची।"

यह बातें वह केवल मुझसे ही नहीं करती थीं वरन् घर में सभी से करती थीं। प्रेमा बहन जी का मुखारविन्द, होंठों पर अलस अँगड़ाई लेती हुई मुस्कान, नयनस्पर्शी, सद्यस्फुटित ऊषाकाल जैसी उनकी त्वचा, उनके कपड़े, उनकी आँखों की कोर को तराशता हुआ काजल, उनके तरह-तरह के जूड़े और उनके परिधान, कुछ भी नन्दू जी की वर्णनासक्ति से बाहर नहीं था। 

एक दिन इसी प्रेमावेश में वह अपनी माँ से सबके सामने कह बैठीं, "प्रेमा बहन जी को ब्याह नहीं करना चाहिए।"

"भला, यह क्यों?" किसी ने कहा। 

"मुझे लगता है ब्याह करने से वह मैली हो जाएँगी।" 

"धत, पागल!" उस किसी ने कहा।

ऐसी प्रेमा बहन जी द्वारा फ़ेल किए जाने पर नन्दू जिज्जी इतनी आहत हुई कि उस स्कूल से उन्होंने अपना नाम कटा लिया और दूसरे गर्ल्स स्कूल में दाख़िल हो गईं। 

नए स्कूल में नन्दू जिज्जी ने नवां पास कर लिया। अब हाईस्कूल बोर्ड का मसला फँसा था। मौसा-मौसी को पता था कि बिना ट्यूशन लगाए नन्दू जिज्जी पास नहीं होने वाली हैं इसलिए देख-भाल कर उन्होंने एक रिटायर्ड स्कूल टीचर को घर पर पढ़ाने के लिए नियुक्त कर दिया। नन्दू जिज्जी को इन टीचर में दोष ही दोष नज़र आते थे लेकिन इस ट्यूशन की बदौलत वह हाईस्कूल पास कर गईं। मौसा-मौसी इतने ख़ुश हुए कि उन्होंने स्थानीय रिश्तेदारों की एक छोटी-मोटी दावत ही कर डाली। 

इस दावत में पता नहीं कहाँ से लड़कियों के शादी-ब्याह की बात उठी तो मौसा ने मेरी माँ को सम्बोधित करते हुए कहा, "अरे बिट्टी, जिस साले के सामने गठरी भर पैसा रखूँगा, वही ब्याह करने आएगा।"

दावत खा कर लौटते समय माँ ने कहा, "जीजा को इतनी बड़बोली नहीं बोलनी चाहिए।"

मैं इस बड़बोली से ख़ुश था। मुझे शादी-ब्याह की पूड़ी-कचौड़ी और धमाचौकड़ी दोनों बहुत अच्छी लगती थी। मैंने नन्दू जिज्जी से इस बात का ज़िक्र किया तो वह डाँट कर बोलीं "धत, बिना बी.ए. पास किए मैं इस घर से हिलने वाली नहीं हूँ।" 

मैंने पूछा, "जिज्जी, पास कर लोगी?"

"बिल्कुल, बस एक बार इण्टर पास कर लूँ तो बी.ए. में कौन रोकने वाला है," कहते हुए उन्होंने हाथ क्रिकेटरों के अन्दाज़ में लहराया, गोया चव्वा!

यह नन्दू जिज्जी का नया शौक़ था और कुछ-कुछ मेरी आफ़त भी। जाडे़ के कितने ही छोटे पूरे दिन वह कमेन्ट्री सुन कर गुज़ारती थीं। ख़ास बात यह कि क्रिकेट से ज़्यादा क्रिकेटरों की दीवानी हो चली थीं। अख़बार से काट-काट कर उन्होंने क्रिकेटरों की तस्वीरें इकट्ठी की थीं। 

"ऐ मुन्नू, ये सलीम दुर्रानी तो ग़ज़ब का है। इधर से मेरा मन कहता है छक्का तो लो छक्का। कितना सुन्दर है, है न?"

मुझे जवाब न सूझता तो वह पट्ट से मेरे हाथ पर मारतीं और कहतीं, "तुम कितने गँवार लगते हो। क्रिकेट खेलो ठीक हो जाओगे।"

फिर कभी कहतीं, "ऐ मुन्नू फारुख इंजीनियर की शादी हो गई या नहीं?"

"जिज्जी, मुझे क्या पता," मैं उनके सवाल का ओर छोर नहीं समझ सकता था। 

तब शायद वह इण्टरमीडिएट पास कर चुकी थीं जब उन्होंने मुझसे कहा, "नवाब पटौदी ने शर्मिला टैगोर से शादी कर ली है, लेकिन हमें कोई दुख नहीं है।"

"शर्मिला टैगोर तो हीरोइन हैं," मुझे इतना पता था। 

"तो और क्या! अरे क्रिकेट वाले ही तो हीरोइनों से शादी करेगें। बस तुम खेलते रहो फ़ुटबाल।"

अब तक मैं इतना समझदार हो चुका था कि इस बात पर शर्मा कर हँस सकूँ। 

जिज्जी इसी तरह की बातें करते हुए इण्टरमीडिएट की पहाड़ी चढ़ कर बी.ए. की विस्तृत घाटी में पहुँच गयीं। उनके डिग्री कॉलेज में को-एजूकेशन थी लेकिन जिज्जी कभी सहपाठियों की स्मार्टनेस पर बात नहीं करती थीं। उनको जँचे, भूरी आँखों वाले शिक्षाशास्त्र के प्राध्यापक नलिनकान्त। नलिनकान्त दोहरे बदन के गोरे सुपुरुष थे और खूब सज-धज कर रहते थे। जिज्जी उन्हें ताका करती थीं और घर लौट कर उनकी नित नवीन टाई और हनकदार नपी-तुली आवाज़ की चर्चा में मगन हो जाती थीं। 

"एक बार मुन्नू, एक लड़का क्लास में कुछ ख़ुराफ़ात कर रहा था कि सर ने खडे़ होकर लड़के का नाम पुकारा और कुछ नहीं कहा। उतने में ही वह लड़का ढह सा गया। ऐसी रूआबदार पर्सनाल्टी है नलिन सर की।"

नलिन सर कॉलेज में चलने वाले एन.सी.सी. प्रोग्राम के इन्चार्ज थे। एन.सी.सी. परेड में वर्दी पहन कर आते थे। जिज्जी एन.सी.सी. की वर्दी पर मुग्ध थीं जो नलिन सर को धारण करती थी। 

एक दिन बोली, "मुन्नू, नलिन सर खट खट खट खट चलते हैं तो बिल्कुल फ़ौजी अफ़सर लगते हैं। सुना है कि तब भी उनकी बीबी उनसे झगड़ा किया करती है। पता नहीं कैसी औरत है। मैं उसकी जगह होऊँ तो दोनों टाइम पैर पखारूँ।"

"जिज्जी, तुम बहुत बड़ी चूतिया हो," मुझसे कहे बिना रहा नहीं गया। 

इस पर जिज्जी ठठा कर हँसी। इतनी कि उन्हें खाँसी आने लगी। उनको एक महीने से खाँसी आ रही थी। सरकारी अस्पताल में एक जवान-ज़हीन ज़बरदस्त क्लीन-शेवेन लगभग अड़तीस-उन्तालीस की उम्र का डॉक्टर आया था जो प्राइवेट प्रैक्टिस भी करता था। हमारा शहर डाक्टरों को बहुत फलता है। जो भी यहाँ आया, सुखी और समृद्ध रहा। इस डॉक्टर ने भी दो ही साल में बेबी-आस्टिन ख़रीद ली थी। उसने जाँच करके बताया कि जिज्जी को प्लूरिसी हो गई है। उसने दवाएँ तजवीज कीं और हर पन्द्रह दिन पर दिखाने को कहा। यह डॉक्टर, ख़ाली होने पर तम्बाकू रोल करके सिगरेट पीता था और जल्दी ही जिज्जी की सूची में आ गया। वह डॉक्टर और सिगरेट की मिली-जुली महक पीने लगीं। 

उन्होंने मौसा से कहा कि बजाय पन्द्रह दिन के अगर हफ़्ते-हफ़्ते दिखाया जाय तो कैसा रहे। मौसा ने कहा, "कोई ज़रूरत नहीं है।" 

इस पर जिज्जी ने उनसे कहा, "आप भी सिगरेट रोल करके पिया कीजिए।"

मौसा ने बेज़ार होकर उनकी ओर देखा। 
डॉक्टर ने जिज्जी को आराम करने की सलाह दी थी जो वह वैसे भी करती थीं। उनके बारे में कहा जाता था कि वह हींग में भी पानी नहीं डालती थीं। कभी-कभी उनसे बात करके लगता था कि अगर मर्ज़ भी आराम से जाए तो कौन सी ऐसी आफ़त है। 

जिज्जी के पास ख़ाली वक़्त था और बरसात का मौसम था। उनके घर में धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान आया करता था जिसे सालाना जिल्दों में बँधवाया जाता था। मौसी की औपचारिक शिक्षा मामूली थी लेकिन उन्हें पढ़ने का शौक़ था। जिज्जी ने शिवानी की ‘चौदह फेरे’ पढ़ी और दीवानी हो गई। पता नहीं उन्हीं जिल्दों में उन्होंने और क्या पढ़ा कि वह रोज़ रात में निहायत नक़्शेबाज़ी के साथ डायरी लिखने लगीं। मैंने उनसे पूछा कि वह डायरी में क्या लिखती हैं तो उन्होंने बड़ी कठोर भाव-भंगिमा के साथ कहा, "वेरी पर्सनल।"

उसी दरम्यान एक दिन उन्होंने मुझसे कहा, "मुन्नू, कोई उपन्यास ले आओ।"

"कौन सा?" मैंने अपनी समझ में एक वाजिब सवाल किया। पिता जी कभी-कभी इब्ने सफी बी.ए. की जासूसी दुनिया लाते थे जिसके बीच में किसी पन्ने का एक कोना ऐसा मुड़ा रहता था कि पता नहीं चलता था कि किताब पढ़ी गई या अधपढ़ी रह गई। ऑफ़िस में आने वाला अख़बार वह शाम को घर में लाते और दूसरे दिन वापस कर देते। उनकी आय और व्यय में बहुत अच्छा संतुलन था। हफ़्ते में केवल एक दिन कलिया और दारू का सेवन करते थे। 

बहरहाल "कौन सा" के सवाल पर जिज्जी झल्लाईं और बोली, "साहित्यिक।"

"अच्छा," कहकर के मैं अपने कॉलेज की लाइब्रेरी में गया और साहित्यिक का ज़िम्मा लाइब्रेरियन को दे दिया। लाइब्रेरियन ने मुझे शरतचन्द्र की ‘श्रीकान्त’ निकाल कर दे दी। 

बरसात की वज़ह से मैं भी काफ़ी व्यस्त था। फ़ुटबाल के इण्टर कॉलेजियट टूर्नामेन्ट अगस्त-सितम्बर के महीने में ही होते थे। मैं कॉलेज की टीम में उस समय प्रचलित फ़ारमेशन में लेफ़्ट इन की पोज़ीशन पर खेलता था और मशहूर हो गया था। मेरे अन्दर कैरी करने की इतनी अच्छी क्षमता थी कि मैं उसी में तन्मय हो जाता था और खेल-कूद के मास्टर साहब की, साथी खिलाड़ियों तथा समर्थक दर्शकों की ‘अबे पास, अबे पास’ की आवाज़ों को अनसुना करते हुए या तो बाल गँवा कर गोल करने का मौक़ा चूक जाता था या बाएँ पैर से गोल के ऊपरी किनारे पर ऐसा घूमता हुआ शाट मारता था कि प्रतिद्वन्द्वी गोलकीपर हक्का-बक्का रह जाता था। एक प्रतिद्वन्द्वी गोलकीपर ने एक बार मेरी तारीफ़ करते हुए कहा था कि मुन्नुआ ऐसा शाट मारता है कि जाल झलरा हो जाता है। मेरा कॉलेज घर से इतनी कम दूरी पर था कि घर का नाम कॉलेज में भी प्रचलित हो गया था। एक बार ऐसा ही झलरा कर देने वाला शाट देखने के बाद मेरा चयन प्रदेश की ब्वायज़ टीम में हो गया था। अब मेरे पास हरे रंग का एक ब्लेजर था जिसकी जेब पर लगे मोनोग्राम को देख-देख कर मैं अपने को हीरो समझने लगा था। 

जाड़ो के दिन आ गए थे जब ऐसा ही मोनोग्राम लगा कर एक इतवार मैं नन्दू जिज्जी के यहाँ पहुँचा। छत में धूप सेंकती हुई नन्दू जिज्जी गन्ना चूस-चूस कर खुज्जियों के ढेर लगा चुकी थीं। मुझे देख कर बोलीं, "गन्ना चूसना है?" 

"ना।"

"तो, ऐसा करो जा कर यह खुज्जियाँ बाहर फेंक आओ नहीं तो अभी सब लोग चिल्लाने लगेंगे कि काहिल नन्दू अपनी खुज्झी भी किसी के आसरे नहीं फेंकती है।"

फेंक कर आने के बाद नन्दू जिज्जी मुझे देख कर मुस्काईं और बोलीं, "फ़ुटबाल वाले कुछ भी पहन लें उनके ऊपर अच्छा नहीं लगता है।"

मैं तमतमा कर कुछ कहने वाला था कि नन्दू जिज्जी हँस पड़ीं। एकदम निर्मल गन्ने के रस से सिंचित मीठी हँसी। 

यही बात बड़ी गड़बड़ थी नन्दू जिज्जी की, ऐसे ओछे वाक्प्रहार करती थीं फ़ुटबालियों पर कि दिल छलनी हो जाता था। शुरुआत वह क्रिकेटरों की तारीफ़ से करती थीं, उनके ख़ूबसूरत रंग-ढंग और उनकी रइसाना चाल-ढाल की। फिर वह अतुलनीय बातों की तुलना करने लगतीं थीं। 

"क्रिकेट खेलने वाले खानदानी लोग होते हैं, राजा, नवाब और तुम्हारे यहाँ?"

"हमारे यहाँ क्या?"

"तुम्हीं ने बताया था, अब झूठ न बोलना।"

मैं क्या करता मैंने ही उन्हें यह अस्त्र प्रदान किया था। हमारे कॉलेज में फ़ुटबाल सत्र शुरू होने से पहले चार-पाँच अच्छे खिलाड़ियों का दर्जा नौ में फ़र्ज़ी ऐडमिशन होता था। वह न छात्र थे और न छात्र रहते थे। उनमें एक दो सफ़ाईकर्मियों के परिवार से थे, एक के यहाँ कपड़ा धोने का काम होता था और किसी-किसी के यहाँ चमड़ेे का कारोबार होता था। वह सीज़नल छात्र थे और जहाँ जलते थे वहीं बुझ जाते थे। हम सब लोग साथ-साथ खेलते थे और जाति की पहचान से मुक्त थे। निस्सन्देह हममें क्रिकेट खिलाड़ियों जैसा रख-रखाव नहीं था लेकिन हम क्रिकेटरों को कुछ नहीं समझते थे। 

मैं झल्ला कर कहता, "हम लोग क्रिकेट वालों को कुछ नहीं समझते हैं। साले, लौंडियो जैसा नखरा करते हैं।"

इस पर नन्दू जिज्जी कुछ ऐसी गोल-गोल आँखें बनाती मानो मैंने कोई गाली बक दी है। तब तक मुझे सॉरी कहना नहीं आता था। मेरी चुप्पी को छेड़ती हुई जिज्जी अगली गोली दागतीं, "तुम लोग कितना गन्धाते हो।"

इसका भी क्या जवाब? एक बार खेलने के बाद मैं पसीने से भीगा हुआ उनके घर पहुँचा तो उन्होंने बड़ी ज़ोर से नाक सिकोड़ी थी। अब मैं क्या करूँ कि न तो मुझे अपने पसीने की दुर्गन्ध आती थी और न अपने साथी खिलाड़ियों की।

जिज्जी हँसने के बाद कुछ ऐसा मुस्काती थीं जैसे कोई खेल खेल रही हों। वह जिस चारपाई पर अधबैठी सी लेटी हुई थी वह ढीली होकर झिंलगा हो चुकी थी। उसमें सिमट कर लेटना उन्हें अच्छा लगता था। हाथ को आँखों पर रख कर वह बोलीं, "मुन्नू, हमारा मन भागलपुर जाने को हो रहा है।"

"वह क्यों?"

"तुमने ‘श्रीकांत’ नहीं पढ़ी।"

"मैं क्यों पढ़ूँगा।"

"तभी। एक बार पढ़ लो तब पता लगेगा। मेरा मन हो रहा है कि गंगा में उतरी उसी रात की बेला में मैं श्रीकान्त के साथ नाव में चली जाऊँ।"

वह मुझसे किसी जवाब की अपेक्षा नहीं करती थीं। लगभग ऊँधते हुए वह बोली, "मुझे टैगोर बिल्कुल अच्छे नहीं लगते हैं। बुढ़ऊ दढ़ियल। शरतचन्द्र के साथ बहुत अच्छा लगता है।"

मैं उठ कर चुपचाप चला आया। मुझे तो अपना ब्लेजर अच्छा लगता था। 

क़रीब एक हफ़्ते बाद नन्दू जिज्जी मेरे घर आईं। मुझे उस समय कहीं से काला चश्मा मिल गया था और मैं उसे लगाए घर-बाहर घूमा करता था। जिज्जी देखते ही बोलीं, "ए मुन्नू वह गाना सुना है?"

"कौन सा।"

"चश्मा लगा के माना बन गए जनाब, हीरो"

"अरे, यह ऐसे ही किया करता है, पढ़ना लिखना तो है नहीं," माँ ने एक तरह से मेरा बचाव किया।

इसके बाद जिज्जी ने मुझसे फ़ुटबाल का पूरा किट माँगा, वर्दी, ऐन्कलेट, शिनगार्ड और जूता मोजा। मैंने पूछा क्या होगा तो उन्होंने कहा, "बस ज़रूरत है।"

माँ ने मुझे घुड़का, "दे क्यों नहीं देते। इतनी अक़ल सीखो कि लड़कियाँ जो माँगें, वह या तो उन्हें दो या न दो, लेकिन औरतज़ात से उसकी ज़रूरत नहीं पूछी जाती।"

जिज्जी ने वर्दी ली, उसे सूँघा, मुँह बनाया और बोली, "इस्त्री करके नहीं रखते हो, हड़िया से निकाले हो क्या?"

इस पर अम्मा बोली, "नन्दू, तुम बड़ी नखरही हो। अरे ये खेलने का कपड़ा है या पहनने का?"

फ़ुटबाल की वह वर्दी हमारे मुफ़स्सिल टाउन की एक वारदात बन गई। नन्दू जिज्जी के कॉलेज में फैन्सी ड्रेस प्रतियोगिता थी उसी में उन्होंने वह वर्दी पहन डाली। ज़रा सोचिए, हाफ़ पैण्ट में सरेआम एक लड़की। आँधी की तरह ख़बर मौसी का दरवाज़ा भड़भड़ाने लगी थी। मौसी ने कोशिश की मौसा को न पता लगे लेकिन उन तक ख़बर पहुँच ही गई। जिज्जी को बहुत डाँट पड़ी। बाप की डाँट उन पर भारी पड़ी। जिज्जी को मौसा पर नाज़ था। उनकी निर्भीकता पर, उनकी हनक पर। उनके रहते उन्हें किसी बदनामी से भी डर नहीं लगता था। वर्दी वापस करते समय वह रोने लगीं। उनके आँसुओं में बच्चों जैसी मासूमियत थी। शायद इसी घटना के बाद वह बहुत चुप हो गईं और बाद में पता लगा कि वह रोज़ गले में लटकी कुंजी से डायरी का ताला खोलतीं हैं और लिख कर ताला बन्द कर देती हैं। 

इसके बाद बहुत तेज़ी से उनकी और मेरी दुनिया बदली। उन्होंने बी.ए. पास कर लिया। इण्टर करने के बाद मेरा चयन नेशनल इंस्टीच्यूट ऑफ़ पटियाला के एक कोर्स के लिए हो गया जिसके कारण बाद में मुझे नौकरी मिलने में आसानी हुई और मैं एक खिलाड़ी के रूप में भी आगे बढ़ा। मौसा को हल्का सा पक्षाघात हुआ जिससे वह पूरी तरह उबर नहीं सके। इससे उनकी वकालत पर ख़राब असर पड़ा। वह जल्दी से जल्दी जिज्जी की शादी करने की सोचने लगे। 

इसी चक्कर में माँ का मौसी के यहाँ आना-जाना बढ़ गया। माँ को न केवल शादी-ब्याह में जाना अच्छा लगता था बल्कि ‘हो जानी चाहिए’ वाली शादियों की बात करना अच्छा लगता था। विवाह योग्य लड़कियों के लिए वह "तैयार" और लड़कों के लिए "कमासुत" शब्द का इस्तेमाल करती थीं। उनके हिसाब से नन्दू जिज्जी बिल्कुल "तैयार" की श्रेणी में आती थीं। इसी सिलसिले में एक दिन वह मौसी के यहाँ गईं तो लौटकर कुछ हैरान-परेशान नज़र आईं। आते ही उन्होंने कहा, "अब तो नन्दू का ब्याह तुरन्त हो जाना चाहिए।"

"क्यों" तेल की शीशी हाथ में पकड़े पिता जी उनकी ओर याचना भरी निगाहों से देखने लगे। पिता दो-तीन बरस से सर के बालों के गिरने से परेशान थे और गंजे होने का मानसिक दृश्य उन्हें खिन्न कर देता था। वह लोमा हेयर आयल, कैंथराइडिन हेयर आयल और भृंगराज आमला केश तेल से बालों को सींचने के बाद आजकल एक देसी फारमूले का इस्तेमाल कर रहे थे। सरसों के तेल में, मेथी, नीम की पत्ती और मेहँदी की पत्ती को पका कर जो तेल तैयार होता था वह इतना गन्धाता था कि घर भर परेशान हो जाता था। 

"अभी हमें, फ़ुरसत नहीं है," भन्ना कर माँ बोलीं। पिता को माँ के हाथ से तेल लगवाना बहुत पसन्द था। माँ किसी ऊँची मचिया पर बैठ जाती थीं और पिता जी उनके सामने बोरा बिछा कर बैठ जाते थे। तेल लगवाते समय वह आँख मूँद कर इतने प्रसन्न होते थे कि माँ कहतीं, "तुम मज़ा लेते हो या तेल लगवाते हो?" 

माँ के तेवर देख कर पिता ने पैंतरा बदला और उन्हें ठीक मूड में लाने के लिए बोले, "बताओ क्या हुआ?"

इसके उत्तर में माँ ने कहा, "वह सनक गई है। आज एक डायरी के पीछे उसने वह उत्पात मचाया कि पूछो नहीं।"

फिर उन्होंने जो क़िस्सा बयान किया उसको सुन कर हमें लगा कि उत्पात बन्दर का था जिसे माँ ने नन्दू जिज्जी के मत्थे मढ़ दिया। 

हमारे शहर में बन्दरों को पूज्य तो नहीं लेकिन अप्रतारणीय ज़रूर माना जाता था। बन्दर हमारी इस परम्परा का लाभ उठाना जानते थे। अक़्सर वह सूखने के लिए टँगे कपड़ों को झपट कर ले जाते थे और कभी फाड़ देते थे तो ज़्यादातर फाड़ने का दिखावा करते थे। जिसके घर का कपड़ा होता था, उस घर के बच्चे रोटी का टुकड़ा दूर फेंक कर उनका ध्यान बँटाने की कोशिश करते थे और मैदान साफ़ देख कर ख़ुद बन्दर की तरह धावा मार कर कपड़ा हथिया लेते थे। यह बन्दर कपड़ों के अलावा अन्य वस्तुओं पर भी झपट्टा मारते थे। उस दिन छत पर छाँव के एक कोने में बैठी जिज्जी डायरी लिख कर आसमान की ओर देख रही थीं एक साया उन पर पड़ा। जब तक वह कुछ समझें, समझें तब तक एक बड़ा भारी बन्दर उनकी डायरी लेकर मुँडेर पर बैठ गया और डायरी पढ़ने का अभिनय करने लगा। 

नन्दू जिज्जी इतनी ज़ोर से चिल्लाईं कि घर के लोग दहल गए। ग़ुस्सा कर बन्दर उनकी डायरी फाड़ने लगा और जिज्जी का हाथ पैर और चेहरा ऐंठने लगा। घबरा कर कुछ लोगों ने जिज्जी को सम्हाला और बाकियों ने जो कुछ घर में खाने योग्य था उसके टुकड़े दसों दिशाओं में फेंक कर डायरी को तीन टुकड़ों में बचा लिया। डायरी हाथ में आते ही जिज्जी सामान्य हुईं। 

माँ से नहीं रहा गया। उन्होंने पूछा, "नन्दू, यह कौन सा भूत-प्रेत तुम्हें लिपट गया था?" जिज्जी ने उन्हें घूर कर देखा। वह बड़ी अजनबी आँखें थीं, एकबारगी तो माँ और बाक़ी लोग सहम ही गये। 

हमारे शहर में दो तीन धार्मिक घाट थे जिन पर निर्धारित तिथियों में नहाने का रिवाज़ ख़ूब चलता था। एक दिन हमारे दोनों घरों में औरतों-बच्चों के साथ नहाने का कार्यक्रम बना। हमारे शहर में औरतों के साथ छेड़छाड़ की घटनाएँ बहुत कम होती थीं इसलिए लड़कियाँ और औरतें आराम से घर से बाहर आया-जाया करती थीं। गर्मी की सुबह थी। औरतें किनारे डुब्बी लगा कर बाहर निकल रहीं थीं। कुछ लड़के और मर्द थोड़ी दूर तक तैर भी रहे थे। मुझे पानी में उतरने की मनाही थी क्योंकि मेरे सर में दो भंवर थे जिसका मतलब यह था कि मुझे तालाब, नदी और समुन्द्र से ख़तरा है। मैं किनारे बैठ कर सबके कपड़े रखा रहा था। जब सब लोग नहा कर पास में बने दो-तीन मन्दिरों में से किसी एक में पैसा चढ़ा कर और टीका लगवा कर वापस आए तब नन्दू जिज्जी बहुत ख़ुश थीं। इस घाट पर आकर हमारी नदी मस्त हो जाती थी। बुर्जों एवं किनारों से टकराने का प्रतिनिनाद और नावों तथा आदमियों की मिली जुली आवाज़ों से लगता था कि नदी किल्लोल कर रही है। 

घाट पर दातादीन मल्लाह मिले। 

स्नानार्थियों को इस पार से उस पार तक नाव की सैर करा कर वह कुछ पैसे कमा रहे थे। दातादीन, मौसा के कुछ उन मुवक्किलों में से थे जिनसे वह कभी फ़ीस नहीं लेते थे बल्कि उल्टा कचहरी के अन्य ख़र्च भी कभी-कभी ख़ुद कर देते थे। दातादीन जब कभी शहर आते तो बढ़िया रोहू मछली मौसा के लिए लाते थे। 

हम लोग उन्हें देख कर बहुत ख़ुश हुए। नन्दू जिज्जी ने मुझसे गागल्स माँगे और दुपट्टे को कानों में कुछ स्टाइल से बाँध कर वह नाव में सवार हुईं। इस स्थान पर मछली मारना मना है इसलिए मछलियाँ निष्कंटक भाव से पानी में विचरण कर रही थीं। मैं अब अपने इस पापी चित्त को क्या कहूँ जो ऐसी जगहों पर ही मत्स्याहार के लिए विचलित हो जाता है। मैंने इस कुविचार को पनप कर स्वतः नष्ट होने दिया। 

दातादीन चप्पू चला रहे थे, लगभग पैंतालीस बरस की उम्र। नंगे बदन पर मछलियों की तरह डूबती उतराती माँसपेशियों को नन्दू जिज्जी काले चश्मे के भीतर से देख रही थीं कि अचानक मौसी ने कहा, "दातादीन, कमीज़ पहल लो।"

मैं पटियाला में कोर्स कर रहा था जब नन्दू जिज्जी की शादी तय हुई। मौसा की सेहत गिर रही थी और साथ में प्रैक्टिस भी। बिपिन जीजा बनारस से आयुर्वेद की डिग्री लेकर आए थे और आयुर्वेद की ही प्रैक्टिस करने का उनका दृढ़ विचार था। उनके घरवालों का तथा मौसा का भी ख़्याल था कि अन्य आयुर्वेद डिग्री-धारियों की तरह यह भी एलोपैथी की प्रैक्टिस करेंगे लेकिन बिपिन जीजा आयुर्वेद के प्रति पूरी तरह से निष्ठावान थे। वह अपने नाम के पहले डॉक्टर न लिख कर वैद्य विपिन बिहारी लिखते थे। वह नन्दू जिज्जी की डायरी के पात्र नहीं थे। वह डायरी जिसमें राजकुमारों जैसे क्रिकेटर, श्रीकान्त जैसे नायक और यहाँ तक दातादीन जैसे नाविक दर्ज थे, उसमें बिपिन जीजा कभी स्थान नहीं पा पाए। शादी के कुछ दिनों बाद जब नन्दू जिज्जी मायके आईं तब वह मौसी को लेकर घाट पर गईं और दातादीन की नाव पर सवार होकर उन्होंने बीच धार में डायरी चिन्दी-चिन्दी करके बहा दी। 
मौसी मुँह फेर कर चुपचाप देखती रहीं और दातादीन बोले, "बच्ची, इतना लिखा-पढ़ा काहे बहाय दिया, कौन दुख है?"

कोई कुछ न बोला। वाक़ई कौन समझ सकता था कि नन्दू को कौन सा दुःख है! बिपिन जीजा मौलिक निष्ठाओं वाले व्यक्ति थे। वह न केवल आयुर्वेदिक दवाएँ ही देते थे बल्कि उनकी जीवन शैली पर भी आयुर्वेद का प्रभाव था। वह वही सब्जी-फल खाते और खिलाते थे जो मौसम की पैदावार थे। वह ख़ुद माँस-मछली से दूर थे लेकिन जिज्जी की ख़्वाहिश का ख़्याल रखते हुए उन्होंने यह व्यवस्था कर दी थी। जिज्जी जब भी चाहे ग़ैरशाकाहारी भोजन करें। इन सबके बावजूद जिज्जी में वैवाहिक जीवन के बारे में कोई उत्साह नहीं था। पहली बार मायके आने पर लड़कियाँ पति और पतिगृह के बारे में बहुत सी बातें करती हैं। उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया। उनके बुझे-बुझे चेहरे को देख कर एक बार मेरी माँ ने पूछा, "नन्दू, क्या बात है?" कई बार यही बात पूछने पर उन्होंने माँ से कहा, "मौसी, मज़ा नहीं आता।" माँ पता नहीं, क्या समझीं, क्या नहीं। 

नन्दू जिज्जी बिपिन जीजा की दिनचर्या का पूरा ख़्याल रखती थीं। उनके पूजा प्रकोष्ठ की साफ़-सफ़ाई, खान-पान की व्यवस्था और उनके क्लीनिक का गरिमापूर्ण रख-रखाव वह ख़ुद करती थीं। वह जीजा के कपड़ों की क्रीज़ नहीं बिगड़ने देतीं थीं। जिज्जी जीजा के प्रति कृतज्ञ भी थीं क्योंकि मौसा की बीमारी और मृत्यु के बाद वह मौसी और उनकी अन्य दो सन्तानों की यथासम्भव हर मदद करते रहे। जिज्जी भी एक बार टाइफाइड होने के बाद उसे विषज्वर में अनूदित करके आयुर्वेदिक दवाएँ खाती रहीं और ठीक भी हो गईं। शरीर की समस्त दांपत्य कर्तव्यपरायणता के बावजूद जिज्जी के कोई बच्चा नहीं हुआ। बाद में यही माना गया कि जिज्जी के दुख का कारण यही है, चूँकि यही सबसे उचित सामाजिक कारण था। 

नौकरी पाने के बाद मैं अपने घरेलू परिवेश से कुछ दूर छिटक गया था। मेरे ससुर तरह-तरह की तिकड़मों से यह सुनिश्चित करते थे कि मेरी पोस्टिंग घर से दूर रहे। इस बीच मेरी बीबी ने भी मुझे काफ़ी सँवार दिया था। उसने मुझे ज़रूरत भर की अंग्रेज़ी समझना, समझा दिया था। मेरी खेल की किट एक दम साफ़ और कड़क तैयार रहती थी। भले ही मेरा चयन भारतीय फ़ुटबाल टीम में नहीं हो पाया फिर भी मैंने यह ख्याति अर्जित की थी कि भारत के सर्वश्रेष्ठ गोलकीपर भी कभी-कभी मेरे बाँए पैर की किक से उड़ते चक्कर खाते फ़ुटबाल को उसी तरह से पकड़ने में असमर्थ होते थे जैसे कोई नदी में चपल चंचल खिलवाड़ करती हुई मछली को हाथ से पकड़ने में असफल होता है। पत्नी ने ही मेरी उपलब्धियों का एक अलबम तैयार किया था। वह मुझे बहुत अच्छी तरह से प्रस्तुत कर लेती थी। बिना किसी कलह और झगड़े के उसने मुझे माँ-बाप और भाई-बहनों की कक्षा से कुछ दूर प्रस्थापित कर दिया। फिर भी शादी-ब्याह जैसे अवसरों पर मैं अपनी तरफ़ ज़रूर जाता था। वह भी इन अवसरों को अच्छा भुना लेती थी। 

नन्दू जिज्जी के छोटे भाई की शादी में मेरी उनसे आख़िरी मुलाक़ात हुई थी। वह न दुबली हुई थीं और न मोटी। मुझे देखकर वह ख़ुश हुई और बोलीं, "हम तुम्हीं को ढूँढ़ रहे थे, भला आए तो।" 

उनकी बात का जवाब एक कटी-फटी मुस्कराहट से देकर मैंने लपक कर बिपिन जीजा के पैर छुए। जिज्जी हँस कर बोली, "पैर छूने में तो तुम्हारी बीबी भी बड़ी उस्ताद है। क्या विधि से पैर पैर छूती है!"

मैंने बात का रुख मोड़ने की ग़रज़ से कहा, "चलो जिज्जी, फ्राइड फिश खाया जाए।"

"मैंने यह सब छोड़ दिया है, नन्दू," एक क्षीण मुस्कान के साथ जिज्जी ने कहा। 

"क्यों?" कहते हुए मेरी निगाह अनायास जीजा की ओर मुड़ गई। जीजा ने तुरन्त सफ़ाई दी, "देखो यार, मैंने कभी कुछ मना नहीं किया।"

"ये ठीक कह रहे हैं नन्दू। इन्होंने कभी मना नहीं किया। बस मेरी ही तबियत उचट गई।"

"चलो, फिर कुछ और खाते हैं," कहते हुए मैं जिज्जी की बाँह पकड़ कर उन्हें अन्य स्टालों की ओर ले जाने लगा।

"क्यों, छोड़ दिया, नन्दू?" मुझे लगा कि मैं उनसे बड़ा हो गया हूँ।

"मुन्नू भय्या, तुम्हें याद है जब हम लोग कभी-कभी साथ-साथ मछली-गोश्त खाते थे तो साथ-साथ कितनी बातें स्वाद की करते थे। अकेले-अकेले का क्या मज़ा। किसके साथ ज़ायके की हिस्सेदारी करें। इससे अच्छा छोड़ ही दो," कुछ तिक्तता के साथ जिज्जी ने कहा। 

"और अब, तुम्हें जो खाना हो खाओ, मैं जो खाना होगा, खाऊँगी।"

"जिज्जी, आज जो तुम खाओगी वही खाऊँगा।"

"अच्छा तो तुम यह सुनो कि मैं क्या नहीं खाऊँगी। मैं तवा आइटम नहीं खाऊँगी क्योंकि जाडे़ के मौसम में परवल और घुइंया का कोई सेन्स नहीं है। मैं पनीर नहीं खाऊँगी क्योंकि अमृत जैसे दूध की सब्ज़ी बनाने का क्या सेन्स है?"

"ऐज़ यू विश," मैंने अंग्रेज़ी बोली जिस पर आँखें गोल-गोल नचाते हुए जिज्जी ने मेरी पीठ थपथपाई। 

आर्युवेदोक्त आहार की छन्नी से छान कर जो खाना बचा वह हम लोगों ने खाया। पत्नी भी शिष्टाचार और आहार के उपरान्त घड़ी देख रही थी। चलते समय मैंने जिज्जी से पूछा, "और क्या हालचाल है?" 

जिज्जी ने कहा, "कभी तुमने शीरा निचोड़ कर रसगुल्ला खाया है जैसा कि डायबिटीज़ के कोई-कोई मरीज़ करते हैं।" 

"नहीं।"

"कर के देखो," कह कर जिज्जी दूसरी तरफ़ चली गईं। 

नन्दू जिज्जी को मरे पाँच साल हो गए। कैसे मरी, कोई ख़ास जानकारी नहीं। मुझे तो लगता है कि यूँ ही जीते-जीते वह रीत गईं, रिस गईं। खाने के स्थल पर मैं उन सभी चीज़ों को देखने लगा जो उस दिन उन्होंने कह-कह के नहीं खाईं थीं। 

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