नहीं लौट फिर बचपन आया
अनिल मिश्रा ’प्रहरी’संगी - साथी अपनों के दिन
आँखों में नित सपनों के दिन,
बीते पल वो खेल - खेल में
कभी रंजिशें, कभी मेल में।
साल सरकता पचपन आया
नहीं लौट फिर बचपन आया।
सहज, सरल, रंजित दिन ढलते
मिट्टी के तरु भी तब फलते,
परी- लोक में अहा विचरना
मेघों में दिखते गिरि, झरना।
फिर वह गीत नहीं बन पाया
नहीं लौट फिर बचपन आया।
निर्भय थे जीवन के पल - से
झूठे-चेहरे, दल – बल- छल - से,
हार - जीत दोनों ही सम थे
ख़ुशियों के आगे दुख कम थे।
कड़ी धूप भी लगती छाया
नहीं लौट फिर बचपन आया।