नागार्जुन की भाषा

30-06-2014

नागार्जुन की भाषा

डॉ. रेखा उप्रेती

नागार्जुन ने स्वयं को जनकवि कहा है। उनकी लोकप्रियता और विशिष्टता का आधार भी यही है कि उनकी कविता में भारतीय जन का सीधा-सच्चा जीवन प्रतिध्वनित होता है। “कलम ही मेरा हल है, कुदाल है” मानने वाले नागार्जुन ने कविता के माध्यम से अपने समय और समाज की सतहों को कुरेद-कुरेद कर अपने युग का जीवंत दस्तावेज रच डाला है। उनकी चेतना सिर्फ लोकोन्मुखी नहीं है, वह लोक के बीचों बीच से उभरती है। लोक का हर्षोउल्लास हो या उनके अभावों की पीड़ा, नागार्जुन की कविता सबको वाणी देने का दमखम रखती है। शिशु की दंतुरित मुस्कान, नन्हीं कलाइयों की गुलाबी चूड़ियाँ, ठहाके लगाते सुरती फाँकते कुली मज़दूर, रिक्शा चलाते फटी विवाइयों वाले पैर, अकाल की भयावहता, पकी सुनहरी फसलों की मुस्कान, इस तरह के सैकड़ों चित्र उनकी कविता में हैं।

तुच्छ से अति तुच्छ जन की जीवनी पर हम लिखा करते
कहानी, काव्य, रूपक, गीत
क्योंकि हमको स्वयं भी तो तुच्छ्ता का भेद है मालूम
कि हम पर सीधे पड़ी है गरीबी की मार

नागार्जुन का कवि-कर्म इसी तुच्छ जन में उर्जा भर देने का मानो संकल्प है।

जन जन में जो उर्जा भर दे, मैं उदगाता हूँ उस रवि का

भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम भी है और संप्रेषण का साधन भी। नागार्जुन की कविता एक साथ इन दोनों लक्ष्यों को साधती है। उनके लिए कविता केवल आत्माभिव्यक्ति नहीं है बल्कि कोटि-कोटि जन के जीवन का राग-विराग है। नागार्जुन इसी अर्थ में जनकवि कहलाते हैं कि उनकी कविता जिस जन पर है उसी जन के लिए भी है। वह जन की भाषा में रचा गया जन का आख्यान है। यही तथ्य नागार्जुन की भाषा की प्रकृति और स्वरूप को समझने का प्रस्थान बिन्दु है। विविध भाषाओं का प्रकाण्ड पाण्डित्य होने के बावजूद उन्होंने उस सहज सरल भाषा को कविता का माध्यम बनाया जो सबके लिए सुगम और सुबोध है।

नागार्जुन की काव्य भाषा विविध रूपी और विविध वर्णी है। इसके दो कारण हैं- एक तो वे बहुभाषाविद हैं- संस्कृत, पाली, प्राकृत से लेकर खड़ी बोली और मैथिली तक उनकी भाषा का प्रसार है। दूसरा उनके अनुभव संसार का क्षेत्र विस्तृत है। कालिदास, भास जैसे महाकवियों के साहित्य-संसर्ग से लेकर गँवई-गाँव के लोक मन तक उनकी पहुँच है। समाजवादी दर्शन ने उन्हें श्रमिकों, कृषकों की संघर्ष गाथा से जोड़ा है तो सहज मानवीय आत्मीयता ने प्रकृति से उनका राग जोड़ा है। इस अर्थ में वे सम्पन्न भाव-बोध और उतनी ही समृद्ध भाषिक सम्पदा से लैस रहे हैं। संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, खड़ी बोली, मैथिली के अतिरिक्त बंगाली, गुजराती, पंजाबी भाषाओं का भी उन्हें ज्ञान रहा है। सिंहली और तिब्बती वाड्.मय का भी उन्होंने अध्ययन किया है। इतना समृद्ध भाषा ज्ञान उनकी कविता के लिए वरदान सिद्ध हुआ है। इस बहुभाषाविज्ञता के कारण ही उनकी भाषा विषयानुकूल विविधरूपों और रंगों में आकार लेती है।

नागार्जुन की शब्द-सम्पदा अतुलनीय है क्योंकि वे किसी एक भाषा के शब्दों तक सीमित नहीं रहते । उनकी चहल-कदमी देसी-विदेशी भाषाओं के संसार में चलती रहती है। जहाँ जिस शब्द का प्रयोग उन्हें सटीक लगता है वे बिना हिचकिचाहट उसका प्रयोग करते हैं। एक ही कविता में विविध स्रोतों की शब्द-सरिता बहा देना उनकी भाषा की विशेषता है। उदाहरण के लिए उनकी कविता ‘जयति नखरंजनी’ में शब्द प्रयोग की बानगी देखी जा सकती है-

सामने आकार
रुक गई चमकचमाती कार
बाहर निकलीं वासकसज्जा युवतियाँ
चमक उठी गुलाबी धूप में तन की चम्पई कांति
तिकोने नाखूनों वाली उँगलियाँ
सुर्ख नेलपालिश
कीमती रिस्टवाच
अँगूठियों के नग
कानों के मणिपुष्प
किंचित् कपचे हुए सघन नील-कुंतल
सब कुछ चमक उठा, महक उठा वायुमंडल
तरल त्वरित गति थी
ललित थी भंगिमा
करीब के पार्टी-कैम्प तक जाकर पूछ ली अपनी क्रमसंख्या
तत्पश्चात् आगे बढ़ी पोलिंग बूथ की ओर
आ रहा था डालकर वोट एक अधेड़
उँगली की जड़ में चमक रहा था काला ताजा निशान
ठमक गए सहसा बेचारियों के पैरः
हायः इतने सुंदर हाथ हो जाएँगें दागी!
भड़क उठा परिमार्जित रुचि बोध-
छिः कौन लगवाए काला निशान!
कौन ले बैलट पेपर, मतदान कौन करे!
क्षण भर ठिठककर
नई दिल्ली की तीनों परियाँ
मुड़ गई सहसा वापस
स्टाई हुई कार, लोग लगे हँसनेः
बात थी ज़रा-सी बस काले निशान की,
तीन वोट रह गए फैशन के नाम पर!
गुनगुनाता रहा वहीं
बार-बार एक युवक-
जयति नखरंजनी!
जयति दृग-अंजनी!
भक्त-भ्रम-भंजनी!
नवयुग निरंजनी!

इस कविता में संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी, देशज सभी स्रोतों के शब्दों का प्रयोग नागार्जुन ने सहजता से किया है। आम बोलचाल की खड़ी बोली के बीच जहाँ संस्कृत के ‘वास्कसज्जा, कांति, मणिपुष्प, किंचित, सहान, नील-कुंतल, वायु-मंडल, तरल, त्वरित, गति, ललित, भगिमा, तत्पश्चात्, परिमार्णित, रुचि बोध, नग, क्रम-संख्या, क्षणभर, नखरंजनी, दृग, अंजनी, भक्त-भ्रम-भंजनी, नवयुग निरंजनी जैसे तत्सम शब्द प्रयुक्त हुए हैं वहीं उर्दू के नाखून, सुर्ख, कीमती, महक, करीब, ताज़ा निशान दागी जैसे शब्दों का प्रयोग भी हैं। कपचे हुए, अधेड़, ठमक गए, हाय, छिः जैसे ठेठ देसी प्रयोगों के साथ-साथ - कार, नेल पॉलिश, रिस्टवाच, पार्टी-कैम्प, पोलिंग बूथ, वोट, बैलट पेपर, स्टार्ट, फैशन जैसे अंग्रेजी के शब्दों का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया गया है। शब्दों के इस घालमेल से जिस व्यंग्य की रचना कविता में की गई है वह नागार्जुन की भाषा का अपना खास ‘फ्लेवर’ है। उनकी बहुत सी कविताओं में भाषा का यह मिला जुला रूप लक्षित किया जा सकता है।

खिचड़ी भाषा का यह आस्वाद ही उनकी काव्य-भाषा की एकमात्र पहचान नहीं है। जहाँ नागार्जुन अपने भीतर के गहन राग-बोध को, प्रकृति के मनोरम रूपों को कविता में चित्रित करते हैं वहाँ भाषा की एकदम भिन्न छवियाँ दृष्टिगत होती हैं। ऐसी कविताओं में उनकी भाषा संस्कृत की क्लासिक परम्परा का अनुसरण करती दिखाई देती है। ‘बादल को घिरते देखा है’ कविता में संस्कृत की दीर्घ सामासिक शब्दावली का सौन्दर्य मुखरित होता है-

शत-शत निर्झर निर्झरणी कल
मुखरित देवदार कानन में
शोषित धवल भोज पत्रों से
छाई हुई कुटी के भीतर
रंगबिरंगे और सुगंधित
फूलों की कुंतल को साजे
इन्द्रनील की माला डाले
शंख सरीखे सुघड़ गलों में
कानों में कुवलय लटकाए
शतदल लाल कमल वेणी में
रजत-रचित मणि खचित कलामय
पान-पात्र द्राक्षासव पूरित
रखे सामने अपने-अपने
लोहित-चंदन की त्रिपदी पर
नरम निदाग बाल कस्तूरी
मृगछालों पर पलथी मारे
मदिरारुण आँखों वाले उन
उन्मद किन्नर किन्नरियों की
मृदुल मनोरम अंगुलियों को
वंशी पर फिरते देखा है
बादल को घिरते देखा है।

वस्तुतः संस्कृत भाषा का ज्ञान होने के कारण नागार्जुन ने कालिदास, भास, भवमूति आदि कवियों के काव्य का अध्ययन, मनन और अनुवाद किया है। संस्कृत भाषा का यह काव्यगत संस्कार उनकी भाषा में भी स्वतः आ गया है। संस्कृत शब्दावली का प्रसंगानुकूल प्रयोग नागार्जुन की काव्यभाषा को अभिजात्य स्वरूप प्रदान करता है। उनकी कविता ‘कालिदास’ की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-

शिवजी की तीसरी आँख से
निकली हुई महाज्वाला में
घृतमिश्रित सूखी समिधा-सम
कामदेव जब भस्म हो गया
रति का क्रंदन सुन आँसू से
तुमने ही तो दृग धोए थे

लेकिन इस प्रकार की अभिजात्य शद सम्पदा के मुकाबले अनुपात में कहीं अधिक हैं वे शब्द जो ठेठ हिन्दी की बोलियों से लिए गए हैं। लोकचेतना के मर्मज्ञ कवि की भाषा के लिए यह स्वाभाविक ही है कि उसमें लोक की शब्दावली का सर्वाधिक उपयोग हो। विविध बोलियों की शब्द सम्पदा को समेटे नागार्जुन की भाषा न केवल अर्थ को व्यापक विस्तार देती है बल्कि भाषा को जीवन्त, बोधगम्य और प्रवाहमान भी बनाती है। पूर्वी हिन्दी की बोलियों के शब्द उनकी कविता में सबसे अधिक हैं जैसे- डग, सुगबुगाई अगहनी, परमान, हिरनौटा, कपार, बुकनी, टिकली, पनिहा, टहलुआ, नाहक, शऊर, अबेर-सबेर, थूथन, बुकनी, जइयों, भेड़िया-धसान, भागमंत, टटका, पतइयों, बाँचे, विस्तुइया आदि।

‘घुन खाए शहतीरों’ पर की बारहखड़ी विधाता बाँचे
फटी भीत है छत चूती है, आले पर विस्तुइया नाचे

जनजीवन से गहरे लगाव और लोहहितकारी दृष्टिकोण के कारण उनकी भाषा अधिकाशंतः लोक के करीब रही है। वह लोक की बात, लोक के लिए, लोक की शब्दावली में प्रस्तुत करने के लिए प्रतिबद्ध हैं इसलिए सौष्ठव और मँजाव से अधिक भाषा के ठेठ रूप को वे अधिक प्रश्रय देते हैं। अभिव्यक्ति के सन्दर्भ में उनका दृष्टिकोण स्पष्ट है। वे कहते हैं-

चुप-चुप तो मौत है
पीप है कठौत है
बमको भी, खासों भी, खुनको भी
........................................................सनको भी, अकड़ो भी, तुनको भी

इसी कारण उनकी भाषा के तेवर काफी प्रखर हैं। इसमें व्यंग्य की बारीक धार है जो सीधे मर्म पर वार करती है। सीधी-सपाट जनपदीय भाषा में बात करते-करते उनकी कविता लोकतंत्र के ढोल की पोल बड़ी सहजता से खोल देती है। ‘इतना ही काफी है’ कविता में इनकी एक बानगी दिखाई देती है-

बोले थे नेह-पगे बोल
यह भी बहुत है! इतना भी काफी है।
औचक ही आँख गए खोल
यह भी बहुत है। इतना भी काफी है।
गाहक थे, पता चला मोल,
यह भी बहुत है, इतना भी काफी है।
अचल था तन, मन गया डोल
यह भी बहुत है। इतना भी काफी है।
लौटे हो, लगी नहीं झोल,
यह भी बहुत है। इतना भी काफी है।

देश की लोकतांत्रिक राजनीति में नेता और जनता के अन्तर्संबधों को टटोलती इस कविता में नेह-पगे, औचक, गाहक, मोल, डोल, झोल जैसे देशज शब्द एक ओर कविता को जन से जोड़ते हैं वही पार्टियों और नेताओं की स्वार्थपरायणता की पोल-पट्टी भी खोलते हैं।

संस्कृत और लोकभाषा के शब्दों के अतिरिक्त उर्दू और अंग्रेजी के शब्दों की भी भरमार नागार्जुन की कविताओं में देखी जा सकती हैं। मुगालता, हुकूमत, नफाखोर, मुस्तैद, कादिल, फिजूल, हकीकत, यक-ब-यक, मनसूबा, हमदर्द, आजमाइश, उस्ताद, ज़िक्र, दरमियान, जालिम, आवाम, तुनुक मिज़ाज, बदजुबान, मर्जी-मुताबिक, सिपहसालार, गुफ्तगू, अर्से, कामयाब आदि अरबी-फारसी के शब्द नागार्जुन की भाषा को समृद्ध करते हैं, कहीं कहीं पूरी की पूरी पंक्तियाँ उर्दू शैली में भी मिलती हैं-

‘‘हम सफीर को सलाम, हमसफर को सलाम
सूबा-ए-बिहार के जौहर को सलाम’’

अंग्रेजी शब्दों के लोकप्रचलित रूपों का जिस खूबी से इस्तेमाल नागार्जुन करते हैं वैसा विरले ही हिन्दी कवि कर पाये हैं। भाषा को लेकर जो बेफ्रिक - बेलौस अन्दाज उनका रहा है वह उनकी अपनी खासियत है। कुछ-कुछ कविताओं के तो शीर्षक ही अंग्रेजी में है जैसे- ‘प्लीज एक्सक्यूज़ मी’, ‘ फेंस-टू-फेस’, ‘सेटिमेंट’, ‘डेमोक्रेसी की डमी’, ‘भाई डियर दद्दू हमारे’, ‘ डियर तोताराम’, ‘कणिका भाई डियर’, ‘ नर्सरी राइम’, ‘ नान भेजिटेरियन आमदनी’ ‘लिट्टी इंटरनेशनल’, ‘ ऐटम बम’, ‘ पुलिस अफसर’, ‘खड़ी है ट्रेन’, ‘एक्शन में आ गए है’, ‘लीडर ऑपोजीशन का’ आदि।

इसके अतिरिक्त ‘पोस्ट ग्रेज्यूएट’, डेविएशन, ब्वाय, पब्लिक, ब्यूरोक्रेसी, एम्बूलैंस, एग्रीमेंट, प्रूफरीडरी, ड्यूटी, आनरेबुल, प्लीज़, किलास, स्लोगन, सोशलिस्ट एनब्हेयर, एनीटाइम, सर्कुलर, कालिज जैसे अनेक शब्द जो हिन्दी भाषी जनता प्रयोग करती है वे नागार्जुन के लिए भी त्याज्य नहीं हैं। ऐसे शब्द-प्रयोगों भाषा में स्वाभाविकता के साथ-साथ व्यंग्यात्मकता का भी संचार हुआ है।

नागार्जुन के भाषा प्रयोग में मौलिक उद्भावनाएँ, उर्वर कल्पना शक्ति, प्रचलित शब्दों, मुहावरों में नया अर्थ भर देने की क्षमता है इस अर्थ में वे भाषा का केवल प्रयोग नहीं करते बल्कि उसको रचते भी जाते हैं। नये-नये विशेषण गढ़ने में वे सिद्धहस्त हैं जैसे- कुबेर के छौने, चितकबरी चाँदनी, नख- रंजनी, वेतन-सर्वस्व-बुद्धिजीवी, सिंदूर तिलकित भाल, शब्द-खोर, शब्द-शिकारी, ग्रंथकीट, धन-पिशाच, युगनन्दिनी विज्ञापन सुन्दरी, निरन्न-जनता, छिनाल पुरवइया, घुटनाटेकू समझौता, दक्षिणपंथी सोसलिस्ट सिगारपायी कुर्सीधर प्राचार्य, आदि। इसी प्रकार द्वित्व ध्वनि वाले शब्दों का प्रयोग भी उनकी भाषा में व्यंग्य की धार पैदा करता है, जैसे-झूमता-झामता, सांसद-फांसद, कथित-कथन, आदरणीय-फादरणीय, रचना-फचना आदि।

गालियों के प्रयोग में भी नागार्जुन किसी से पीछे नहीं रहते। नई-नई गालियाँ ईजाद करने में वे सबसे आगे हैं। शोषणकारी, साम्राज्यवादी शक्तियों को पोषने वाले व्यक्तियों के प्रति ये गालियाँ मुक्तकण्ठ से निकाली गई हैं। कुछ उदाहरण द्रटव्य हैं-

‘ये हृदयहीन ये नशपिशाच ये कुत्ते’
‘हिटलर की मौसी, मुसोलिनी की नानी’
‘महामहिम महामहो उल्लू के पट्ठे’
’लक्ष्मीवाहन, ढूंढ़िराज निर्वीय वृथाजन्मा धनपतिगण’’ 
आदि।

 इस प्रकार संस्कृत की अभिजात्य शब्दावली से लेकर देसी गालियों तक नागार्जुन की शब्द निधि में सब सहज ही समाहित हो जाता है। रवानगी उनकी भाषा की विशेषता है। सायास शब्द चयन की अपेक्षा यहाँ बहती हुई प्रवाहभयता है। भाषा की लय बनाए रखने के लिए कवि को जहाँ जो शब्द सटीक-सार्थक लगता है उसका वे बेझिझक प्रयोग करते हैं।

नागार्जुन ने चमत्कार-प्रदर्शन के लिए सायास अंलकारों का प्रयोग चाहे न किया हो लेकिन उनकी कविता में आलंकारिक सौन्दर्य का अभाव नहीं है।

तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान
मृतक में भी डाल देगी जान
धूलि-धूसर तुम्हारे ये गात....
छोड़कर तालाब मेरी झोपड़ी में खिल रहे जलजात
परस पाकर तुम्हारा ही प्राण
पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण

इस कविता में शिशु की दंतुरित मुस्कान और उसके प्रति अपने स्नेह की सहज अभिव्यक्ति करते हुए नागार्जुन ने भाषा को सुन्दर रूप में अलंकृत किया है। इन पंक्तियों में ‘मुस्कान’ और ‘जान’ में, ‘जात’ और ‘जलजात’ में, ‘प्राण’ और ‘पाषाण’ में, अन्त्यानुप्रास है। ‘धूलि-धूसर’, ‘परस पाकर’ में छेकानुप्रास अलंकार है। ‘छोड़कर तालाब मेरी झोपड़ी में खिल रहे जलजात’ में रूपक अलंकार है तथा “पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण” पंक्ति में उत्प्रेक्षा अलंकार का सौन्दर्य दृष्टव्य है।

जहाँ रागात्मकता से पूर्ण कविताओं में नागार्जुन ने उपर्युक्त पारम्परिक, सांस्कृतिक उपमानों का प्रयोग किया है वहीं अपना क्षोभ और आक्रोश प्रकट करने के लिए उनकी भाषा कैसे-कैसे नये उपमान गढ़ती है, इसका नमूना उनकी ‘बताऊँ’ कविता में देखा जा सकता है-

“बताऊँ
कैसे लगते हैं
दरिद्र देश के धनिक?
कोढ़ी-कुढब तन पर मणिमय आभूषण!!”
बताऊँ?
कैसी लगती है-
पंचवर्षीय योजना?
हिडिम्बा की हिचकी, सुरसा की जँभाई!!”

नागार्जुन की एक अन्य प्रसिद्ध कविता है- ‘खुरदरे पैर’। इस कविता में रिक्शा चलाने वाले के फटी बिवाई वाले खुरदरे पैरों की तुलना नागार्जुन विष्णु के अवतार वामन के पैरों से करते हैं-

“दे रहे थे गति
रबड़-विहीन ठूँठ पैडलों को
चला रहे थे
एक नहीं दो नहीं तीन-तीन चक्र
कर रहे थे मात त्रिविक्रम वामन के
पुराने पैरों को
नाप रहे थे धरती का अनहद फासला
घंटों के हिसाब से ढोए जा रहे थे”

वामन अवतार में विष्णु ने तीन पैरों से पूरी धरती को माप लिया था, इस मिथक की तुलना नागार्जुन तीन पहियों की रिक्शा को खींचते उन पैरों से कर रहे हैं जो अपनी आजीविका कमाने के लिए घंटों के हिसाब से लगातर धरती का फासला नापते रहते हैं और नागार्जुन की दृष्टि में इन पैरों की महत्ता वामन के पैरों से अधिक है।

नागार्जुन की कविता एक तरह का संवाद है। अपने परिवेश के प्रति जागरूक कवि का मुखर वाद-विवाद। जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि नागार्जुन के लिए कविता केवल आत्माभिव्यक्ति नहीं है वह जन की, लोकमानस की पीड़ा का हाहाकार भी है, उनके सुख-दुख की गाथा है। लोक की दुरावस्था के लिए वे राजनीति की स्वार्थपरक नीतियों को जिम्मेदार मानते हैं। इसीलिए उनकी अधिकांश कविताएँ संबोधित है नेताओं को, भले बुरे सभी लोकनायकों, नेताओं को संबोधित करके उन्होंने कविताएँ लिखी हैं। गोर्की, गाँधी, रवीन्द्रनाथ टैगोर, लेनिन, निराला को संबोधित कविताओं में इन महापुरुषों के प्रति श्रद्धा व्यक्त है तो दूसरी ओर जवाहरलाल, इन्दिरा गाँधी, आदि को सम्बोधित कविताओं में व्यंग्य-मिश्रित प्रश्नाकुलता झलकती है-

“क्या हुआ आपको?
क्या हुआ आपको?
सत्ता की मस्ती में
भूल गई बाप को?
इंदुजी, इंदुजी, क्या हुआ आपको?”

व्यंग्य – मिश्रित नाटकीयता उनकी भाषा को विशिष्ट आयाम देती है। उदाहरण के लिये ‘मास्टर’ कविता की भाषा में नाटकीयता का यह पुट देखा जा सकता है। चाहे वह देहात के प्राइमरी स्कूल की बदहाली का दृश्य हो या वहाँ के मास्टर की मंत्री से मुलाकात का दृश्य। संवाद, द्वंद्व, संघर्ष पूरी कविता की भाषा को नाटकीयता प्रदान करते है-

“अरे, अभी उस रोज़ वहाँ पर सरेआम जक्शन बाजार में
शिक्षामंत्री स्वयं पधारे चमचम करती सजी कार में
ताने थे बंदूक सिपाही, खड़ी रही जीपें कतार में
चटा गए धीरज का इमरत सुना गए बातें उधार में
चार कोस से दौड़े आए जब मंत्री की सुनी अवाई
लड़कों ने बेले बरसाए, मास्टर ने माला पहनाई
संगीनों की घनी छाँव में हिली माल मूरत मुसकाई
तम्बू में घुस गए मिनिस्टर, मास्टर पर कुछ दया न आई

कहना न होगा यह पूरी कविता भाषा के माध्यम से पूरा रंगमंच रच रही है। दृश्य, संघर्ष संवाद का ताना-बाना पूरी शिक्षा-व्यवस्था के छल-छद्म का नाटक प्रस्तुत करता है। ‘प्रेत का बयान’, ‘युद्ध का अन्त’, ‘विज्ञापन सुन्दरी’ ‘गुलाबी चूड़ियाँ’ ‘नथुने फूला फूला के’ ‘नेवला’ आदि कविताओं की भाषा में भी नाटकीयता का यह गुण कविता को सशक्त अभिव्यक्ति देता है।

नागार्जुन के लिये कविता सिर्फ कला-कृति नहीं, वह अन्याय से लड़ने का हथियार है, जिससे वार करने में वे सिद्धहस्त हैं। जनविरोधी व्यवस्था पर वार करना उनकी कविता की सिद्धि है। कला की उन्हें परवाह नहीं। उनकी मुख्य चिंता भाषा की नफासत नहीं बल्कि भारतीय जनसमाज की दुर्दशा के लिये जिम्मेदार व्यवस्था को दुरुस्त करने की है। इस कोशिश में कई बार कविता कविताई छोड़ नारा भी बन जाती है, व्यंग्य व्यंजना छोड़ अभिधात्मक गाली बन जाता है, कविता सौंदर्य का ताना-बाना छोड़ भदेस बन जाती है, पर बाबा नागार्जुन को न कविताई की परवाह है न सौंदर्य के प्रतिमानों की। अपनी अभिव्यक्ति पर उनकी टिप्पणी है-

खूब गालियाँ बको जभी तो लोग रखेंगे याद
नागा बाबा, बनो आप ही तुम अपना अपवाद
कड़वी तीखी वाणी के चरपरे कहेंगे स्वाद
घोर औघड़ी अभिव्यक्ति पर जनता देगी दाद

लेकिन नागार्जुन की कविता में कविताई को सिरजने वाली अभिव्यक्ति भी उतनी ही मात्रा में मौजूद है इसलिये उनके बिना आधुनिक हिंदी कविता का मूल्यांकन संभव नहीं। उनकी कई कविताओं को हम सामयिक कह सकते हैं कई अभिव्यंजनाओं पर नाक-भौं सिकोड़ सकते हैं लेकिन उनकी कविता के दमखम को नकार नहीं सकते। नागार्जुन की काव्य-भाषा के विविधि आयामी स्वरूप पर प्रसिद्ध आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने सटीक टिप्पणी की है। अपनी पुस्तक ‘कविता की जमीन और जमीन की कविता’ में वे लिखते हैं-

“उनके बात करने के हजार ढंग हैं, और भाषा में भी बोली के ठेठ शब्दों से लेकर संस्कृत की संस्कारी पदावली तक इतने स्तर हैं कि कोई भी अभिभूत हो सकता है। तुलसीदास और निराला के बाद कविता में हिन्दी भाषा की विविधता और समृद्धि का ऐसा सर्जनात्मक संयोग नागार्जुन में ही दिखाई पड़ता है।” वस्तुतः बहुभाषाविद् होने और जीवनजगत के विस्तृत वितान पर फैले हुए अनुभवों के कारण उनकी भाषा की ‘रेंज’ बहुत विस्तृत है। उसमें “अमल धवल गिरि के शिखरों” सी रम्यता है तो “फटी बिवाइयों वाले पैरों’ सा खुरदरापन भी है। लोक की चेतना में गहरी पैठ, राजनीति के छल-छद्मों की सूक्ष्म पहचान, प्रगतिशील विचारधारा की प्रतिबद्धता, निडर मानस की बेखौफ फितरत सभी को अभिव्यक्त करने में नागार्जुन की भाषा समर्थ है।

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