मूरत

कविता झा (अंक: 184, जुलाई प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

रंग बिरंगी सुंदर मूरत,
सजी धजी बेजान सी,
क्या जाने किस घर जाएगी,
ओढ़े कपट की परिधान सी।
 
सजा कर ले जाएगा कोई,
धर हाथ वचन खाएगा वो,
जीने मरने के क़समों से,
पूरे जीवन का हिसाब होगा,
फिर किसी दिन ज़िंदा जला,
मैला दामन किया जाएगा,
या फिर मिट्टी की तरह,
मसल कर जज़्बात रख,
कुरेद कर निश्वास होगा,
तन-मन को क़ैद कर,
बेड़ियों में रखा जाएगा।
 
चीत्कार करती आत्मा,
ना किसी को दिखाई देगी,
प्राण ऐसे ही निकल जाएगा,
अस्तित्व का ना मोल कोई,
ना कभी किसी को भान थी,
मौक़ा बस शोषण का,
हमेशा ढूँढ़ा जाता रहेगा।
 
बाज़ार से दिल लगाने,
फिर नई मूरत लाई जाएगी,
उस मूरत को फिर नव रूप में,
नव परिधान में सजाया जाएगा।
 
सम्मान मिलेगा बस तेरे,
उस बेजान रूप को,
‘देवी’ मान जिसे घर के,
मंदिर के किसी कोने में,
पूजा कर सजाया जाएगा।
 
उसका भी सम्मान नीलाम होता,
अगर उसकी  भी ज़ुबान होती,
भावना को मसला जाता दिन-रात,
अगर उस मिट्टी में जान होती।

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