मुहल्ले की चुड़ैल
पाण्डेय सरितारास्ते में मिलने वाले प्रत्येक परिचित स्त्री-पुरुष से हँसी-मज़ाक करते हुए, वह अपने पति के साथ त्योहार और बेटे के जन्मदिन की बहुत सारी ख़रीदारी करके अभी तो लौटी थी।
दोनों के कुछ आपसी संवाद के बाद पति अपनी ड्यूटी के लिए क्वार्टर से निकला था। तभी ख़बर फैली कि किसी बात पर गेहूँ में डालने वाला टैबलेट (ज़हर) खा ली है। अब आंतरिक बात उन दोनों पति-पत्नी के अतिरिक्त अन्य कौन जान सकता था भला? बावजूद मामला सामने आया कि परिवार के नाम पर सास-देवर और चार बच्चों के साथ रहने वाले वह दम्पती थे। उसकी सास भी वही आग-लगावन पारंपरिक सास थी। जब-तक पति-पत्नी का सामंजस्य स्थापित था तब-तक सब भला था। अब उस दिन नियत काल के अनुसार, सभी के सामने घर पर, चार-पाँच दोस्तों के साथ शराब-कबाब खाने, पीने-पिलाने के क्रम में, पुरुष अभिमान ने किसी छोटी सी बात पर पत्नी पर हाथ उठा दिया था।
बहुत ही उन्मुक्त, स्वतंत्र विचार की स्पष्टवादी, हँसमुख, अति सुन्दर, सुशीला, चंचलता में पूरे मुहल्ले की जान, चार बच्चों की माँ द्वारा आत्महत्या का प्रयास सभी के लिए वाक़ई अप्रत्याशित था।
तीन-चार दिनों तक जीवन-मृत्यु के संघर्ष में झूलती हुई चली गई वह। मामला पुलिस केस दर्ज होने से, पुरुष को बहुत संवेदनशील स्थितियों में भरपूर आर्थिक नुक़सान भी झेलना पड़ा था। मौत बहुत सनसनी-खेज मामला बन कर सामने था। वह दम्पती मुहल्ले भर में सबकी दृष्टि में एक आदर्श जोड़ा माना जाता था।
अकस्मात् पत्नी की आत्महत्या की ख़बर सुनकर सभी हतप्रभ थे। आख़िर ये हुआ क्यों, कैसे? सभी की चर्चा का विषय था।
सुनने में आया था कि प्रसव वेदना में नवजात शिशु और अपनी पहली रानी को खो चुके, राजा की दूसरी रानी थी वह। जो चार बार की प्रसव पीड़ा की असह्य वेदना सहन कर भी अपने सुख-सौभाग्य से सभी के ईर्ष्या का कारण थी। पर, ना जाने क्यों? उस दिन पति के आपसी कलह को झेल ना पाई थी मानिनी। उसी समय लड़ लेती, झगड़ लेती मन की अशान्ति को निकाल लेती, पर नहीं।
इतना कठोर निर्णय ले कर गेहूँ का घुन मारने की दवा, जो दुकानदार बिलकुल भी नहीं दे रहा था। उसे बहुत बुद्धिमानी से विश्वास में लेकर दवा ले आई थी। बेटे के जन्मदिन की सम्पूर्ण तैयारी भी कर दी थी। उसके बाद ज़हर खा कर सो गई थी।
इस तरह वह भावी तीसरी रानी के लिए अपना अखिल साम्राज्य छोड़ गई, जिसके ऐश्वर्य और इस प्रकार की विदाई की व्याख्या सभी अपने-अपने हिसाब से कर रहे थे। सामाजिक जन-जीवन में भूत-प्रेतों संबंधित कहानियों के साथ तरह-तरह की अफ़वाहों का बाज़ार गर्म था। कभी कोई, कुछ क़िस्सा कहता, कोई कुछ। मेरी माँ ने सुनकर प्रतिक्रिया दी थी, "लोग अच्छी-भली औरत को बदनाम कर रहे हैं। हमें तो बिलकुल डर नहीं लगता, जबकि बातों-विचारों में अक़्सर सम्पर्क था उससे।"
एक कहानी उठी थी कि उसकी आत्मा रात को मंदिर और उसके क्वार्टर के आसपास वाले रास्ते पर भटकती है, जिसे कई लोग देख चुके हैं। सबकी अपनी-अपनी प्रस्तुति और व्याख्याएँ थीं।
फ़िल्मों के शौक़ीन मेरे माता-पिता दोनों रहे हैं। सिनेमा हॉल में जाकर रात का शो देखना अतिप्रिय था। जिसमें बाधक जाने-अनजाने एक वर्ष की उम्र में शो के दौरान माँ की गोद में गंदगी करके मैं बनी थी। माता जी फिर उसके बाद लगातार दस वर्षों के अंतराल में पाँच बच्चों की देखभाल में व्यस्त रह गई थी, पर पिता जी अपने हिसाब से फ़िल्में देखते रहे। घर पर टेलीविज़न आने के बाद देर रात तक चलता रहता तब-तक दूरदर्शन जारी रहता या पिता जी गहन निद्रा में सो नहीं जाते। इस बीच यदि कोई टेलीविज़न बंद करने जाता तो बंद करने नहीं देते। एक निश्चित समय के बाद तो झिरझिराहट पूरी स्क्रीन पर मच्छरों की तरह चलती रहती, या फिर हममें से किसी एक की भी नींद उचटने पर बंद करता। ऐसे में तो कई बार बिजली कड़कने से टीवी ख़राब भी हो चुका था। दो कमरों के घर में, सात स्थायी सदस्यों के साथ, भरपूर आते-जाते रिश्तेदारों के अतिरिक्त असहाय ग़रीब पड़ोसी चार अन्य सदस्य भी परिवार के अभिन्न अंग थे। चाहे परीक्षा हो या कुछ भी किसी को भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था। जिसको पढ़ना है वहाँ से हटकर कहीं और पढ़े या फिर दूरदर्शन देखता रहे। चौबीस घण्टे कानों में गूँजती आवाज़ें और उन आवाज़ों को अनसुना कर पढ़ने की कोशिश करने में सफल-असफल रही, लड़ती-झगड़ती मैं।
फ़िल्मों का नशा तो इस रूप में था हमारे घर के प्रत्येक सदस्य पर कि इससे संबंधित अनेकों कहानियाँ हैं। बचपन के उन्हीं दिनों में किसी शाम को किसी सहेली के घर पर टीवी प्रसारण देखकर, "नदिया के पार" फ़िल्म दिखाई जा रही है आतुरता और सूचना लाने की हड़बड़ाहट में मेरी छोटी बहन दौड़ने के क्रम में जो गिर पड़ी थी। चारों खाने चित्त बड़े पत्थर पर मुँह के बल पर पड़ी। आजीवन के लिए एक स्मृति चिन्ह उपलब्ध हो गया था। तत्क्षण सामने का एक दाँत आधा टूटा। अवशेष जो बचा था समय के साथ काला पड़ गया। जिसे विवाह के पहले पूरी तरह तुड़वा कर बदलने की नौबत आ गई थी।
टीवी देखना अतिप्रिय था तो मुझे भी, पर सिपाही के बच्चे अयोग्य और अशिक्षित होते हैं की मिथकीय परम्परा को तोड़ने का दृढ़-संकल्प लिया था कभी मैंने ख़ुद से। जिसके संयमित पालन का कर्त्तव्य भी था मुझपर। इसके अतिरिक्त पिता का सम्मान करते हुए भी उनके और टीवी के बीच में जाने-अनजाने कभी बाधक नहीं बनती थी। परिणामस्वरूप देर रात तक जाग कर पढ़ने की कोशिशें करती, बड़ी मुश्किल से किसी तरह मात्र औसतन नम्बरों से पास हो पाती थी।
यही सन् 1994-95 के समय में मनोरंजन के नाम पर छोटे-मोटे, गाँव-नगरों के मनोरंजन का एक मात्र माध्यम दिल्ली दूरदर्शन था। गुरुवार की रात, दस बजे फ़िल्म आती थी। जिसे ख़त्म होते-होते, आधी रात की बारह से एक बज ही जाता।
दिन के समाचार-पत्र में दूरदर्शन-कार्यक्रमों की जानकारी रहती थी। उस दिन कोई बहुत ही अच्छी फ़िल्म दिखाई जाने वाली है, की जानकारी थी हमें। फिर क्या? सभी आवश्यक तैयारियाँ करके जम गए हम।
फ़िल्म देखने के क्रम में जिन्हें नींद आ गई, वो बिछावन पर खर्राटे भरने लगे। टीवी के सामने पूरी फ़िल्म अंत तक देखने के लिए बस एक-दो सूरमा डटे हुए थे। फ़िल्म अभी ख़त्म ही हुई थी या होने वाली थी कि मैं सोने के पहले बाथरूम जाने का विचार कर बाहर निकली थी।
खिड़की से बाहर झाँक कर देखने पर, माँ को घर के बग़ल में स्थित मंदिर का दरवाज़ा खुला प्रतीत हुआ। संभवतः जो जाने-अनजाने पुजारी जी द्वारा खुला रह गया होगा।
तभी माँ का आदेश हुआ, "देखो तो मंदिर का दरवाज़ा खुला रह गया है शायद। जाकर बंद कर दो।"
बहुत ही सुन्दर और आकर्षक, काले रंग की नाईटी पर चमकीले पीले रंग का छोटा-छोटा फूल, श्यामल रात्रि में सितारों की तरह गज़ब चमकता हुआ सा था, जो मेरी चचेरी बहन के पसंद का ख़रीदा हुआ था। वैवाहिक जीवन की शुभता के लिए सोच-विचार कर नवविवाहिता को काले रंग के कपड़ों से वंचित रखा जाता है। अंततः वह नाईटी मेरे हिस्से में आई।
कोई भी देखकर उस नाईटी की प्रशंसा अवश्य कर देता था। काले रंग के उस नाईटी में गोरे-गोरे शरीर का निखार और भी ज़्यादा उभरता हुआ सा प्रतीत होता।
सादगी पसंद होने के कारण बाक़ी लड़कियों जैसी सजने-सँवरने का जुनून संभवतः कम ही था। कभी-कभार माँ, ज़बरदस्ती पायल वग़ैरह पहना देती। जिन्हें विवशता में पहनना पड़ता। उन दिनों भी कोई घुँघरू वाली पायल संयोगवश मैंने पहनी हुई थी।
रात में बिजली के उजाले में चमकती हुई, उस नाईटी में मैं, दूर तक दृष्टिगोचर थी। दरवाज़ा बंद करते समय दूर मोड़ पर कोई ड्यूटी के लिए निकला हुआ व्यक्ति इस सड़क पर आते हुए दिखाई दिया।
पर इससे मुझे क्या? अनदेखा कर आधी रात की हड़बड़ाहट में मैं अपने कार्य को सम्पन्न कर वापस अपने घर की तरफ़ लौट चली।
चारदीवारी और पेड़ों की छाँव के कारण वह स्थान अँधेरे में पड़ रहा था, जिसके कारण मैं उसे दिखाई नहीं दे रही थी बावजूद उस व्यक्ति को साफ़-स्पष्ट देख पा रही थी।
मेरे रुकने से पायल की छम-छम भी बंद। उस व्यक्ति की गति और चाल में विसंगतियाँ स्पष्ट दृष्टिगोचर थीं। वह हड़बड़ी और अज्ञात भय के वशीभूत देख कहीं और, चल कहीं और रहा था।
परिणामस्वरूप असंतुलित होकर धड़ाम से पछाड़ खा कर गिर पड़ा, एक चीख़ने की आवाज़ के साथ—"चुड़ैल"!
मैं उसके भय और अपने अस्तित्वगत आकस्मिकता की विचित्र असंगत संयोग पर अनियंत्रित होकर हँस पड़ी।
फिर क्या? वह अपना सामान और ख़ुद को बड़ी मुश्किल से समेट बहुत तेज़ी से भागा। उसके चीख़ने की आवाज़ और अस्त-व्यस्त हालत पर मुझे अहसास हुआ कि अनजाने में ही मैं, उसके मानसिक भय का कारण बन गई थी।
अगले दिन ख़बर फैली कि वह आत्महत्या की हुई औरत, "चुड़ैल" बन कर मंदिर और आसपास में रात को घूम रही थी। जिसे ड्यूटी जाते हुए लोगों द्वारा अक़्सर देखा गया है। इसी तरह तो लोगों के भय और प्रपंचों की दुकान चलती है।
1 टिप्पणियाँ
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कहानी अच्छी है परंतु टीवी और सिनेमा का शौक कुछ ज्यादा ही विस्तार से वर्णन कर दिया गया है। वह संक्षेप में होता तो कहनी का कलेवर सुगठित लगता