ना सोचा था
विजय कुमारना सोचा था कभी किसी ने,
एक दिन ऐसा दौर भी आएगा,
पलक झपकते ही यहाँ,
लाखों जानें निगल जाएगा।
हर गली सुनसान हो गई,
हर ख़ुशी वीरान हो गई,
डूबने लगी लोगों की कश्तियाँ,
मौत जैसे हैवान हो गई,
आज दिल रोया है सबका,
मातम- सा हाल हर घर का,
चीख़ें सुनकर बेहाल हुआ,
यहाँ आलम हम सबका,
ऐ मेरे ख़ुदा! यहाँ इतनी तड़प क्यों हैं?
इंसान की ख़ुद से ही इतनी झड़प क्यों हैं?
नहीं देखा जाता यह मिटता ज़माना,
बिखरना टूटना और यह दम का घुट जाना,
लौटा दे हमें वही पुरानी ज़िंदगी,
हँसती-खिलती उमंग भरी दिल्लगी