मिले हैं सिलसिले ग़म के मुहब्बत के समंदर में

15-03-2021

मिले हैं सिलसिले ग़म के मुहब्बत के समंदर में

कु. सुरेश सांगवान 'सरू’ (अंक: 177, मार्च द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

मिले हैं सिलसिले ग़म के मुहब्बत के समंदर में
गुज़ारी ज़िंदगी हमने फ़ज़ीहत के समंदर में 
 
फ़साने में बहुत जो ख़ूबसूरत जान पड़ते हैं
बदल जाते हैं वो रिश्ते हक़ीक़त के समंदर में
 
हुनर भी हैं जुदा सबके लड़ाई भी जुदा सबकी
सभी मौजों से लड़ते हैं ज़रूरत के समंदर में
 
किसी से क्या करूं शिक़वा किसे इल्ज़ाम दूं ए दिल
रखा है पांव ख़ुद मैंने मुसीबत के समंदर में
 
यक़ीं कितना करे कोई ज़माने की हिकायत पर
कोई अपना नहीं होता सियासत के समंदर में
 
महारत तैर जाने की तिरे ज़ुल्मों ने सिखला दी
अजी हम डूब ही जाते शराफ़त के समंदर में
 
अदालत को भला सच कौन दिखलाता है अब यारो
कमाई झूठ से होगी वकालत के समंदर में 
 
उठाएगा भला अब कौन ज़िम्मेदारियाँ घर की 
नई रस्में चलेंगी अब रवायत के समंदर में

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