मृत्यु : जीवन का यथार्थ

23-01-2019

मृत्यु : जीवन का यथार्थ

वान्या

मृत्यु शैय्या पर पड़ी पड़ी,
मैं देख रही हूँ अपनों को,
ये वो मेरे अपने हैं,
जो मुझे जलाने आये हैं।

 

कंपित हाथों में अग्नि लिए,
वो चलते हैं गिर जाते हैं,
मुझको ज्वाला देनी है,
यह सोच ही मन घबड़ाते हैं।

 

जीवन के कितने ही सावन,
साथ गुज़ारे हैं हमने,
घर के इक-इक पर्दे कोने,
साथ सँवारे हैं हमने।

 

मेरी हर एक पीर पर,
दर्द उन्हें भी होता था,
उनका चेहरा मुरझाये,
तो मन यह मेरा रोता था।

 

सात जनम के इस बंधन को,
बस यहीं तलक रह जाना होगा,
दुनिया का यह मोह जाल,
छोड़ मुझे अब जाना होगा।

 

दूर खड़ा मेरा बेटा,
रो रो कर पास बुलाता है,
अपनी इक इक ग़ल्ती पर,
हाय कितना वो पछताता है।

 

इसको गर्भ में पाकर मैंने,
मानों तीरथधाम किए
कितने मन्दिर मस्जिद,
मन्नत माँगी,
कितने ही धरम,
विधान किए।

 

बेटे का यह प्यारा आग्रह,
भी मुझको ठुकराना होगा,
दुनिया का यह मोहजाल,
छोड़ मुझे अब जाना होगा।

 

ससुराल से छमछम करती हुई,
मेरी बेटी दौड़ी आयी है,
मेरी मौत की ख़बर को सुन,
वो मन ही मन घबड़ाई है।

 

हाथों की मेहंदी कहती है,
माँ तुम फिर से आ जाओ,
बचपन की वो प्यारी लोरी,
फिर से मुझे सुना जाओ।

 

बेटी का स्नेह निमंत्रण,
भी मुझको ठुकराना होगा,
दुनिया का यह मोहजाल,
छोड़ मुझे अब जाना होगा।

 

लाल चुनरिया सुन्दर लहंगा,
माथ पर बेंदी चमक रही है,
खनखन चूड़ी पाँव में बिछुए,
इत्र से काया महक रही है।

 

नातेदार सभी हैं आये,
आँखों में है सबके पानी,
सबसे रिश्ते टूटे मेरे,
बस इतनी सी थी मेरी कहानी।

 

डोली चढ़कर आयी थी,
अब अरथी में सज जाना होगा,
दुनिया का यह मोहजाल,
छोड़ मुझे अब जाना होगा।

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