नारी सशक्तिकरण के परिप्रेक्ष्य में उषा यादव के उपन्यास

01-05-2021

नारी सशक्तिकरण के परिप्रेक्ष्य में उषा यादव के उपन्यास

डॉ. नितिन सेठी (अंक: 180, मई प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

पुस्तक: उषा यादव के उपन्यासों में स्त्री सशक्तिकरण
लेखिका: कामना सिंह
 प्रकाशक: हर्ष पब्लिकेशंस, दिल्ली
मूल्य: ₹499 
पृष्ठ: 192

उषा यादव प्रख्यात साहित्यकार हैं। उपन्यास, कहानी कविता, आलोचना के साथ-साथ बाल साहित्य में भी आपका विपुल लेखन समाज को प्रेरक दिशा देने वाला रहा है। उषा यादव ने जो भी लिखा है, उसे यथार्थ के धरातल पर आकर लिखा है। मानवीय संवेदनाओं का शब्दांकन उनके समग्र कृतित्व का जीवद्रव्य है। बहुमुखी प्रतिभा की धनी उषा यादव समकालीन हिंदी साहित्य में अपने विविधतापूर्ण लेखन से जानी जाती रही हैं। कोई भी साहित्यकार अपने सृजन में किसी एक धारा या वाद से बँधकर नहीं रहता और बहुदैशिक व बहुआयामी सृजन करता है। समकालीन साहित्य की विभिन्न अंतर्धाराएँ साहित्यकार के सृजन में प्रकट होती हैं परंतु अक़्सर ऐसा भी होता है कि किसी साहित्यकार का संपूर्ण सृजन एक विशिष्ट विमर्श का द्योतक बन जाता है। उसके समग्र साहित्य में एक विशिष्ट भावदृष्टि का रेखांकन आसानी से किया जा सकता है। धीरे-धीरे यही उसके समस्त लेखन की पहचान बनकर सामने आता है। उषा यादव के साहित्य के संदर्भ में भी यही बात सत्य है। उनका समस्त कथा साहित्य स्त्री विमर्श की बात करता दिखाई देता है। उषा यादव की कहानियों और उपन्यासों में नारी चेतना मुखर रूप में है। स्त्री विमर्श के विविध स्वरों का तुमुलनाद करते उषा यादव के उपन्यास; अपने नारी केंद्रित कथानकों, उनके पात्रों और अपने समाजोपयोगी निष्कर्षों के कारण सदैव पठनीय रहे हैं। अनेक समालोचकों ने समय-समय पर उनके उपन्यासों पर अपनी क़लम चलाई है। उन पर अभी तक लगभग दस से अधिक शोधकार्य भी सम्पन्न हो चुके हैं। कामना सिंह की सद्य: प्रकाशित पुस्तक ‘उषा यादव के उपन्यासों में नारी सशक्तिकरण’ इस दिशा में एक और महत्वपूर्ण प्रयास है। जैसा कि पुस्तक के नाम से ही विदित है, नारी सशक्तिकरण की भावना को उषा यादव के उपन्यासों में मुख्यतः यहाँ उकेरा गया है। इस संदर्भ में कामना सिंह लिखती हैं, “नारी के गरिमामय स्वरूप को सामने लाने वाले साहित्यकारों में उषा यादव का नाम अग्रणी है। एक लंबी शृंखला बनाता उनका उपन्यास साहित्य विविध विषयों और विविध रूपों में हमारे सामने है। अपने उपन्यासों में वह कभी बाह्य परिवेश को प्रतिबिंबित कर देती हैं, तो कभी मनुष्य के मन के अंदर तक झाँक आती हैं। किसी उपन्यास में पूरे युग का चित्र है, तो कोई उपन्यास युगीन परिस्थितियों की माँग बन गया है। सन् 1984 में प्रकाशित प्रथम उपन्यास से आज तक लिखते हुए वह हिंदी उपन्यास साहित्य को समृद्ध कर रही हैं। उषा जी के उपन्यासों की एक बहुत बड़ी ख़ूबी यह है कि उनके उपन्यास किसी भी समय लिखे गये हों, पर वे आज भी समसामयिक प्रतीत होते हैं। विविध स्त्री रूप हमारी संवेदना के विविध आयामों को जगाते हैं और भारतीय समाज में नारी की वास्तविक स्थिति आज क्या है, इससे हमें रूबरू कराते हैं।

अपनी पुस्तक में कामना सिंह ने उषा यादव के अब तक प्रकाशित (वर्ष 2020 तक) कुल अट्ठारह उपन्यासों को अपने अध्ययन का विषय बनाया है। इससे पूर्व ‘नारी सशक्तिकरण की आवश्यकता क्यों?’ नामक एक लंबा आलेख पुस्तक की पूर्वपीठिका के रूप में रखा गया है, जिसमें नारी सशक्तिकरण को विभिन्न नज़रियों से देखने का प्रयास है। वर्तमान में नारीवाद और नारी विमर्श का जो स्वरूप हमारे सामने है, वह पिछले चालीस वर्षों से हमारे सामने आया है। नारी विमर्श और नारी सशक्तिकरण स्त्री को समाज के प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों के समान अधिकार देने की वकालत करता है। विभिन्न काव्यपंक्तियों के माध्यम से लेखिका ने अपनी बात को प्रखरता से प्रमाणित किया है। वर्तमान समय में नारी सशक्तिकरण के नाम पर चलने वाले सभी नारों और वादों पर बहुत ही शोधपरक तरीक़े से लेखिका ने अपने विचार रखे हैं। पुस्तक का मुख्य भाग ‘उषा यादव: महिला लेखन की सशक्त पहचान’ कुल 143 पृष्ठों में फैला हुआ है। उषा यादव के अब तक प्रकाशित प्रत्येक उपन्यास पर कामना सिंह ने क्रमशः अपनी क़लम चलाई है। प्रत्येक उपन्यास का पहले सारांश प्रस्तुत किया गया है। इसके बाद उस उपन्यास के नारी पात्रों का विवेचन विस्तारपूर्वक रखा गया है। इस प्रकार सभी अट्ठारह उपन्यासों को नारी सशक्तिकरण के दृष्टिकोण से देखने का अनन्य प्रयास कामना सिंह ने किया है। उषा यादव का प्रथम उपन्यास ‘प्रकाश की ओर’ सन् 1984 में प्रकाशित हुआ था, जो ‘रजनीगंधा’ उपनाम से छपा था। ज्ञातव्य है कि यह उपन्यास उन्होंने मदर टेरेसा को समर्पित किया था। अँधेरों में उजाला तलाशती नारी सुशीला देवी कड़ी मेहनत से अपने परिवार को बिखरने से बचाती हैं। ‘एक और अहल्या’ की नेहा, ‘धूप का टुकड़ा’ की रुचिरा ‘आँखों का आकाश’ की सुधि, ‘कितने नीलकंठ’ की चंदना और रम्या, ‘कथांतर’ की मणि, माला और गंगा, ‘अमावस की रात’ की गरिमा, ‘काहे री नलिनी’ की नंदिता, ‘नन्ही लाल चुन्नी’ की राधा, ‘उसके हिस्से की धूप’ की वृंदा और सुनीता, ‘सागर तट की वह सीप’ की अनुभा, ‘अंजुरी भर चांदनी’ की सीमा, ‘अग्नि-राग’ की दीपिका, ‘क्या नाम दूँ तुझे... ऐ जिंदगी!’ की जयलक्ष्मी जैसे महिला पात्र समाज के विभिन्न वर्गों से आए हैं। ये सभी महिला पात्र अलग-अलग परिस्थितियों, वातावरण व परिवेश में बुने गए हैं और अपनी-अपनी सीमाओं में रहकर समाज के भले-बुरे, ऊँच-नीच, सफ़ेद–स्याह को देखते-समझते हैं, उनका सामना करते हैं लेकिन अंत में ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो’ की पवित्र भावना को परिपुष्ट करते दिखाई देते हैं। उषा यादव के नारी पात्र अपने ‘स्व’ की सीमारेखाओं में ही रहकर अपने-अपने दायित्वों का निर्वहन करते हैं। उषा यादव के उपन्यासों के नारी पात्र विश्वास और अविश्वास, परंपरा और नव्यता के द्वंद्व के बीच उलझते हैं लेकिन अंत तक आते-आते वे अपनी अस्मिता और अस्तित्व को पहचान कर जीवनतारिणी, कष्टहारिणी की सनातन भूमिका का निर्वहन करने लग जाते हैं। नारी सशक्तिकरण और मानवाधिकार पर विचार करते हुए कामना सिंह लिखती हैं, “देश में आज भी मानवाधिकार के उल्लंघन के मामले प्रकाश में आते रहते हैं। सबसे ज़्यादा बुरी दशा स्त्री की है। माँ के गर्भ से लेकर धरती पर आख़िरी साँस लेने तक उसके मानवाधिकारों को नजरअंदाज किया जाता है। आजादी के लगभग 75 साल बाद भी महिलाओं के मानवाधिकारों का हनन जारी है। जब नारी को मानव माना ही नहीं जाता तो उसके अधिकारों की बात कहाँ से आएगी। उषा यादव के उपन्यासों में स्त्री लगातार अपने अधिकारों को पाने के लिए संघर्षरत् है। उनके उपन्यासों में इन अधिकारों की रक्षा भी दिखाई देती है और जहाँ अधिकारों का हनन होता दिखता है, वहाँ उनकी स्त्री आवाज़ उठाती मिल जाती है। अपने मानवाधिकारों के लिए आवाz उठाना कोई गुनाह भी तो नहीं। इसके बाद लेखिका ने उषा यादव के विभिन्न उपन्यासों के नारी पात्रों के संदर्भ में अपने मानवाधिकारों को पाने के किए गए प्रश्नों को रेखांकित किया है।

 पुनरावलोकन खंड में संपूर्ण अध्ययन का उपसंहार प्रस्तुत किया गया है, जिसमें उषा यादव के प्रत्येक उपन्यास में नारी सशक्तिकरण, मानवाधिकार जैसे तथ्यों को पुनः रेखांकित करते हुए लेखिका ने अपने निष्कर्ष निकाले हैं। उनके शब्द देखें, “उनके उपन्यासों में स्त्री घरेलू हो या कामकाजी; अपने अस्तित्व को जताते हुई सशक्तिकरण की ओर अग्रसर है। उन्होंने स्त्री सशक्तिकरण के अंतर्गत स्त्री के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और कानूनी अधिकारों पर विचार किया है। इस विचार को करते समय यह ध्यान रखना ज़रूरी रहा कि हमारा समाज पारंपरिक तौर से पितृसत्तात्मक है, जहाँ पुरुष को उच्च और नारी को कमतर माना गया है। ऐसे समाज में अधिकारों की बात उठते ही एक बार फिर विरोध सामने आना अवश्यंभावी है। इस विरोध का सामना करने की ताक़त है उनकी नारी में।” प्रस्तुत पुस्तक मात्र एक प्रशंसात्मक शोधग्रंथ बनकर नहीं रह गई है अपितु लेखिका ने अपना सारा ध्यान उषा यादव के उपन्यासों में नारी सशक्तिकरण और नारी चेतना को सामने लाने पर केंद्रित किया है। यहाँ किसी भी पात्र का अनावश्यक महिमामंडन नहीं है बल्कि उसे यथार्थ के धरातल पर कामना सिंह ने पहले अपनी कसौटी पर कसा है, फिर उस पात्र के समग्र व्यक्तित्व का विवेचन प्रस्तुत किया है। उषा यादव के नारी पात्रों को अनावश्यक सहानुभूति और सहायता का पात्र कामना सिंह ने नहीं बनाया है बल्कि वर्तमान समाज में प्रतिदिन होने वाली घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में उन पात्रों को रखा है और उसी नज़रिए से उनका अवलोकन भी किया है। लगभग सभी पात्रों का विवेचन समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया है, जिससे कामना सिंह के अध्ययन की गरिमा भी बढ़ी है।

उल्लेखनीय है कि कामना सिंह स्वयं भी प्रसिद्ध लेखिका हैं। उनके उपन्यास और कहानियाँ भी पर्याप्त रूप से प्रशंसित और प्रकाशित होती रही हैं। नारीवादी चेतना कामना सिंह की लेखनी का भी मूलस्वर कहा जा सकता है। ऐसे में जब एक लेखिका, दूसरी लेखिका के लेखन में नारी सशक्तिकरण के स्वरूप को चिह्नती और महसूस करती है, तो प्राप्त निष्कर्ष निश्चित रूप से परिष्कृत और परिपुष्ट होने का विश्वास बढ़ जाता है। कामना सिंह इस विश्वास पर खरी भी उतरती हैं। कामना सिंह की प्रस्तुत पुस्तक नारी सशक्तिकरण से संबंधित कुछ जलते सवालों को भी हमारे समक्ष छोड़ जाने में सफल सिद्ध हुई है। यह पुस्तक हमें यह अन्तरान्वेषण करने के लिए भी प्रेरित करती है कि हमारे समाज में नारी चेतना, नारी अस्मिता और नारी सशक्तिकरण की भावनाएँ कितना महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं।

डॉ. नितिन सेठी 
सी-231, शाहदाना कॉलोनी
बरेली (243005)
 मो. 9027422306

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