मुसाफ़िर

15-06-2019

दयाशंकर बाजपेयी यूँ तो लखनउवा थे, पर जब से नैनीताल हाईकोर्ट में वकीली पर लगे, तब से ताल की ख़ूबसूरती की तरह उनकी चाल और ज़ुबाँ पर भी कुछ-कुछ कुमाँऊनी चढ़ उठी। ढलती उम्र थी और थकान भरा शरीर। घर ऊँची पहाड़ी पर था और उससे लगी कई सीढ़ियों का रास्ता। लेकिन इससे उन्हें कोई शिकायत न थी। शिकायत थी तो बस नौकर पान सिंह से, जो उन्हें दूर से सामान लादे सीढ़ियाँ चढ़ते देखकर भी झरोखे से तब तक झाँके रहता, जब तक कि वे पास न आ जाते। फिर एकाएक ऐसे दौड़ पड़ता, जैसे चूल्हे पर उबाल आते दूध देख लिया हो। दया शंकर खीझ उठते- "बल्द (बैल) सा पड़ा होगा अभी तक… अरे दो क़दम आगे और चला आता तो बाघ नहीं खा जाता तुझे… चौदह फेरे ही पढ़ रहा होगा। कहीं तेरे ही चौदह फेरे न हो जाएँ।" 

पान सिंह सामान उठाते मुस्कुराकर बोलता, "अहा!… कैसा ख़ूबसूरत चित्र खींचा है शिवानी जी ने… आप पढ़ो तो कभी। लगता है जैसे सामने पिक्चर चल रही हो।" 

बाजपेयी दहके से घर पहुँचते, मगर उनका ये क्षणिक क्रोध घर में प्रवेश करते ही चाय का गिलास देख शान्त हो जाता। वे बड़ी सहजता से पान सिंह को सारे ज़रूरी पेपर थमाकर उन्हें यथास्थान रखने को कहते और फिर अपने सोफ़े पर ही कुछ देर जैसे समाधि में बैठ कुछ भी बड़बड़ाने लगते। यद्यपि उनके इस बड़बड़ाने में सामान्य बातचीत ही रहती, लेकिन ये बातचीत दूसरों के लिए बड़ी डरावनी-सी होती।

जब पहले पहले-पहल पान सिंह नौकरी पर आया था तो एकाएक उनका ऐसा रूप देख कमरे में आने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाया- सोचा ऐसे पागलों का कौन भरोसा, क्या पता मार ही दें और उसी शाम हाथ जोड़कर वापस जाने की बात कहने लगा। दयाशंकर उससे हँसकर बोले, "देख रे.....पनुवा! वकील की वकीली ही बड़बड़ाने में है और यही एक ऐसा हुनर है, जो दिमाग़ के साथ ही ज़ुबान की धार पर टिका होता है... और उसी की मैं प्रैक्टिस करता हूँ। अब तू मेरे बालों की सफ़ेदी पर मत जा... लता जी आज भी प्रैक्टिस करती हैं।" 

पान सिंह को जो समझना था, वो तो वह समझ ही गया था और फिर ख़ामोश भी हो गया। लेकिन उनका इकलौता पुत्र कहाँ समझ पाया। जिसे वे पढ़ा-लिखा रहे थे, जिसके लिए वो कमा रहे थे, वह हरदम उन पर बातों के चाबुक ही चलाये रहता। जब भी साप्ताहिक छुट्टी पर घर आता बिना किसी लिहाज के बोल देता, "पिता जी! ऐसे पागलपन का इलाज केवल लखनऊ के नूर मंज़िल में ही होता है। गाँव जाते हैं तो आपको... लोगों से फ़ुर्सत ही नहीं मिलती। मुझे तो बड़ी शरम लगती है किसी दोस्त को लाकर।" और भी न जाने क्या...क्या। दयाशंकर हैरानी से उसकी तरफ़ देखने लगते, पर कुछ बोल न पाते। फिर बोलने-बताने का उस पर क्या असर था-  कुछ भी नहीं! पान सिंह कभी मालिक के आदर में उससे कुछ बोल भी देता, तो वह उसे भी लताड़कर रख देता। 

आख़िर एक दिन पान सिंह ने उसके रोज़-रोज़ एकसार नौकर-नौकर कहने की तिस्कृत भावना से दुखी होकर नौकरी छोड़ने का मन बना लिया। 

दयाशंकर अँगीठी जलाये अपनी उसी क्रिया में निमग्न थे। बाहर बरफ़ की श्वेत मोटी चादर घरों की ढालूदार छतों, पेड़-पौधों इत्यादि को बड़ी ख़ूबसूरती से छिपाकर खिल-खिला उठी। बढ़ती ठण्ड के कारण दयाशंकर ने रजाई...ऊनी कपड़ों में दुबकने के बजाय अँगीठी से ही दोस्ती कर ली। सूखी लकड़ियों का गट्ठर रोज़ सुबह एक स्थानीय महिला डाल जाती, और उसकी बहादुरी पर वे उसे दस के बजाय बीस रुपये थमाते। वे पहाड़ का कठिन काम भली प्रकार जानते थे। और अक्सर लोगों से कहा करते- गच्छ बरफ़ में भी गट्ठर लादकर चल देना ये इन्हीं औरतों या फिर देश पर मर मिटने वाले सैनिकों के लिए ही सम्भव है। फिर मेहनत की पराकाष्ठा को पार करती पहाड़ी औरतों के प्रति वे बड़ी सहानुभूति भी रखते थे और यदा-कदा अपनी डायरी में उनके विषय में लाइन-दो लाइन लिख भी लिया करते थे।

अलाव पुरज़ोर दहक रहा था, उसमें लगी सारी लकड़ियाँ बांज की थीं, जो सुर्ख लाल आभा बिखेरकर पूरे कमरे को शीत मुक्त कर रही थीं। पान सिंह चुप-चाप आकर दरवाज़े पर खड़ा हो गया और उनके क्रिया से उठने का इन्तज़ार करने लगा। जैसे ही वे इहलोक में आये, पान सिंह को देखते ही बोले, "अरे पनुवा! चहा-वहा कुछ पिलायेगा... या ठण्ड में मरने को छोड़ देगा। आ अन्दर आ... आग सेंक... काहे दरवाज़े पर खड़े ठण्ड से मरा जा रहा है।" 

पान सिंह धीरे से आकर उदास मन से बोला, "हमकु छुट्टी दि द्यो मालिक... भौते बेइज्जती हैगे याँ।" 

दयाशंकर ने उसकी तरफ हल्के परिहास की मुद्रा से देखकर कहा, "पहले एक गिलास चहा तो पिला... कुछ गर्मी से दिमाग़ खुले... तो कुछ बातचीत करें दोनों बैठकर।" 

पान सिंह चाय बनाकर ले आया और गिलास थमाते ही पुनः बोल पड़ा, "मालिका! मेरा हिसाब कर दें तो मैं निकलूँ।" 

दयाशंकर एक क्षण उसके चेहरे पर गम्भीर दृष्टि टिकाकर फिर बोले, "तू तो इस दुख से निकल जायेगा पनुवा, पर मैं कहाँ निकलूँगा... मुझसे तो न बेटे को छोड़ते बनता है... न उसके मुँह से उल्टा-सुल्टा सुनते। करूँ तो क्या करूँ... कभी सोचता हूँ घर बसा दूँ उसका तो हरिद्वार आश्रय ले लूँ।" 

पान सिंह सुनते ही बोला, "हरिद्वार क्यों मालिक... लखनऊ नहीं है क्या आपका? फिर हम भी तो हैं... हमारे यहाँ आ जाना।"

दयाशंकर लखनऊ की बात पर चुप्पी साध आगे बोले, "तुम्हारे भी तो बच्चे हैं पनुवा।"

"वो ग़रीबी की ठोकर खाये हैं... मालिक, रोटी के टुकडे़ को मिल बाँटकर खाने की सीख अच्छी तरह पाये हैं। अभी लगता तो नहीं कि माँ-बाप का अनादर करेंगे। बाकी गोलू देवता की मर्जी।"

दयाशंकर गिलास रखते हुए बोले, "तुमने इतने साल मेरी सेवा की है... जी तो नहीं चाहता है कि तुम यहाँ से जाओ। अगर रुक जाते तो..." 

वह बीच में ही बोल पड़ा, "नहीं मालिक... अब मेरे जाने में ही भलाई है। मैं न आपका अनादर देख सकता हूँ और न ही अपना।"

दयाशंकर एक क्षण निरुत्तर हो गये। फिर धीरे से बोले, "जा, जाकर अलमारी से बैग ले आ।" और उसे पैसे थमाकर बड़े भावुक मन से हमेशा के लिए विदा कर दिया। जाते समय जब उन्होंने उससे कभी भी किसी भी चीज़ की ज़रूरत पड़ने पर बेधड़क आने की बात कही, तो उसने कहा था कि वह अब कमाने, दिल्ली चला जायेगा। फिर भी दयाशंकर को उसके लौट आने की आशा और घर पर ही उसके होने का एहसास कई दिनों तक होता रहा। धीरे-धीरे आशा-निराशा में डूबती चली गयी और वे समझ गये कि पान सिंह दिल्ली ही चला गया होगा।

दयाशंकर अब अकेले पड़ गये और एकाएक आठ साल पहले वाली स्थिति में पहुँच गये। परन्तु उम्र अब अधिक आराम की ओर बढ़ गयी थी। इस बीच उन्होंने दो-चार नौकर रखे भी, पर वे या तो उन्हीं की अजीब आदत से डरकर भाग खडे़ हुए या फिर बेटे के तानाशाही रवैये से। जब दयाशंकर होटल का खाना खाते-खाते पेट रोग से ग्रसित हो गये तो अधिकतर फल खाकर ही भूख मिटाने लगे और समय-बे-समय ताल किनारे घण्टों बैठकर अपने घरेलू गुणा-भाग में उलझे रहते कि बेटे की पढ़ायी पूरी होते ही वे उसका घर बसाकर दूर कहीं ईष्वर भक्ति में लीन हो जायेंगे। तब न कर्तव्य का बोझ मन में होगा न ही परवरिश का। और भी न जाने क्या... क्या! लेकिन बेटा ऐसा था, जो केवल रुपया लेने, ऐंठने के लिए ही उनसे मिलता।  

रविवार का दिन था। दयाशंकर गुन-गुनी धूप में कुर्सी डाले उपन्यास पढ़ रहे थे। तभी दो पुलिस वाले उनके घर आये। कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि आपके बेटे ने एक प्रोफ़ेसर के साथ गम्भीर मार-पीट की है। वह इस समय थाने में बन्द है। आप साथ चलिए। दयाशंकर को बहुत अधिक दुख या आश्चर्य नहीं हुआ। वे उठे और उन्हें चलने का इशारा कर दिया। निर्भीक को संसार भले ही न झुका पाये, परन्तु सन्तान की बदकरनी एक झटके में झुका देती है। वे किसी तरह अपनी वाकपटुता से प्रोफ़ेसर और थानेदार से मिलकर सारा मामला ऐसे रफा-दफा करवा गये, मानो सिवाय बातों की तड़प-झड़प के कुछ न हुआ हो और कुछ ही घण्टों में अपराधी बेटा उनके साथ गाय के पीछे बछड़े की भाँति सकुशल घर चला आया। लेकिन पका आम था, कब तक डाल पर टिकता। उसका अब कॉलेज जाना भी छूट गया था। दयाशंकर ने किसी तरह उसे व्यस्त रखने और दो पैसे जोड़ने की क़ीमत का एहसास कराने के लिए एक पुस्तक की दुकान खोल दी। फिर जल्दी ही एक ग़रीब घर की तेज़ तर्रार लड़की ढूँढ़कर अपने जीवन के अन्तिम कर्तव्य की भी इतिश्री कर अपना मार्ग प्रशस्त कर लिया।

सावन की शुरुआत थी। यूँ तो उस अँचल में सारे देवी देवताओं का वास ही माना गया है, पर जो मन्दिरों की भरमार शिव, भगवती और गोलू देवता की है, अन्यों की नहीं। दयाशंकर शिवालय से तन-मन रँगाकर लौटे, तो बस निकलने की तैयारी में थे। उन्होंने बहू को बुलाकर उसे अपनी सारी जमा पूँजी, जो उन्होंने उसके बैंक खाते में डलवा दी थी, पासबुक, घर की चाबी, कुछ नकदी और पत्नी के गहने थमाते हुए बोले, "बहू! इन्हें सम्भालो, अब ये सब तुम्हारा है, तुम अपने जीवन में सदैव धैर्य और विवेक से काम लेना... रास्ते सरल होते जायेंगे।" और फिर सोये हुए बेटे की एक झलक देखकर कमरे से बाहर निकल गये। लेकिन एकाएक न जाने उनके दिमाग़ में क्या आया... वापस लौटकर बेटे के सिर पर थपकी देते हुए हाथ फेरा। बेटा झल्लाकर बोला, "मुझे नहीं जाना कोई दुकान-वुकान, आज ही बेच दूँगा उसे।" वे ख़ामोशी से उठे और हमेशा के लिए चल दिए।

बरसों बरस बीत गये। एक दिन हरिद्वार में उन्हें पान सिंह अचानक बड़ी हड़बड़ाई-सी सूरत लिए दिख गया। पास गये तो वह पहले दयाशंकर को संतों-सी वेश-भूषा में ज़रा भी नहीं पहचान पाया। लेकिन हालचाल लेने के बाद वह उन्हें देखकर हतप्रभ हो उठा। मगर पान सिंह की पत्नी पीड़ा आड़े आ गयी। वह मामूली औपचारिकता-सी पूरी कर अपनी व्यथा उडे़लकर बोला, "मालिक! मेरी पत्नी यहीं कहीं मुझसे बिछड़ गयी है। ज़रा मदद कर द्यो। मैं तुम्हारे पाँव पड़ता हूँ।" 

दयाशंकर ने घण्टे भर में ही बड़ी सजगता से सूचना प्रसारित करवाकर दोनों को मिलवा दिया। उसकी पत्नी, संकोच से गठरी-सी अपने आप में सिमटी जा रही थी। पान सिंह हाथ जोड़कर बोला, "आपने बड़े उपकार किये हैं मुझ पर मालिक... आपके ये उपकार मैं मरते दम तक नहीं भूलूँगा। आप चलो हमारे घर... आपका कोई नहीं तो हम तो आपके हैं।"

दयाशंकर हल्की मुस्कान से सन्त की वाणी में बोले, "मेरा तो अब सारा संसार है पनुवा... रमता जोगी बहता पानी...  आज हरिद्वार कल काशी... हो सकता है हरि कृपा से हरि की अलख जगाते कभी आ जाऊँ। फिर थोड़ा रुककर बोले, "पान सिंह!... वो तुम्हारा प्रिय उपन्यास मैंने तुमसे छुपाकर एक याद की तरह रख लिया था... मगर आज सोचता हूँ ऐसा स्वार्थ भी किसी बडे़ पाप से कम नहीं होता।" और वे दोनों के हाथों में प्रसाद रखकर आगे बढ़ गये। पान सिंह की आँखें भर आयीं। उसने भरी आँखों से उनके बढ़ते क़दम छू लिए और फिर अधर्मी बेटे को कोसते हुए वह उन्हें आँखों से ओझल होने तक इस उम्मीद से देखता रहा कि शायद वे पीछे मुड़ जाएँ। लेकिन वे मुडे़ नहीं।

3 टिप्पणियाँ

  • 16 Jun, 2019 05:33 AM

    Nice story....

  • 15 Jun, 2019 06:29 PM

    बहु शोभनम्। एषा कथां पठित्वा अहं अह्लादं प्राप्तवान। शंकर महोदयाः बहु विद्वांसः सन्ति। अहं कथतुं न शक्नोमि एषा कथा बहु रोचते।

  • 15 Jun, 2019 05:02 PM

    very nice story

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