मोक्ष

राजेश ’ललित’ (अंक: 187, अगस्त द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

सेठ धनपतराय शहर के धनाढ़्य व्यक्ति थे। बड़े छोटे स्तर पर व्यापार शुरू करके उन्होंने इतना बड़ा व्यापार खड़ा कर लिया कि देश-विदेश में उनका कारोबार फैला हुआ था जिसमें हज़ारों कर्मचारी कार्यरत थे। दो बेटियाँ, तीन बेटे सब का सुखी संपन्न घरों में विवाह कर दिया था। नाती-पोतों से भरा-पूरा घर था। परमात्मा ने जैसे उनकी हर इच्छा पूर्ण कर दी थी। पर पत्नी और वे दोनों महलनुमा घर में अकेले पड़े रहते थे। काम-काज पर कभी मन किया तो चले जाते थे; बच्चों से प्रगति पूछते और लौट आते। बेटे अथवा बेटियों में कोई न कोई सप्ताहांत पर आता तो घर जैसे जीवंत हो जाता। धीरे-धीरे  बच्चों का आना कम होता गया। बेटों को कभी व्यापार में सलाह की या पैसे की ज़रूरत होती तो आ जाते और थोड़ी देर रुक कर चले जाते। यह व्यवहार देख सेठ जी उदास रहने लगे थे। पत्नी का स्वास्थ्य अब ठीक नहीं रहता था। जब दोनों को सेवा की ज़रूरत थी तो बच्चे कन्नी काटने लगे थे।

एक दिन जब वो बड़े बेटे के यहाँ गये हुये थे और पोतों के साथ हँस बोल रहे थे कि बहू को जैसे यह सब खटक रहा था। ’अब दोपहर को बच्चों के आराम करने का समय था तो ये आ गये। न ख़ुद सोते हैं न हमें सोने देते हैं’। मन ही मन बड़बड़ायी सारिका। बूढ़ी आँखों से बहू के ये मनोभाव छिपाये न छिपे। आँखें भर आईं। धीरे से पत्नी से बोले, "चलो भागवान, घर चलते हैं।"

ऊषा ने कहा, "कल तक तो कह रहे थे कि सप्ताह भर रुकेंगे और अब इतनी जल्दी।"

रात को पत्नी से सलाह की। उनसे अपनी मन की पीड़ा साँझी की। सुबह उठते ही उन्होंने अपना वकील बुलाया। सारी संपत्ति, अनाथालय, मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारों और दो सरकारी स्कूलों में बीस-बीस ग़रीब बच्चों के नाम से पाँच-पाँच लाख जमा करवा दिये जिनके ब्याज से उनकी फ़ीस और किताबों का ख़र्च दिया जा सके। ड्राईवर को बुलाया और उनको रेलवे स्टेशन ले चलने को कहा। जब स्टेशन पहुँचे तो उन्होंने एक लाख का फ़िक्स डिपोज़िट और तीन महीने की तनख़्वाह एक लिफ़ाफ़े में रख कर दे दी। ड्राईवर फूट-फूट कर रो पड़ा, "सेठ जी कहाँ जा रहे हैं? मैं भी आपके साथ चलूँगा।"

सेठ जी ने भी अपने आँसू पोंछे और गाड़ी में पहले पत्नी को चढ़ाया और सुबह जब जागे तो गाड़ी बनारस पहुँचने वाली थी। सेठ धनपत राय ने टाँगा पकड़ा और गंगा किनारे 'मोक्ष' धर्मशाला जा पहुँचे। सुबह गंगा स्नान किया और तुलसी माला लेकर 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' जपने लगे। पत्नी से बोले, "ऊषा रानी, व्यर्थ में जन्म गँवाया; यही राम भजन में लगाया होता तो 'मोक्ष' उस गाँव के छोटे घर में ही मिल जाता। फिर भी समय पर निकल आये।"

उधर सेठ जी के बच्चों को काटो को ख़ून नहीं! घर में बैठक हो रही थी कि बूढ़े ने करोड़ों की दौलत यूँ ही लुटा दी। ड्राईवर शहर छोड़ कर अनजानी जगह पर चला गया। तो ये भी पता नहीं कि गये कहाँ हैं? बड़ी बहू सारिका मन ही मन ख़ुश हो रही थी चलो पीछा छूटा सदा के लिये।

वास्तव में उनको 'मोक्ष' मिलने में अभी  देर थी।

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