नारी के विविध रूपों के संसर्ग में यशपाल के उपन्यासों का अध्ययन

24-10-2014

नारी के विविध रूपों के संसर्ग में यशपाल के उपन्यासों का अध्ययन

कीर्ति भारद्वाज

यशपाल जी एक ऐसे साहित्यकार रहें है जिन्होंने अपनी रचनाओं से हिंदी जगत में अपनी पहचान बनाई है। आधुनिक दृष्टिकोण से परिपूर्ण उनकी रचनायें समाज में फैली बुराइयों को दूर करने का प्रयास करती हैं। उन्होंने न केवल नारी जीवन की त्रासदी को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है अपितु उन त्रासदियों को दूर करने का भी प्रयास किया है।

स्त्री के प्रति व्यवस्था का रवैया निश्चित मानदंडों, आदर्शों के नियम व्यवहारों से संचालित होता रहा है। जिसमें स्त्री को तय कर दी गई भूमिका में निर्धारित आदर्श आचरण संहिता के अनुसार जीना है, जिसके निर्धारण का अधिकार शताब्दियों से पुरुषों ने अपने पास सुरक्षित रखा है। जिसके कारण नारी को आत्म-संघर्ष करना पड़ता है यदि एक नारी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करती है और अपने अधिकारों की माँग करती है तो उसे परिवार के ही सदस्यों की ही बग़ावत सहन करनी पड़ती है। स्वयं नारी को भी यह भय होता है कि कहीं अधिकारों की चाह में उसका परिवार ही नहीं बिखर जाए लेकिन अब यह स्थिति प्रत्येक नारी की नहीं है। कुछ हद तक नारियाँ आगे बढ़ गई हैं, वह अपने अधिकारों को प्राप्त करती है क्योंकि वह आज शिक्षित एवं आत्मनिर्भर है।

यशपाल ने अपने उपन्यासों में काल्पनिक दुनिया से दूर हटकर वास्तविक सामाजिक व्यवस्था को उकेरा है। भारतीय समाज ३ वर्गों के परिवारों में विभाजित हुआ है। पहले वर्ग में उच्च वर्गीय नारी होती है जो कामकाज में आलसी, अमीर और सम्पन्न घरों की मालकिन होती है। उन्हें किसी प्रकार का बंधन पसंद नहीं होता है। वह उन्मुक्त वातावरण में जीना पसंद करती हैं। 'झूठा -सच ' में मिसेज अग्रवाल आधुनिकता व् फैशन अपनाने वाली उच्चवर्गीय नारी का प्रतिनिधित्व करती है। इन्हें दूसरे की भावनाओं की कोई कदर नहीं रहती। वे अपनी नौकरानी का भी जब चाहे अपमान करने से नहीं चूकतीं।
"तुम यहाँ नौकरी करती हो या रंगरलियाँ करने आई हो? कहाँ गई थी?"1 दूसरी और कनक एक स्वतंत्र व् उन्मुक्त वातावरण में पली बढ़ी उच्चवर्गीय नारी है, जो सम्पन्न व् आधुनिक होते हुए भी किसी किस्म का दिखावा नहीं करती।

दूसरा वर्ग मध्यम वर्गीय नारी का है जो समाज का अहम भाग है। यदि मध्यम वर्गीय नारी पात्रों की बात की जाए तो तारा (झूठा –सच), यशोदा (दादा -कामरेड ),गीता (पार्टी कामरेड ), उषा (तेरी मेरी उसकी बात ), विनी, जेनी (बारह घंटे) आदि नारियाँ मध्यम वर्गीय नारी का प्रतिनिधित्व करती हैं। 'झूठा-सच' की नायिका तारा ऐसी नारी का प्रतिनिधित्व करती है। जिसका मन चिंता में डूब रहा था जो विपत्तियों के बाद भी साहस नहीं छोड़ती। वह अपने आत्मविश्वास से समाज से टक्कर लेने का भी प्रयास करती है। दादा कामरेड की पात्रा यशोदा एक ऐसी मध्यम वर्गीय नारी है जो शादी के बाद अपने घर संसार के कर्तव्यों के प्रति स्वयं को समर्पित कर घर की चारदीवारी में ही अपनी दुनिया समेटे हुए रखती है। इस तरह यशपाल की मध्यम वर्गीय नारी पात्र संघर्ष शील, साहसी व् प्रगतिशील नारी के रूप में प्रकट होती है जो स्वयं को सामाजिक रूढ़ियों से ऊपर उठाने व् अपनी अस्मिता को पहचानने को प्रयासरत हो उठती है।

तीसरा वर्ग निम्नवर्गीय नारियों का है जो अभाव और हीनता से ग्रसित होकर अपना जीवन बिताती है। एक निम्नवर्गीय नारी किस तरह विषम परिस्थितियों में अपना जीवन बिताती है, कभी बदलती है और कभी उसे मर्यादित सीमाओं का भी उललंघन करना पड़ता है। जिस प्रकार सीता एक ऐसी नारी है, जो निम्नवर्गीय परिवार से है। जो आर्थिक अभावों के कारण अपने जीवन में आजादी और सुख -सुविधायें प्राप्त करनेके गलत राह पर चल पड़ती है तारा उसे समझाने का भी भरसक प्रयत्न करती है। "तारा कहती है -"सीता -यह ढंग ठीक नहीं है तुझे कुछ लिहाज शर्म नहीं है"। सीता -क्या किया है मैंने क्या हँसे खेले भी नहीं "।2

इस प्रकार यशपाल जी ने विभिन्न वर्ग की नारी की स्थिति को स्पष्ट किया है लेकिन वास्तविक रूप में यदि उपन्यासों की मुख्य पात्रों को देखा जाए तो मध्यम वर्गीय नारी ही इनके उपन्यासों की प्रमुख पात्रा रही है जैसे देशद्रोही अर्थात कहने का अभिप्राय यह है कि मध्यमवर्गीय नारी के रूप का यह पहलू इनके साहित्य में परिलक्षित होता है। यशपाल जी एक महान क्रान्तिकारी रहे हैं। इनके स्वाधीनता आंदोलन का संघर्ष इनकी साहित्य-रचना पर भी बख़ूबी दिखाई देता है। 'गीता -पार्टी कामरेड' उपन्यास की नायिका गीता कम्युनिस्ट पार्टी से संबंधं रखती है। वह अपनी पार्टी के लिए सम्पूर्ण निष्ठा से कार्य करती है। उसकी यही निष्ठा भावरिया जैसे युवक को भी सुधरने पर मजबूर कर लेती है। इसी तरह दादा कामरेड की पात्रा यशोदा एक ऐसी मध्यम वर्गीय नारी है जो अपने घर में शरण लेने आए क्रांतिकारी की छिपकर मदद करती है क्योंकि उसके मन में देश के लिए असीम प्यार छुपा हुआ है। "उसका अपना लड़का दादी की बगल में सुरक्षित सोया हुआ है परन्तु किसी दूसरी माँ का लड़का मौत के विकराल दाँतों से निकल भागने की चेष्टा में उसके आँचल में आ पड़ा है।"3 देशद्रोही की पात्रा राज भी ससुराल वालों के विरोध के बावजूद कांग्रेस पार्टी के कार्यों में अपना भरपूर सहयोग देती है।

नारी के विविध रूपों के संसर्ग में यदि देखा जाए तो यशपाल जी का 'मनुष्य के रूप' का विशेष महत्व है। सोमा इस उपन्यास की प्रमुख पात्रा युवावस्था में ही विधवा हो जाती है। एक शोषित विधवा के जीवन की शोचनीय दशा को जिस तरह यशपाल जी ने चित्रित किया है। वह विधवा के जीवन की शोचनीय दशा को प्रस्तुत करता है। "लड़की तो पराए घर की अमानत है पर भाई, विधवा बहू तो ज़िंदगी भर का जंजाल है परन्तु सोमा पर इन बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता वह परिश्रमी बनकर एक प्रगतिवादी नारी के रूप में नज़र आती है।"4

यशपाल ने नारी की त्रासदपूर्ण स्थिति को दर्शाया है। यशपाल ने पति-पत्नी के झूठे स्वाभिमान से भरे हुए गृहस्थ जीवन का अनूठा वर्णन किया है। कहा जाता है पति-पत्नी एक ही गाड़ी के दो पहिए हैं लेकिन फिर भी इनके विचारों में असमानता होती है। पत्नी का अपनी इच्छानुसार आचार व्यवहार करना पुरुष को कभी अच्छा नहीं लगता। समानता के दावे का अर्थ पति के अधिकार को चुनौती देना है। पुरुष सोचता है प्रेम में समानता का क्या प्रश्न? 'देशद्रोही' की पात्रा चंदा अपने पति राजाराम के अनुरूप ही अपना जीवन व्यतीत करती थी लेकिन फिर भी वह चंदा पर संदेह की दृष्टि रखता है। उसके पति राजाराम के कहे शब्दों से आहत हो उठती है "पुण्य और धर्म के विराट शब्दों की आड़ में राजाराम की पीढ़ी स्त्री की समस्त को निगल कर उन्हें पैर की जूती का अस्तित्व प्रदान करती है"।5 शिक्षित व् आधुनिक सोच की होकर भी नारी पूरी तरह स्वतंत्र नहीं है। घर व् समाज की दकियानूसी सोच उसे असहाय बना देती है। इसका चित्रण यशपाल ने 'झूठा-सच'की नायिका मनोरमा के माध्यम से किया है। कहने का आशय है कि सामाजिक व्यवस्था पूरी तरह बदल गई है परन्तु पितृसत्तात्मक सोच वहीं है। एक औरत पूरी तरह स्वतंत्र होकर जीवन जीना चाहे तो भी उसे ऐसा अधिकार नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि सभी जगह पुरुष ही अत्याचारी बनें। यशपाल ने झूठी आदर्शवादिता का पर्दा ओढ़ने वाली नारी की स्वार्थपरक स्थिति को चित्रित किया है। 'मनुष्य के रूप’ की सोमा, जो एक संघर्षशील नारी रही है,लेकिन जब वह सफलता को प्राप्त कर लेती है तो वह अपने पति धनसिंह को, जिसने सोमा के बुरे वक्त में उसके लिए काफी कष्ट उठाए, जेल भी जाना पड़ा, लेकिन सोमा उसे पहचानने से इनकार कर देती है। एक नारी के कितने रूप हो सकते हैं, उसका वर्णन यशपाल ने अपने उपन्यासों में बखूबी किया है।

यशपाल के उपन्यासों पर इस संदर्भ में दृष्टिपात किया जाए तो विवाह पर उनके विचार इनके विविध भावों के माध्यम से प्रकट होते हैं। ये मानते हैं कि विवाह की सार्थकता वहीं है जहाँ स्त्री-पुरुष में प्रेम और विश्वास हो। यदि विवाह से रिश्तों में अलगाव ही महसूस हो तो वह रिश्ता अवांछनीय होता है। 'क्यों फसें' का नायक भास्कर विवाह संस्था को पूरी तरह नकारता है। वह अपने नज़दीकी रिश्तों में दाम्पत्य संबंधों की टूटन व् अविश्वसनीयता देख कर वैवाहिक बंधन में फंसना नहीं चाहता और न ही किसी स्त्री को फँसाना अर्थात पुरुष की ही भाँति नारी भी विवाह जैसे बंधन को दिखावे के तौर पर ही निभाती है। यशपाल के उपन्यासों में नारी की यही धारणा वर्तमान नारी की विचारधारा से साम्य रखती है।

नारी अपने जीवन में माँ, बहन, पत्नी, पुत्री आदि विविध रूपों में जीवन व्यतीत करती है, परिवार व् समाज के विकास में अपना बहुमूल्य योगदान देती है परन्तु फिर भी उसके अस्तित्व का पुरुष प्रधान समाज में कोई मूल्य नहीं रहता। यशपाल नारी के प्रति इस असमानता को स्वीकार नहीं करते इसलिए अपनी रचनाओं के माध्यम से नारी-स्वतंत्रता का समर्थन करते। एक साहित्यकार की रचनाओं पर उस युग की परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है। यदि यशपाल के उपन्यासों पर दृष्टिपात किया जाए तो ऐसा प्रतीत होगा कि उन्होंने आज के मुखर हो रहे प्रश्नों को अपने ही युग में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है। वर्णवादी व्यवस्था में नारी की स्थिति देखी जाए तो नारी के प्रेम को हमेशा शंका की दृष्टि से देखा जाता है। नारी की स्थिति अत्यंत दयनीय होती है उच्च कुल में जन्म लेकर भी 'दिव्या’ उपन्यास की पात्रा पुरुष समाज के शोषण का शिकार बनती है। "स्त्री केवल पुरुष के विलास की वस्तु है, जिसे कुल के लिए संतान उत्पन्न करना उस कुल के गौरव के लिए ही जीना और मरना है"।6 एक स्थान पर दिव्या कहती है, "ज्ञानी आचार्य, कुलवधू का सम्मान, कुलमाता का आदर और कुल महादेवी का अधिकार आर्यपुरुष का प्रश्रय मात्र है। वह नारी का सम्मान नहीं, उसे भोग करने वाले पुरुष का सम्मान है"।7

यशपाल उन सभी सभी सामाजिक रूढ़ियों का विरोध करते हैं जो नारी को एक पिंजरे रूपी घर में बाँध कर रखती हैं। यशपाल नारी को स्वतंत्र विचरण करने का भरपूर अवसर देते हैं। इसलिए उनके उपन्यास स्थलों पर लेखन में कई स्थलों पर नारी स्वतंत्रता, नारी अस्मिता, नारी चेतना जैसे प्रश्नों पर अपनी मताभिव्यक्ति की है तथा वह चाहते हैं कि नारी आर्थिक स्वावलम्बी बने तथा पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त करके समाज में अपनी पृथक पहचान बनाए।

संदर्भ ग्रन्थ सूची

  1. झूठा-सच – यशपाल, लोकभारती प्रकाशन, इलाहबाद, पृ. १५७, संस्करण २००५

  2. झूठा-सच – यशपाल, लोकभारती प्रकाशन, इलाहबाद, पृ. २५८, संस्करण २००५

  3. दादा कामरेड- यशपाल,लोकभारती प्रकाशन, इलाहबाद, पृ. ७, संस्करण १९९७

  4. यशपाल व्यक्तित्व और कृतित्व- प्रदीप सक्सेना – (यशपाल;समाज और इतिहास की जनवादी पड़ताल) (आलेख ), पृ. ५९,सरोज गुप्त, पृ. ५९,अनुराग प्रकाशन, अजमेर संस्करण १९७९

  5. यशपाल व्यक्तित्व और कृतित्व- प्रदीप सक्सेना, यशपाल ;रचनात्मक पुनर्निवास की एक कोशिश (आलेख), मधुरेश, पृ. २९०, अनुराग प्रकाशन, अजमेर संस्करण १९७९

  6. दिव्या- यशपाल, पृ. २०२, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली -110002 संस्करण १९८६

  7. मनुष्य के रूप -दिव्या, पृ. २७ लोकभारती प्रकाशन, इलाहबाद संस्करण १९९६

कीर्ति भारद्वाज, शोधार्थी,
हिन्दी विभाग,
गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय

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