नगाड़े की तरह बजते शब्द

01-01-2021

नगाड़े की तरह बजते शब्द

विजय नगरकर (अंक: 172, जनवरी प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

अभी हाल ही में संथाली भाषा को संविधान में प्रमुख भारतीय भाषा का दर्जा प्राप्त हुआ है। भारतीय ज्ञानपीठ ने संथाली भाषा की सशक्त कवयित्री निर्मला पुतुल का काव्य संग्रह ' नगाड़े की तरह बजते शब्द' का प्रकाशन किया है। झारखंड के दुमका की निर्मला पुतुल संथाल आदिवासी की नई सुशिक्षित पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करती हैं।

उनकी कविताओं में आदिवासी समाज की पीड़ा, अत्याचार शोषण के ख़िलाफ़ बेचैन आवाज़ निकलती है।

इस संग्रह के अलावा उनका दिल्ली के रमणिका फ़ाउंडेशन द्वारा 'अपने घर की तलाश में' संग्रह प्रकाशित हुआ है।

निर्मला पुतुल की रचनाएँ भारत की प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही हैं। साहित्य अकादमी नई दिल्ली ने उन्हें आदिवासी युवा कवियित्री के रूप में पुरस्कृत किया है। यह पुरस्कार संथाली भाषा की सशक्त रचनाकार होने के नाते उन्हें प्राप्त हुआ है। इनकी कविताओं का सशक्त हिंदी अनुवाद झारखंड के दुमका के हिंदी के सुपरिचित कवि श्री अशोक सिंह ने किया है। हिंदी प्रदेश से संबंधित होने के कारण यह हिंदी साहित्य की नवीन पहचान है। 

सुप्रसिद्ध बंगला साहित्यकार महाश्वेता देवीजी ने उन्हें सम्मानित किया है।

हिमाचल प्रदेश के एक साहित्यिक संगोष्ठी में हिंदी समीक्षा के महापुरुष मा. श्री नामवर सिंह ने नवलेखकों  को कहा था कि निर्मला पुतुल की रचनाओं को पढ़ो। आदिवासी होकर भी उनकी कविता में समाज के प्रति गंभीर चिंतन है।
हमारे समाज में दलित, हरिजन गाँव के बाहर रहते हैं। उनकी पीड़ा दु:ख को उजागर किया जा रहा है। लेकिन गाँव से दूर जंगल में रहनेवाले आदिवासियों की सुध लेने की जरूरत हमने कभी महसूस नहीं की । हमने अपने स्वार्थ के लिए पेड़ कटवाये, जंगल का घोर विनाश कियाड। मनुष्यता की अबोध निर्मल जीवन प्रणाली को नागर संस्कृति ने भ्रष्ट किया। उनकी कविताओं में निरीहता, भोलापन, निश्छलता, पवित्रता और निर्दोषता है।

’नगाडे़ की तरह बजते शब्द’ यह घोषित करता है कि जंगल में शहरी आदमी घुस आया है। आदिवासियों में किसी घटना या सतर्कता के लिए विशिष्ट आवाज़ नगाड़े से निकाली जाती है। इसी आवाज़ से संपर्क बनता है। आदिवासी सजग हो जाता है।

निर्मला कहती हैं –

'देखो अपनी बस्ती के सीमांत पर
जहाँ धराशायी हो रहे हैं पेड़ कुल्हाड़ियों के सामने असहाय
रोज़ नंगी होती बस्तियाँ। 
एक रो्ज माँगेगी तुमसे तुम्हारी खामोशी का जवाब।
सोचो- तुम्हारे पसीने से पुष्ट हुए दाने एक दिन लौटते झैं
तुम्हारा मुँह चिढ़ाते हुए तुम्हारी ही बस्ती की दूकानों पर
कैसा लगता है तुम्हें? जब तुम्हारी ही चीजें 
तुम्हारी पहुँच से दूर होती दिखती हैं।’

निर्मला का आरोप है कि वे लोग दबे पाँव आते हैं आदिवासी संस्कृति में और उनके नृत्य की प्रशंसा करके हमारी हर कला को धरोहर बताते हैं। लेकिन वे सब सौदागर हैं जो जंगल की लकड़ी और आदिवासी कला संस्कृति नृत्य का कारोबार चलाते है।

किताबों से दूर रहकर जंगल पर निर्भर रहनेवाला आदिवासी आज रोज़ी-रोटी के लिए बेहाल है। उनके बच्चे शहरों में, गाँव में दूकान पर मज़दूरी करते है और उनकी लड़कियाँ गाड़ी में लादकर कोलकोता, नेपाल, दिल्ली के बाज़ार में बिक्री के लिए खड़ी कर दी जाती हैं। 

संताल परगाना में आदिवासी संस्कृति अब धीरे-धीरे नष्ट होती जा रही है। अब आदिवासी के तीर-धनुष, मांदल, नगाड़ा, पंछी, बाँसुरी संग्राहलय में प्रदर्शन के लिए रखे जा रहे हैं। अब उनके हज़ारों क़िस्से बच गए हैं जो आदिवासी संगोष्ठी में शहरी लोग बयान करते हैं।

कवयित्री निर्मला का विद्रोह अपनी कविता में लावा रस की तरह उबल रहा है। आदिवासी का सवाल यह है कि हमारे बिस्तर पर हमारी बस्ती का बलात्कार करके हमारी ज़मीन पर ख़ड़े होकर हमारी औक़ात पूछने वाले आप शहरी, गाँव वाले कौन हैं ? 

कवयित्री ने 'संथाली लड़कियों के बारे में कहा गया है' इस कविता में आदिवासी नारी का सहज, अबोध सौंदर्य का मनोहारी रूप प्रकट किया है। आदिवासी नारी देह का वर्णन करनेवाले को वह कहती है कि वह निश्चय ही हमारी जमात का खाया-पीया आदमी होगा जो सच्चाई को एक धुँध में लपेटता निर्लज्ज सौदागर है।

कवयित्री अपने भोले आदिवासी समाज को सचेत करती है। अपनी जमीन, जंगल और संस्कृति को बचाये रखने का आवाहन करती है। 'चुड़का सोरेन' कविता में आदिवासी बंधु को पूछती है तुमको वे लोग प्रजातंत्र के दिवस पर दिल्ली के कार्यक्रम में प्रदर्शित करते हैं। लेकिन क्या आपको मालूम है प्रजातंत्र किस चिड़िया का नाम हैं?

'जीवन रेखा' ट्रस्ट के माध्यम से संथाल आदिवासियों की समाज सेवा करते हुए कवियित्री का संपर्क अनेक आदिवासियों के जनजाति से हो रहा है। संथाल आदिवासी की इस सुशिक्षित कवयित्री ने समाज शास्त्र का गंभीर अध्ययन किया है। आदिवासियों का आर्थिक एवं सामाजिक विकास करते समय उसने यह जाना है कि साहित्य की निर्मिति केवल स्वातं सुखाय नहीं है। अपने आदिवासी समाज पर चिंतन करते हुए उनकी कविताएँ मानवीय संवेदना, नारी पीड़ा और असवसरवादी मानसिकता पर प्रकाश डालती है।

संथाली भाषा की एक उम्दा युवा कवयित्री के पास हिंदी साहित्य की ऊँचाई छूने की ताक़त है। उनकी कविताएँ सहज सरल और सीधे हृदय को भिड़ने वाली हैं। इन कविताओं में वर्तमान आदिवासी, समाज की संवेदना गंभीर चिंतन के साथ उभर कर आयी है। उनका भविष्य उज्जवल है।

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