नासमझ मजदूर

संजीव शुक्ल (अंक: 156, मई द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

"सरकार हमें घर की याद आ रही, अब हम घर जाना चाहते हैं। अब यहाँ रहा नहीं जाता!!" 

"क्यों भाई ऐसा क्या??" सरकार ने घुड़कते हुए कहा। उन्होंने समझाया कि ऐसी बीमारी में यात्रा करना, बीमारी को बढ़ावा देना है। "और फिर यहाँ दिक़्क़त क्या है भाई??" 

"नहीं साहब, अब तो अपनी जेब भी ख़ाली हो गई, कोई बैठे-बिठाए कब तक खिलाएगा!!! अब तो भुखमरी की नौबत आ गयी है," मजदूर गिड़गिड़ाते हुए बोला। "साहब इस कोरोना के चलते हमारे तो हाथ कट गये। अपना तो काम ही छिन गया साब;  बस अब घर भिजवा दीजिये सरकार!! वहाँ ज़िंदा तो रहेंगे, यहाँ तो कोई भीख भी न देगा।

"कुछ भी हो, वहाँ की ज़मीन इस तरह धोखा नहीं देगी, गाँव के लोग इस तरह अकेला नहीं छोड़ेंगे कि ज़िंदा होने का अहसास ही मर जाए," उसकी अपने गाँव के बारे में ऐसी ही राय थी। उसने आगे बढ़कर कहा, "सरकार यहाँ तो न कोई ख़बर लेने वाला और न ही कोई देने वाला। साहब मरना ही है तो अपनी मिट्टी में मरूँगा!!" 

साहब समझाते हुए बोले, "भावनाओं में न बहो, यह समय ज़िम्मेदारियों का है। इस शहर ने तुमको बहुत कुछ दिया है; रोज़ी-रोटी दी है और अब तुम इसे छोड़कर जाने को कह रहे हो!!  तुलसीदास जी कह गए हैं कि जहाँ बसहु, तहँ सुंदर देसू, अतः यह तुम्हारा अपना शहर है, यही तुम्हारा कर्मक्षेत्र है, इससे मुहँ न चुराओ!! इस महामारी ने तुमको अपनी मज़बूती दिखाने का मौक़ा दिया है। यह ख़ुद को साबित करने का मौक़ा है।" 

इस तरह साहब अपना सम्पूर्ण गीता-ज्ञान उस मजदूर पर बेहिसाब उड़ेलते हुए आगे बढ़ चले। वह कुछ जल्दी में थे, उनको अभी और मोहग्रस्त अर्जुनों को सच्ची राह दिखानी थी। पर मजदूर अभी पूरी तरह से अर्जुन बनने के मूड में नहीं था, सो वह दौड़कर सरकार के सामने जा खड़ा हुआ। 

सरकार पहले तो अचकचाए फिर मुस्कराते हुए पूछा, "क्या बात है, बताओ?"

"साहब इस महामारी ने तो सबको घरों में क़ैद कर दिया है; अब तो उद्योग और सारी मिलें भी बंद हो चुकीं हैं, तो यहाँ ख़ाली रहकर भी क्या करें?"

साहब समझाने की गरज़ से बोले कि बहुत काम किया है तुम लोगों ने यहाँ; तुमने अपने हिस्से का बहुत श्रम दिया है इस शहर को है, कुछ दिन आराम करो। रही बात काम की, तो वह भी मिलेगा। 

"क्या साहब अस्पताल बनवाए जाएँगे, जिसमें हमें काम मिलेगा," मजदूर ने बड़ी उम्मीदों से पूछा। 

"नहीं, फ़िलहाल अभी नहीं; उस पर भी काम होगा, पर अभी और भी ज़रूरी काम हैं," साहब ने आश्वस्त किया। 

साहब ने उसकी जिज्ञासा शांत करते हुए कहा, "अभी सबसे महत्त्वपूर्ण तुम्हारा काम यही है कि तुम महामारी से लड़ने वाले सिपाहियों का उत्साहवर्धन करो।" 

"साहब उसमें हमें क्या करना होगा," आश्चर्य भारी निगाहों से उसने साहब की ओर देखा! 

साहब ने कहा, "कुछ नहीं बस तुमको उन वारियर्स के लिए ताली-थाली बजानी है, यह हमारा उनके प्रति सम्मान होगा। और हाँ, जो नहीं बजाएगा, उसको फिर हम बजाएँगे। यह तो करना ही है। यह सब हम अपने लिए नहीं, देश के लिए करेंगे; उन योद्धाओं के लिए करेंगे जो महामारी से निपटने में दिन-रात एक किये हैं।" 

"तो सरकार इसके लिए तो हमें उन डाक्टरों और सिपाहियों को सामूहिक रूप से सम्मानित करना चाहिए, ऐसे वो कैसे जान पाएँगे कि यह सम्मान उन्हीं के लिए है," मजदूर ने खुलकर अपनी राय दी।

"अरे वह सब जान जाएँगे, हमने इसकी पूरी व्यवस्था कर रखी है। टीवी पर विज्ञापन दिए जा रहे हैं। और हाँ, दिया-बाती भी करनी है। पर एक चीज़ ध्यान रखनी है, वह यह कि दिया-बाती करने से पहले घर की रोशनी को बुझा दिया जाय।" 

"ऐसा क्यों सरकार, पहले बुझाए फिर जलाएँ..." मजदूर ने फिर सवाल उठाया। 

मजदूर के भोलेपन पर मुस्कराते हुए सरकार परम रहस्य को उद्घाटित करते हुए दार्शनिक अंदाज़ में बोले, "प्रकाश का महत्त्व अंधकार से है, इसलिए प्रकाश करने के पहले हमें अंधकार को बढ़ाना होगा, जो जल रहा है, उसे बुझाना होगा। नहीं तो, कैसे पता चलेगा कि हमने रोशनी बिखेरी है।" 

बावजूद इसके कि बात ऊपर से निकल रही है, फिर भी उस मजदूर ने सरकार के सामने हाँ-हूँ किया। उसके सभी सवालों का जवाब मिल चुका था, पर तभी दिन भर से भूखे बीवी-बच्चों का चेहरा उसके सामने आ जाने से पेट का सवाल उससे रोके न रोका गया।

वह पूछ बैठा, "साहब पेट का क्या करें, गाँव में तो कोई न कोई दे ही देगा, पर यहाँ कौन भूखे की आवाज़ सुनेगा??" 

साहब ने दुष्यंत कुमार को पढ़ रखा था सो उन्होंने "भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ, आजकल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दआ" वाली स्टाइल में उसे सांत्वना दी और इसके लिए फ़िक्रमंद होने की राय भी ज़ाहिर की। सरकार इसकी तत्काल व्यवस्था करने की बात कहकर आगे बढ़ गए। 

उनकी चाल देखकर लग रहा था कि साहब रोटी की व्यवस्था में ही गये हैं। वह गए भी इस नीयत से थे, पर सरकार को तो सबको देखना था, सबको सुनना था इसलिए समय तो लगता ही!!! मजदूर ने माना भी, समझा भी; कुछ सब्र भी किया, लेकिन पेट की आग ने समझने न दिया और आख़िर वह इस शहर से जिसने उसे बहुत कुछ दिया था, उस बहुत कुछ को एक गठरी में बाँध अपने परिवार को लेकर 400-450 किमी दूर घर के लिए पैदल ही निकल लिया ......!

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