मिट्टी मेरे गाँव की

01-09-2021

मिट्टी मेरे गाँव की

संदीप कुमार तिवारी 'बेघर’ (अंक: 188, सितम्बर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

आना  इधर  जब  भी आना, हम  प्रतीक्षारत्  रहते  हैं। 
आज   हम  तुमसे  हे  प्रियवर!  सारी  बातें  कहते  हैं।
उषा की ठंडी हवा  सुहानी सन-सन  कर के  बहती  है।
मेरे  घर  के  पीछे  ही  एक  पेड़  पे  कोयल  रहती  है।
कलकल   बहती  गंगा  की धारा  आवाज़  लगाती  है।
रोज़  प्रातः  में  कोयल  गीत  गा  के  मुझे  जगाती  है।
मैं   मज़ा   लूटती  सुबह  भ्रमण  में नंगे-नंगे  पाँव  की।
सबसे   सुन्दर  पावन  है   प्रियतम मिट्टी  मेरे  गाँव  की।
 
यहाँ  के  लोग  हैं  बड़े  निराले,  सीधे-सादे, भोले-भाले।
धूप   में  काम  करनेवाले, मन  से  गोरे  तन  से  काले।
अपना-पराया   नहीं   यहाँ   है,  कोई   भेद-भाव   नहीं,
सबके  सुख  में  हँसनेवाले,  सबके  दुःख  में  रोनेवाले।
शाम को चौकड़ी रोज़ है लगती रामू काका निठल्ल की।
सभी  बैठ  के  गप्पे  मारते  शोभा  बढ़ाते  पीपल  की।
ग्रीष्म की दोपहरी में  अद्भुत शीतलता  पीपल छाँव  की,
सबसे   सुन्दर  पावन  है  प्रियतम  मिट्टी  मेरे  गाँव  की ।

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