मोहब्बत के सफ़र पर

04-09-2014

मोहब्बत के सफ़र पर

दीपक शर्मा 'दीपक’

मोहब्बत के सफ़र पर चलने वाले राही सुनो,
मोहब्बत तो हमेशा जज़्बातों से की जाती है,
महज़ शादी ही, मोहब्बत का साहिल नहीं,
मंज़िल तो इससे भी दूर, बहुत दूर जाती है।

जिन निगाहों में मुकाम- इश्क़ शादी है
उन निगाहों में फ़कत हवस बदन की है,
ऐसे ही लोग मोहब्बत को दाग़ करते हैं
क्योंकि इनको तलाश एक गुदाज़ तन की है।

जिस मोहब्बत से हज़ारों आँखें झुक जायें,
उस मोहब्बत के सादिक होने में शक़ है
जिस मोहब्बत से कोई परिवार उजड़े
तो प्यार नहीं दोस्त लपलपाती वर्क है।

मेरे लफ़्ज़ों में, मोहब्बत वो चिराग़ है
जिसकी किरणों से ज़माना रोशन होता है
जिसकी लौ दुनिया को राहत देती है
न की जिससे दुखी घर, नशेमन होता है।

मेरे दोस्त! जिस मोहब्बत से पशेमान होना पड़े
मैं उसे हरगिज़ मोहब्बत कह नहीं सकता
नज़र जिसकी वज़ह से मिल न सके ज़माने से
मैं ऐसी मोहब्बत को सादिक कह नहीं सकता।

मैं भी मोहब्बत के ख़िलाफ़ नहीं हूँ
मैं भी मोहब्बत को ख़ुदा मानता हूँ
फ़र्क इतना है की मैं इसे मर्ज़ नहीं
ज़िन्दगी सँवारने की दवा मानता हूँ।

साफ हरफ़ों में मोहब्बत उस आईने का नाम है
जो हक़ीक़त जीवन की हँस कर कबूल करवाता है
आदमी जिसका तस्सव्वुर कर भी नहीं सकता
मोहब्बत के फेर में वो कर गुज़र जाता

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