मृदुला सिन्हा : स्मृतियों के झरोखों में – डॉ. आशा मिश्रा ‘मुक्ता’

15-12-2020

मृदुला सिन्हा : स्मृतियों के झरोखों में – डॉ. आशा मिश्रा ‘मुक्ता’

विनय एस तिवारी (अंक: 171, दिसंबर द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

स्मृति लेख: मृदुला सिन्हा : स्मृतियों के झरोखों में
लेखक: डॉ. आशा मिश्रा ‘मुक्ता’
समीक्षा: विनय एस तिवारी

 

‛परम्परा बनाम आधुनिकता’ में हजारी प्रसाद द्विवेदी जी लिखते हैं - “आधुनिकता अपने आप में कोई मूल्य नहीं है। मनुष्य ने जिन अनुभवों द्वारा जिन महान् मूल्यों को प्राप्त किया है उन्हें नये सन्दर्भों में देखना ही आधुनिकता है। आधुनिकता अकस्मात् आकाश से नहीं पैदा होती है। इसकी जड़ें भी परम्परा में समाई हुई हैं। परम्परा और आधुनिकता परस्पर विरोधी नहीं हैं अपितु एक-दूसरे के पूरक हैं।”

इस संस्मरण को पढ़ने पर मृदुला जी के व्यक्तित्व में यह बात पूर्णतः प्रतिबिंबित होती है।

यूँ तो संस्मरण का मूल यही है कि पाठक लेखक की अनुभूतियों को महसूस कर सके। जिस प्रकार से डॉ. आशा जी ने मृदुला जी के व्यक्तित्व, उनकी पसंदगी, उनके साधारणपन के बारे में बताती हैं ऐसा लगता है कि उनके व्यक्तित्व से मैं मूर्त रूप से साक्षी रहा हूँ।

संस्मरण की कुछेक बातें उद्धृत करना चाहूँगा जैसे जब लेखिका उनसे लेखन के विषय में बात करती हैं तो मृदुला जी बड़ा वास्तविक उत्तर देती हैं। बानगी देखिए-

“मैंने पूछ लिया एक दिन, 'आप कैसे लिख लेती हैं इतना, मैं ऐसा चाह कर भी क्यों नहीं कर पाती हूँ?’” मैंने अपनी विवशता व्यक्त की। 
इस पर बड़ी ही सरलता से उन्होंने कहा था, “अभी आप हरवाह हैं। गृहस्थी के खेत को सींचने और बोने में लगी हैं। जब यह बीज फल देने लगेगा, तो आप भी बेफ़िक्र होकर मेरी ही तरह लिख लेंगी।”

एक और बात जो प्रासंगिक लगी वो है - स्त्री विमर्श पर।
पढ़िए– ‛पुरुष के साथ स्त्री की तुलना करना उन्हें क़तई पसंद नहीं था। पुरुष के साथ प्रतिस्पर्धा में पड़कर वह स्त्री सुलभ गुणों को खोने की हिमायती कभी नहीं रहीं।’

समाज का एक वर्ग अनजाने ही लड़की को लड़का और बहू को बेटी बनाने पर तुला है।

क्या हम लड़की को लड़की या बहू के रूप में ही सम्मान नहीं दे सकते?

क्योंकि यदि बहू को बेटी और बेटी को बेटा बना दिया जाएगा तो सामाजिक और प्राकृतिक ताना-बाना विपर्यस्त नहीं हो जाएगा?

पढ़िए, एक शानदार व्यक्तित्व विवेचनात्मक संस्मरण।

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